आशीष नौटियाल
नागरिकता कानून के नाम पर शुरू हुई हिंसा की टाइमलाइन पर यदि शुरू से नजर दौडाएँ तो कुछ बातें एकदम स्पष्ट नजर आती हैं। भीषण दंगों के ठहरने के बाद आखिरकार दिल्ली अपने सामान्य रूप में वापस लौटती हुई नजर आ रही है। हालाँकि इन हिन्दू विरोधी दंगों में अभी भी कई निर्मम हत्याओं की कहानियाँ सामने आ रही हैं। लेकिन साथ ही लेफ्ट-लिबरल मीडिया का एक गिरोह ऐसा है, जो क्रूरता से काटकर आग में झोंक दिए गए बीस साल के दिलबर नेगी के बजाए लिबरल मीडिया फ्रेंडली खबरों में अपने नायक तलाश रहा है।
यह बताने की जरूरत नहीं है कि देश में मौजूद लेफ्ट-लिबरल मीडिया के नायक कौन हैं या फिर कौन हो सकते हैं। यूँ भी हमारे देश ने अपने नायकों को चुनने में जल्दबाजी ही की है, और इसमें सबसे बड़ा योगदान लेफ्ट-लिबरल मीडिया का ही रहा है।
बरखा दत्त की Shero लादीदा फरजाना
गत वर्ष दिसंबर माह में नागरिकता कानून के नाम पर जामिया मिलिया यूनिवर्सिटी से शुरू हुए इस विवाद में सबसे पहले शुरुआत हुई सोशल मीडिया की एक ऐसी तस्वीर से, जिसमें आयशा रीना और लदीदा फरजाना नाम की दो लड़कियाँ अपने एक साथ को पुलिस की लाठियों से बचाती नजर आईं।
फ़ौरन लेफ्ट-लिबरल मीडिया ने आदतन इन दोनों को कंधों पर बिठाकर झाँकी निकालनी शुरू की और बरखा दत्त जैसे प्रोपेगैंडा को सूँघने वाली तथाकथित पत्रकार ने इन्हें ‘Shero’ बताया। लेकिन इससे पहले कि लेफ्ट-लिबरल मीडिया गिरोह अपने इस त्वरित स्खलन से बाहर निकल पाता, हिजाब में ढकी इन दोनों लिबरल गिरोह की नायिकाओं के सोशल मीडिया अकाउंट से इनके इस्लामिक जिहाद के साक्ष्य लोगों के हाथ लग गए। इसे बाद बुद्धिजीवी वर्ग इनसे पीछा छुड़ाते नजर आया। कम कैमरा के सामने तो यही दिखाते हुए नजर आए।
लदीदा ने अपने फेसबुक पोस्ट में खुलकर अपने मन की बातें लिखी हुई थीं, जैसे वह और लोगों की तरह सेक्युलर नजर नहीं आना चाहती है, बल्कि वह इस्लाम के अनुसार ही अपनी ‘माँगों’ के लिए खड़े रहेगी। लदीदा के फेसबुक पोस्ट कट्टर इस्लामी मदांधता में डूबे हुए थे। लदीदा इस पोस्ट में ख़ुद को और ‘अपने’ लोगों को जिस अली मुस्लीयर की बेटी बता रही थी, वो केरल के मोपला दंगों का साज़िश करता है, जिसके हाथ हिन्दुओं के ख़ून से रंगे हुए हैं। जिस अली मुस्लीयर का जिक्र कर रही थी, वो खिलाफत आंदोलन का वो भड़काऊ चेहरा है, जिसने देश के बँटवारे के लिए हिंसा की।
शरजील इमाम
खैर, फैज़ को पढ़ने वालों के लिए यह सब सामान्य सी घटना ही हैं इसमें कोई संदेह नहीं है। लदीदा की इस्लामिक पुकारों को कुछ आँखों को अच्छे लगने वाले मूक स्केच में दबा दिया गया। इसके बाद बारी थी शरजील इमाम की। लेकिन शरजील और अन्य दंगाइयों में एक अंतर तो था, शरजील ने अपने भारत विरोधी एजेंडे को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया।
शरजील ने रोजाना प्राइम टाइम में बैठकर बेहद सभ्य शब्दों में ‘फासीवाद’ और गैस चैंबर चिल्लाने वाले लेफ्ट-लिबरल गिरोह की तरह अपने चेहरे के आगे सभ्यता का नकाब नहीं लगाया और कहा कि वह हमेशा से ही भारत को एक इस्लामी राज्य बनाने का सपना देखता आया है। उसने शाहीन बाग़ के बेनकाब होने के बाद ‘फक़ हिन्दुत्व’ और ‘कागज गाय खा गई जैसे’, हिन्दुओं की कब्र खोदने और हिन्दुओं का उपहास करने वाले तमाम बैनर जलाए नहीं। शरजील ने जो कुछ किया, पूरी ईमानदारी से किया।
सोशल मीडिया पर फैज़ को पढ़ते हुए मन में ‘गजवा-ए-हिन्द’ की सेक्युलर आयतें गाने वाले अपने एजेंडा को लेकर शरजील जितने साहसी और ईमानदार नहीं हैं।
लेकिन जब शरजील सारे देश की नजरों में था, ठीक उसी समय ताहिर हुसैन जैसे लोग फरवरी के आखिर में हुए दंगों की तैयारियों में व्यस्त थे। वो छतों से पत्थरबाजी करने के लिए बड़ी-बड़ी गुलेलें बना रहे थे। ट्रेक्टर में पत्थर मँगवाकर उन्हें छोटे टुकड़ों में तैयार कर रहे थे।
सलमान
शाहीन बाग की तर्ज पर महाराष्ट्र के नांदेड़ में भी सीएए के खिलाफ कुछ दिन चले विरोध प्रदर्शन में भड़काऊ बयान देने वाले शख्स मोहम्मद सलमान का नाम भी बाहर आया। सलमान एक वीडियो में ‘शरजील तेरे सपने को हम मंजिल तक पहुँचाएँगे’ जैसे नारे लगाते हुए देखा गया।
AAP नेता कपिल गुर्जर
इसी बीच ठीक दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले आम आदमी पार्टी नेता कपिल गुर्जर गोली चलाते हुए पकड़ा गया। ‘रामभक्त गोपाल‘ के फर्जी स्टंट से भी मीडिया जब अपने मतलब का कुछ न उठा पाया तो उसने पहले कपिल गुर्जर को ‘देशभक्त’ साबित करने की कोशिश की, लेकिन कपिल गुर्जर आम आदमी पार्टी नेता निकला।
अमानतुल्ला खान
ठीक इसी दौरान आम आदमी पार्टी नेता अमानतुल्ला खान, जिसे कि शाहीन बाग़ जैसे आयोजनों का असल मास्टरमाइंड ठहराया जाना चाहिए, की भी एंट्री हुई। यह दिल्ली विधानसभा चुनावों से पहले मुस्लिम वोटों के लिए किया गया ऐतिहासिक ध्रुवीकरण के तौर पर याद रखा जाना चाहिए।
शाहीन बाग़ ने अपने चहेते मीडियाकारों के साथ मिलकर रोज थोड़ा-थोड़ा प्रयासों से दिल्ली में हिन्दुओं के खिलाफ नरसंहार की तैयारियाँ शुरू की। बीस साल के दिलबर नेगी की मौत हो, चाहे आईबी अधिकारी अंकित शर्मा का चार सौ बार चाकुओं से गोदा गया शरीर हो, इस सबकी पटकथा शाहीनबाग ने ही आधार दिया इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए।
वैचारिक आतंकी
शाहीन बाग़ के साथ-साथ आरजे सायमा जैसी छुपी हुई घातक टुकड़ियाँ भी अपने स्तर पर लोगों को उकसाते हुए खूब देखि गई। जब हालात वामपंथी मीडिया के हाथों से बेकाबू होते नजर आए तो उन्होंने कपिल मिश्रा को आरोपित बनाने का भी प्रयास किया। लेकिन इसमें भी उन्हें सफलता नहीं मिल पाई। वही कपिल शर्मा आज पीड़ितों के परिवारों को ढूँढकर आर्थिक मदद उपलब्ध करवा रहे हैं, जबकि ताहिर हुसैन और अमानतुल्ला खान जैसे दंगाई दंगों के बाद क्या कर रहे हैं, यह सभी को मालूम है। यही नहीं, दंगों के बाद सामने आ रहे वीडियो में पता चल रहा है कि मोहम्मद अतहर जैसे ऐसे ही न जाने कितने ‘मोहम्मद फलाना’ इन दंगों के पीछे के मास्टर माइंड थे।
मोहम्मद शाहरुख बनाम रवीश कुमार
मीडिया के इन गोदी नायकों के प्रकरण के बीच सबसे ज्यादा हास्यास्पद थी मोहम्मद शाहरुख़ की पहचान! ये वही मुहम्मद शाहरुख़ है, जिसने दंगों के पहले दिन ही आठ राउंड गोलियाँ चलाकर दहशत में योगदान दिया। मोहम्मद शाहरुख के सामने एक पुलिसकर्मी ढृढ़ता से खड़ा रहा, लेकिन लेफ्ट-लिबरल मीडिया ने अपना नायक मोहम्मद शाहरुख़ में ढूँढा।
दंगों के बीच एक आदमी, जो शायद अभी भी अपना चेहरा उसी आत्ममुग्धता से आईने में देखता हो, वो है वामपंथी मीडिया के सरगना रवीश कुमार! रवीश कुमार इस बीच अपने जज्बात और भावनाओं पर काबू नहीं रख पाए और आदतन एक के बाद एक गलतियाँ करते रहे। उनके जहरीले दिमाग पर उनकी उम्र का असर नजर आने लगा है।
जिस दिन मोहम्मद शाहरुख़ की आठ राउंड गोलियाँ चलाने के बाद सिर्फ तस्वीर सोशल मीडिया पर शेयर होनी शुरू हुई, उस दिन लेफ्ट-लिबरल मीडिया गिरोह यही दुआएँ करता रहा कि यह शाहरुख न होकर कोई ‘अपर कास्ट हिन्दू ब्राह्मण’ निकल आए। लेकिन लिबरल मीडिया और मुंगेरीलाल के हसीं सपनों का भाँडाफोड़ हुआ और शूटर की पहचान मोहम्मद शाहरुख के रूप में हुई।
फिर भी रवीश कुमार ने अपना आखिरी दाँव खेला और शाहरुख़ की पहचान को ‘किसी अनुराग मिश्रा‘ बताते हुए अपने प्राइम टाइम को विराम दिया। अगले दिन अनुराग मिश्रा ने अपनी तस्वीर शेयर करते हुए उसे मोहम्मद शाहरुख बताने वालों के खिलाफ FIR करने की धमकी दे डाली। लेकिन वो रवीश ही क्या, जो हार माने। फिलहाल अब रवीश को किसी नए नाम और नई ‘जात’ की तलाश है, तब तक वो वचनबद्ध है कि दिलबर नेगी और अंकित शर्मा पर बात नहीं करेंगे।
बन्दूकबाज मोहम्मद शाहरुख की गिरफ्तारी के बाद बरखा दत्त के ‘हेडमास्टर का बेटा’ की ही तर्ज पर बीबीसी और ‘दी प्रिंट’ जैसे मीडिया अपने प्रिय मानस पुत्रों को ‘टिकटोक प्रेमी’ ‘उभरता हुआ सितारा’ ‘जिम प्रेमी’ आदि आदि विशेषण देता हुआ भी नजर आया।
कॉन्ग्रेस नेता इशरत जहाँ
हिन्दू विरोधी दंगों की बात कॉन्ग्रेस का जिक्र न आए यह सम्भव नहीं होता है। सोमवार और मंगलवार को सांप्रदायिक हिंसा के दौरान शाहदरा के जगतपुरी इलाके में भी दंगा हुआ था। इस दंगे का आरोप कॉन्ग्रेस नेता और पूर्व पार्षद इशरत जहाँ उर्फ पिंकी पर लगा है। पुलिस ने पहले उसे हिरासत में लिया था और बाद में केस दर्ज कर गिरफ्तार भी कर लिया है।
चिरकालीन वामपंथी मीडिया गिरोह
इस तमाम प्रकरण से इस बार जो एक और निराशा वामपंथी मीडिया गिरोह के हाथ लगी, वह अरविन्द केजरीवाल के रंग बदलने से लगी है। जिस मुस्लिम वोट बैंक के ध्रुवीकरण से अरविन्द केजरीवाल ने जीत हासिल की, वह हनुमान चालीसा पढ़ने और पढ़ाने की सलाह दे रहा है। गोफी मीडिया के दुलारे अरविन्द केजरीवाल ने जैसे ही मृतक अंकित शर्मा के परिवार को आर्थिक मदद देने की बात कही, ‘विचारक’ वर्ग को मानो साँप सूँघ गया।
खैर, यह खेल लंबा चलेगा। लेकिन जिस तरह से वामपंथी मीडिया अपने नायकों की तलाश के लिए छटपटा रहा है, यह आनंदित तो करता है। क्योंकि अब जेएनयू और जंतर-मंतर पर जाकर देश को टुकड़ों में बाँटना फैज़-परस्तों का हसीन ख्वाब नहीं रह गया है। अब सरकारें ऐसी नहीं हैं कि इन सपनों को देखने वालों को नायक बना देगी।