नई दिल्ली। कभी ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने वाले डॉक्टर-कम्पाउण्डर या झोला छाप डॉक्टर का ही, दवाइयों वाला थैला खुलते हुए देखा है? ये बैग काफी भरा हुआ सा होता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ग्रामीण इलाकों में दवाइयाँ मिलनी मुश्किल होती हैं।
इस वजह से डॉक्टर कई जरूरी दवाएँ साथ ही लिए चलते हैं। चूँकि झोला इतना भरा हुआ होता है, इसलिए एक दवा ढूँढनी हो तो पूरा थैला ही खाली करना पड़ता है! ऐसा होते ही आपको दिखेगा कि थैले में 1-2 लाइफबॉय साबुन की टिकिया भी रखी है। आप सोचेंगे कि शायद ये हायजिन मेन्टेन करने के लिए डॉक्टर ने हाथ धोने का साबुन रखा हुआ है।
ऐसा बिलकुल नहीं है। ये एक दवाई के तौर पर ही रखी हुई है। ग्रामीण इलाकों में आत्महत्या का सबसे आसान तरीका कीटनाशक पी लेना होता है। घर से रेल की पटरी पता नहीं कितनी दूर होगी, झोपड़ी में फूस का छप्पर इतना ऊँचा ही नहीं होता कि लटका जा सके, तैरना पहले ही आता है तो डूबना भी मुश्किल है, लेकिन कृषि आधारित काम करने वालों के पास सल्फास से लेकर तरल कीटनाशकों के डब्बे मौजूद होना कोई बड़ी बात नहीं।
किसी के ऐसे जहर खा-पी लेने पर सबसे पहले उसे उल्टी करवाकर उसके पेट से जहर को बाहर निकालने की कोशिश की जाती है। इसके लिए नए लाइफबॉय साबुन को पानी में थोड़ा घोलकर पिला दिया जाता है।
अब आप सोच रहे होंगे कि क्या कीटनाशक से इतनी मौतें होती हैं, जो ग्रामीण क्षेत्रों के डॉक्टर उसका इंतजाम पास ही रखते होंगे? तो विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ.) के मुताबिक 900000 से अधिक मौतें विश्व भर में आत्महत्या से होती हैं। इसमें से 250000 से 300000 मौतें सिर्फ कीटनाशक वाले जहर से होती हैं। इसमें से भी ज्यादातर मौतें एशियाई देशों, जिनमें चीन, मलेशिया और श्रीलंका भी शामिल हैं, में होती हैं।
हाल ही में जब एनसीआरबी ने किसानों की आत्महत्या का 2019 का आँकड़ा पेश किया तो पता चला कि गत वर्ष 10281 किसानों ने आत्महत्या की है। ये आँकड़े पिछले 25 वर्षों में सबसे कम हैं। सन 1995 से, जबसे ये आँकड़े मौजूद हैं, उसके आधार पर देखें तो 2015 के बाद से इनमें लगातार कमी आती जा रही है।
जाहिर है कुछ लोगों को ये हजम नहीं होता। अपनी आदत के मुताबिक, जब आँकड़े नहीं होते तो वो कहेंगे कि आँकड़े छुपाए जा रहे हैं, और जब आ जाते हैं तो सवाल करेंगे कि क्या इन पर भरोसा किया जाए?
जब इन आँकड़ो को भी गौर से देखा जाए तो पता चलता है कि गरीबी या कर्ज की वजह से कम ही किसान आत्महत्या कर रहे हैं। अधिकांश में आत्महत्या का कारण “अन्य वजहें” नजर आती हैं।
गौरतलब है कि किसानों में दो किस्म के लोग आते हैं। एक तो वो हैं, जो खुद के खेतों में खेती करते हैं, और दूसरे वो जो खेतों में मजदूरी करते हैं। अब अगर आँकड़ों को देखा जाए तो ये पता चलता है कि अपनी जमीन पर खेती करने वालों की आत्महत्या की दर कम नहीं हुई है।
एक तथ्य ये भी है कि 19 राज्य ऐसे हैं, जो किसानों की आत्महत्या के कोई आँकड़े नहीं दे रहे। अब अगर ये देखा जाए कि किसानों की आत्महत्या का कारण क्या है, तो 2015 में उस वक्त के कृषि मंत्री ने कहा था कि कई बार किसान प्रेम संबंधों या नपुंसकता के कारण भी आत्महत्या करते हैं। इस बयान पर अच्छा ख़ासा बवाल भी हुआ था।
ये सब हमें वापस इस बात पर ले आता है कि अगर स्थिति ऐसी है तो क्या कृषि क्षेत्र में सुधारों की जरूरत नहीं है? जिनकी याददाश्त अच्छी होगी, उन्हें इस मुद्दे पर राहुल गाँधी का अपनी ही पार्टी की सरकार के खिलाफ जाना भी याद होगा।
जाहिर है कृषि क्षेत्रों में सुधार बहुप्रतीक्षित थे। किसान अपनी फसल केवल खुदरा ही कहीं और बेच सकता था, थोक में उसे लाइसेंस-परमिट धारकों के पास ही जाना पड़ता था, उस किसान को इस लाइसेंस-परमिट राज से मुक्त किया जाना आवश्यक था।
अब जब ये कदम उठाया जा रहा है तो तरह-तरह के जुमलों से किसानों को बरगलाने की कोशिश की जा रही है। एमएसपी जो कि अभी भी लागू है, उसके ख़त्म किए जाने का डर बनाया जा रहा है। इस समय ये लोग बताना भूल जाते हैं कि एमएसपी पर खरीदने के बाद भी सरकारें लम्बे समय तक भुगतान नहीं करतीं। इसके लिए भी यदा-कदा धरने-प्रदर्शन की ख़बरें आ ही जाती हैं।
बाकी अब जब लाइसेंस-परमिट राज को कृषि उत्पादों के थोक बाजार से ख़त्म कर दिया गया है, तब बदलाव आने में कितनी देर लगेगी, वो देखने लायक होगा। कुछ वर्षों बाद कृषक की आय दोगुनी हुई है या नहीं, ये तो सरकार की रिपोर्ट कार्ड पर चढ़ेगा ही!