नई दिल्ली। मध्यप्रदेश के ग्वालियर में आदिल खान नाम के युवक ने साल की शुरूआत में अपनी बीवी को तीन तलाक दिया था। बीवी की गलती ये थी कि उसने अपने शौहर यानी आदिल से शिकायत की थी कि ससुर और देवर उस पर गलत नजर रखते। बस इतनी सी बात पर आदिल ने उसे चरित्रहीन बता दिया। बाद में अपने ही अब्बा के साथ हमबिस्तर होने के लिए मजबूर करने लगा। जब महिला तैयार नहीं हुई तो उसे ढाई साल के बच्चे के साथ घर से बाहर कर दिया। इसके बाद उसे तीन तलाक दिया गया और दोबारा रिश्ता बनाने के लिए हलाला करने को मजबूर किया गया।
उत्तराखंड के हल्द्वानी में एक मुस्लिम महिला ने अपने शौहर समेत 4 लोगों पर शिकायत दर्ज करवाई। ये मामला भी तीन तलाक और हलाला से जुड़ा था। महिला का निकाह उस्मान नाम के व्यक्ति से हुआ था। लेकिन कुछ दिन बाद उस्मान ने उसे तलाक दे दिया और पूरा ससुराल मिल कर उस पर जेठ या ससुर से हलाला करवाने के लिए दबाव बनाने लगा। महिला ने तंग होकर शौहर उस्मान, जेठानी शहनाज, जेठ इकराम व ससुर के खिलाफ मारपीट, धमकी, जबरन गर्भपात कराने, दहेज उत्पीडऩ करवाया।
हरियाणा के नूँह में अब्दुल समी को गिरफ्तार किया गया था। समी ने साल 2017 में अपनी बीवी को दहेज न मिलने पर तलाक दिया था। लेकिन कुछ दिन बाद उसे अपने पास यह कहकर बुला लिया कि वह कोई न कोई रास्ता खोज लेंगे। इसके बाद जब महिला ससुराल पहुँची तो उसके ननदोई जावेद ने उसका बलात्कार कर लिया। शिकायत करने पर सास ने कहा कि उसके ससुर ने उसका हलाला करवाया है। अब आगे ये घटना नहीं होगी।
निकाह, हलाला, तीन तलाक से जुड़े ये मामले आप पाठकों के लिए नहीं हैं। ये तीन केस आरफा खानम शेरवानी (Arfa Khanum Sherwani) के लिए हैं।
- – वही आरफा जो पत्रकारिता जगत में सेकुलरिज्म के नाम पर इस्लाम का बोलबाला करने के लिए पहचानी जाती हैं।
- – वही आरफा खानम जो देश में इस्लामोफोबिया के बैनर तले हिंदूफोबिया फैलाने का घृणित कार्य लंबे समय से करती आ रही है।
- – वही आरफा जिन्हें बर्दाश्त नहीं है कि इस देश में मजहब विशेष द्वारा फैलाई कुरीतियों पर कभी कोई दूसरे समुदाय का व्यक्ति अपनी राय रखे।
यही आरफा खानम शेरवानी एक बार फिर से हिंदुओं का मखौल उड़ाने के लिए ट्विटर पर आई हैं। इस बार उनका कहना है कि पिछले 6 वर्षों में (मोदी सरकार में) जितना इस्लाम भक्तों ने पढ़ा है उतना तो शायद इस्लाम मानने वालों ने भी न पढ़ा हों।
उपरोक्त घटनाओं का जिक्र केवल इसलिए किया गया है कि आरफा को यह समझ आ जाए कि मजहब विशेष पर उठती ऊँगली निराधार नहीं है। समाज में ऐसी तमाम खबरें हैं जिनको देखने के बाद मजहब विशेष के ‘ज्ञान’ और उससे जुड़ी कुरीतियों पर चाहते न चाहते हुए भी सवाल उठने स्वभाविक हैं।
पत्रकारिता को इस्लाम प्रचार के एक मीडियम के अतिरिक्त कुछ न समझने वाली आरफा खानम शेरवानी देश के प्रधानमंत्री पर सवाल उठाते हुए 20 दिसंबर 2020 को कहा था कि जब पीएम गुरुद्वारे पहुँच गए हैं तो अच्छा होगा कि वह क्रिसमसक्रिस्मस पर चर्च भी जाएँ। क्या वे जाएँगे?
शेरवानी के इस ट्वीट का जवाब उन्हें यूजर्स ने बखूबी दिया। गरुड़ प्रकाशन के संस्थापक संक्रांतु सानु ने इस्लामी कट्टरपंथ को उजागर करते हुए कहा कि आदर समान रूप से दिया जाता है, लेकिन अब्राहिम एकेश्वरवाद में ऐसा नहीं है। उन्होंने आरफा को सलाह दी थी कि उन्हें एक नई पाक किताब की जरूरत है।
मगर, इस नोकझोंक के बीच आरफा को एक यूजर का ट्वीट नहीं भाया। समीर नाम के यूजर ने जाकिर हुसैन का वीडियो शेयर करते हुए बताया कि उनके मजहब में तो ‘मेरी क्रिसमस’ कहना भी शिर्क़ है तो इसलिए वो अपनी चीजों को सहीं करें और बाकी को ज्ञान न दें। इस पर आरफा बौखला गईं और उन्होंने तंज भरे अंदाज में लिखा:
“निकाह, तलाक़, हलाला, गज़वा-ए-हिंद, और अब शिर्क..पिछले 6 सालों में भक्तों ने जितना इस्लाम पढ़ लिया है उतना तो इस्लाम के मानने वालों ने भी शायद ही पढ़ा हो।”
आरफा खानम का यह केवल एक ट्वीट आखिर किसके पक्ष में है ये एक बड़ा चर्चा का विषय होना चाहिए। वह इस एक ट्वीट में दो निशाने साध रही हैं। पहला वह अपने सेकुलर दोस्तों के सामने हिंदुओं का मखौल उड़ा रही हैं और दूसरा वह एक नैरेटिव तैयार कर रही हैं जहाँ उनके फॉलोवर्स को मालूम चले कि निकाह, हलाला, तलाक, गजवा-ए-हिंद पर बात सिर्फ़ इस्लामोफोबिया फैलाने के लिए किया जा रहा है।
हालाँकि, तस्वीरों को फोटोशॉप के जरिए आकर्षक बनाने वाली आरफा शायद भूल गई हैं कि इस्लामी कट्टरपंथ को डिफेंड करना आज के समय में इतना आसान नहीं। पिछले 6 सालों में ‘भक्तों’ ने जो इन विषयों पर मुखर होकर बोलना शुरू किया है, उसी का नतीजा है कि आज इन कुरीतियों पर चर्चा मुमकिन है। वरना शेरवानी जैसी पढ़ी-लिखी महिलाएँ भी हैं समाज में, जिनका मन अब भी गर्त में रहने को उबाल मारता रहता है।
विमर्श का विषय है कि यदि सिर्फ़ पिछले 6 सालों में भक्तों ने सिर्फ़ मजहबी कुरीतियों पर मुखर होकर बोलना शुरू किया है तो शेरवानी इस तरह के तंज कसने लगीं। उन्होंने तब आखिर कुछ बोलने की हिम्मत क्यों नहीं की जब उनके समुदाय के लोग इन शब्दों को परिभाषित करते रहे।
क्यों गजवा-ए-हिंद के कॉन्सेप्ट पर आज तक उन्होंने सफाई पेश नहीं की? क्यों आतंकी समूहों के नारों पर उन्होंने स्पष्टीकरण नहीं दिया? क्यों ग्वालियर में कोई आदिल खान अपनी बीवी को चरित्रहीन कहता रहा और आरफा चुप रह गईं? क्यों नूँह में किसी अब्दुल समी के पिता ने अपनी बहू का हलाला करवाया और आरफा शांत रहीं? क्यों उस्मान के परिजनों के ख़िलाफ़ आरफा के मुँह से एक शब्द तक नहीं निकला?
मजहब की ठेकेदार क्या वह तभी तक हैं जब कोई दूसरा उस पर सवाल उठाएँ? अपने समुदाय के लोग किस तरह उसे बदनाम कर रहे हैं उससे आरफा खानम का क्यों सरोकार नहीं है? हिंदू इस्लाम को बदनाम नहीं कर रहे हैं। इसकी मट्टी पलीद उसी कट्टरपंथ ने की है जिसकी कठपुतली बनकर आरफा ‘ज्ञानवाचक’ बनती हैं।
वरिष्ठ पत्रकार होने के बाद यदि उनके एजेंडे पर एक नजर घुमाएँ तो पता चलता है कि वास्तविकता में ‘भक्तों’ ने मोदी समर्थक होने के बाद पीएम मोदी का बखान नहीं किया जितना इन लोगों ने उनका नाम लेकर उनका प्रचार कर दिया है। जिस तरह से पिछले कुछ सालों में आरफा जैसे पत्रकारों ने आलोचना के नाम पर पीएम मोदी का सब्जेक्ट बनाया है, उससे साफ पता चलता है कि यदि ये सब मोदी सरकार में वाकई देशहित के मुद्दों पर फोकस करते तो इनकी पत्रकारिता का तेल निकल जाता।
आरिफ मोहम्मद खान से इस्लामी ज्ञान लेना इसीलिए आरफा को मँजूर नहीं था क्योंकि वह देशहित में अपना बयान दे रहे थे और मुसलमान होने के मायने समझा रहे थे। उनके लिए शायद असली ज्ञानदाता जाकिर नाइक जैसे कट्टरपंथी हैं जिन्हें ‘मेरी क्रिसमस’ कहना शिर्क लगता है और जिन्हें गजवा-ए-हिंद का कॉन्सेप्ट एक पवित्र हकीकत लगता है।
ऐसी ही महिलाओं के कारण देश की अन्य मुस्लिम महिलाएँ अब भी उन्हीं हलाला, निकाह, तलाक, शिर्क जैसे शब्दों में निहित संघर्षों से जूझ रही हैं जिनसे उभारने की लड़ाई कौम की पढ़ी-लिखी महिलाओं को करनी चाहिए थी। मगर वह क्या कर रही हैं? ट्विटर पर कट्टरपंथ को विकराल रूप देना।
टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित सच्चर कमेटी की रिपोर्ट पढ़िए। पता चलेगा कि कौम की महिलाएँ कहाँ जा रही हैं। मुस्लिम महिलाओं का साक्षरता दर देश के किसी भी अन्य धार्मिक समूह की महिलाओं के कम है, जबकि इसी समुदाय के 3 से 35 साल के सबसे ज्यादा ऐसा युवा हैं जिन्होंने शिक्षा प्रोग्रामों से खुद को कभी जोड़ा ही नहीं।
इन सबका जवाब कौन देगा? कैसे जस्टिफाई किया जाएगा इस अंतर को कि जब देश में लड़कियों के लिए अलग से शिक्षा अभियान चल रहे हैं तब लड़कियाँ कहाँ पिछड़ रही हैं? इसमें भी गलती सरकार की है या फिर एक निश्चित कौम और उसकी विचारधारा की या आरफा जैसी महिलाओं की। आज गरीबी के आधार पर भी इस फर्क का स्पष्टीकरण नहीं दिया जा सकता है, क्योंकि देश की अनुसूचित जनजातियों की स्थिति भी मुस्लिम महिलाओं से साक्षरता दर में बेहतर है।
तलाक, हलाला, गजवा-ए-हिंद के सामने सती प्रथा, देवदासी, बलि प्रथा, गोमूत्र व गोबर, जाति प्रथा, छुआछूत, दहेज प्रथा, बाल विवाह, वर्ण-लिंग भेदभाव, पर सवाल उठाना बहुत आसान है, लेकिन उससे मुश्किल इस बात का जवाब देना है कि जब देश के अधिकांश हिंदू अपने धर्म में प्रचलित कुरीतियों को धिक्कार चुके हैं, तब आरफा खानम क्यों इन पर स्पष्टीकरण देने के लिए हिंदुओं का मखौल उड़ा रही हैं?
आखिर पढ़ी-लिखी लड़की चाहे किसी भी धर्म की हो तलाक, हलाला को कैसे डिफेंड कर सकती है। आखिर गजवा-ए-हिंद में निहित संदेश को कैसे मजाक में लिया जा सकता है जिसमें कहा ही ये जाता हो कि खून की नदियाँ बहेंगी। भारत पर कब्जा किया जाएगा।
उन उलेमाओं के समर्थन में बात रखना जो तीन तलाक के समाप्त होने पर ये कह देते हैं, “संसद से पास हुआ तीन तलाक कानून शरीयत में हस्तक्षेप है।” उनसे आप क्या सामाजिक हित की उम्मीद लगाएँगे। याद करिए पिछले साल मुस्लिम लॉ बोर्ड के तीन तलाक पर आए बयानों को और पूछिए आरफा से कि क्यों वह इन सभी मुद्दों पर प्रश्न उठाने को पत्रकारिता नहीं मानती हैं और क्यों उनके लिए पत्रकार होने का अर्थ सिर्फ़ राष्ट्रीय मुद्दों पर गलत ढंग से चर्चा करना रह गया है।