राजेश श्रीवास्तव
इन दिनों देश में राफेल डील को लेकर कोहराम मचा है। राफेल डील को लेकर लोगों को बोफोर्स सौदे की याद आने लगी है। जिस तरह बोफोर्स सौदे की तपिश से पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी, को इमेज को बिगाड़ने का काम पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने झुलसाने का काम किया था।
ठीक उसी प्रकार राफेल डील एक बार फिर साफ-सुथरी छवि के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर सवालिया निशान तो लगा ही रही है। आगे चलकर यह क्या साबित होगी, यह तो समय बतायेगा। पूर्व प्रधानमंत्री के जीते-जी तो वह बोफोर्स के दाग से बाहर नहीं आ सके थ्ो। हालांकि अब यह साफ हो गया है कि बोफोर्स सौंदे में पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी का कोई रोल नहीं था।
यहां बात बोफोर्स की नहीं हो रही है लेकिन रक्षा सौदों को लेकर जब भी देश बड़ी डील करता है तो वह विवादों में आ ही जाता है। यह पहली बार नहीं हुआ। जब भी बड़े रक्षा सौदे हुए वह विवादों की जद में आ ही गये। 2०13 में उजागर हुआ हेलीकाप्टर घोटाला, भारत-इजरायल के बीच हुआ 2 अरब डालर का रक्षा अनुबंध भी इसी तरह के मामले रहे हैं।
इन्हीं सब से निपटने के लिए वर्तमान की मोदी सरकार ने ही रक्षा सौदों को रिश्वतखोरी से मुक्त करने के लिए नयी खरीद रक्षा नीति भी बना डाली लेकिन उसके बावजूद इससे निजात मिलती नहीं दिख रही है। रिपोर्ट के अनुसार, रक्षा एजेंट नियुक्त करने के साथ कई शर्तें जोड़ी गई हैं। इसमें एजेंट नियुक्त करने के दो हफ्ते के भीतर उसकी जानकारी साझा करना, सौदे की सफलता या असफलता के आधार पर एजेंट के साथ किसी तरह की शर्त न रखना, मंत्रालय को जब चाहे एजेंटे से जुड़े वित्तीय दस्तावेजों की जांच की मंजूरी देना और मंत्रालय को एजेंट के साथ लेन-देन की वार्षिक रिपोर्ट देना शामिल है।
इनके उल्लंघन को दंडात्मक कार्रवाई से जोड़ा गया है। हालांकि यह साफ नहीं किया गया है कि सजा किस प्रकार की होगी। रक्षा मंत्रालय के पास कभी भी किसी भी स्तर पर विदेशी कंपनी की ओर से नियुक्त एजेंट को खारिज करने का अधिकार होगा. इस प्रावधान का मकसद रक्षा सौदों से विवादित भूमिका वाले लोगों को दूर रखना है। कंपनियों के रक्षा एजेंट को खारिज करने का मंत्रालय का फैसला अंतिम होगा और इसे तत्काल प्रभाव से लागू माना जाएगा।
नीति में यह स्पष्ट किया गया है कि कंपनियां रक्षा सौदे की सफलता या असफलता को आधार बनाकर अपने एजेंट को पुरस्कृत करने या सजा देने जैसी कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष शर्त नहीं रखेंगी। इसमें एजेंट को मिलने वाले कमीशन को कॉन्ट्रेक्ट की कीमत से जोड़ा गया है। नई रक्षा खरीद नीति के बेहद खास माने जा रहे ‘रणनीतिक साझेदार’ अध्याय को अभी तैयार किया जा रहा है जिसे बाद में शामिल किया जाएगा।
भारत में रक्षा सौदों में रिश्वतखोरी व एजेंट की संदिग्ध भूमिका और इससे उपजे राजनीतिक विवाद काफी पुरानी समस्या है। बोफोर्स तोप से लेकर ताबूत घोटाले और हालिया अगस्ता-वेस्टलैंड हेलिकॉप्टर खरीद से जुड़े विवाद तक इसके तमाम उदाहरण हैं। नई रक्षा खरीद नीति में एजेंट की मान्यता के साथ उम्मीद की जा रही थी कि कि रक्षा सौदों में पारदर्शिता बढ़ेगी और इनसे जुड़े राजनीतिक विवादों का सिलसिला रुकेगा।
लेकिन कुछ भी थमता या रुकता नहीं दिख रहा है। राफेल डील भी यूपीए के समय से ही विवादों का सबब रही। यूपीए की सरकार में राफ़ेल डील पर एचएएल और दसाल्ट एविएशन के बीच गंभीर मतभेद थ्ो। यूपीए सरकार जब फ्रांस की कंपनी से राफ़ेल विमानों पर समझौते पर बातचीत कर रही थी तब एचएएल और दसाल्ट एविएशन के बीच भारत में इन जंगी विमानों के उत्पादन को लेकर ‘गंभीर मतभेद’ थे।
पिछली यूपीए सरकार ने 2०12 में दसाल्ट एविएशन कंपनी से 126 मीडियम मल्टी-रोल कॉम्बेट विमान खरीदने की बातचीत शुरू की थी। योजना यह थी कि दसाल्ट एविएशन 18 राफ़ेल विमान तैयार हालत में देगी जबकि कंपनी एचएएल के साथ भारत में 1०8 विमानों का निर्माण कराएगी। बहरहाल यह करार नहीं हो पाया। अब जब मोदी सरकार ने वर्ष 2०14 में केंद्र में सत्ता संभाली तो पुरानी बातें खत्म हो गयीं।
और अपनी 2०15 की फ्रांस यात्रा के समय प्रधानमंत्री मोदी ने जो डील की उसकी पर्तें खुलने लगी हैं तो फिर विवाद बढ़ना स्वाभाविक है। दरअसल फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति ओलांद के खुलासे के बाद विपक्ष के हाथ राफेल के रूप में ऐसा हथियार लग गया है जिससे वह प्रधानमंत्री की छवि को उड़ाना चाहता है। विपक्ष इसे बोफोर्स से कम नहीं समझ रहा है। अब देखना है कि यह कितना कारगर साबित होता है।