राजेश श्रीवास्तव
बीती रात लखनऊ की जाबांज और एनकाउंटर स्पेशलिस्ट पुलिस ने एक मल्टी नेशनल कंपनी में काम कर रहे होनहार मैनेजर की गोलीमार कर हत्या कर दी और आरोपी सिपाही ने सफाई दी कि उसने सेल्फ डिफेंस में सिर में गोली मार दी। यह सफाई भी रहती तो भी ठीक थी हास्यास्पद तो यह है कि देर रात तक आरोपी सिपाही की पत्नी एसएसपी से मुकदमा लिखाने की जिद करती रही कि उसके पति के साथ अन्याय हो रहा है। युवक की मौत के बाद मीडिया की सरगर्मी बढ़ी तो मुख्यमंत्री भी जागे और उन्होंने आनन-फानन में आरोपी सिपाहियों को गिरफ्तार कर जेल भ्ोज दिया और उन्हें बर्खास्त कर दिया। सवाल कार्रवाई या महज एक घंटना का नहीं है। सवाल यह है कि भाजपा सरकार में आखिर पुलिस इतनी बेअंदाज क्यों हो जाती है क्यों पुलिस गोली चलाने से भी नहीं चूकती। क्या किसी को सेल्फ डिफेंस में सिर पर गोली मारे जाने की एक भी घटना को आपने सुना या पढ़ा है, शायद नहीं। इस पुलिस को इतना हौसला योगी सरकार ने ही दिया है। पुलिस का मनोबल बढ़ाना तो ठीक है इतनी बेअंदाजी ठीक नहीं है कि आम आदमी का सड़क पर चलना दूभर हो जाए।
यूपी पुलिस का मनोबल अगर सही दिशा में बढ़ा होता तो शायद अपराध कम हो जाते। पर अपराध पर नियंत्रण तो कम होता नहीं दिख रहा है। राज्यपाल राम नाईक भले ही बार-बार कहते रहे हैं कि यूपी में अपराध पर नियंत्रण हुआ है पर आपराधिक घटनाएं तो कम से कम इस बात की तस्दीक नहीं करतीं। जिस तरह सड़क पर खुलेआम पुलिस गुंंडई कर रही है उसका साफ कहना है कि आपको जो भी करना हो कर लीजिए। कोई हमारा कुछ नहीं कर सकता। यह पुलिस की बेअंदाजी है, ऊंचा मनोबल नहीं। यूपी के पुलिस की कहानी तो यह है कि राजधानी में ही तैनाती ठाकुर गंज थाने के एक दरोगा दोनों पक्षों में समझौता कराने की धमकी दे रहे हैं और धमकी यह है कि अगर समझौता नहीं किया तो गिरफ्तारी कर लेंगे। फर्जी मुकदमे में एक पक्ष के घर की महिलाओं को भी शामिल कर लिया गया है। इस मामले में सीओ चौक तक को जानकारी दी गयी पर मामला टांय-टांय फिस्स। यानि लखनऊ की पुलिस मांडोली पर उतर आयी है ताकि दोनों पक्षों से उगाही की जा सके। जबकि एक पक्ष से वह मोटी रकम पहले ही वसूल कर चुके हैं। इसी तरह का एक मामला हजरतगंज का भी है। यह तमाम मामले केवल एक नजीर भर है।
योगी सरकार को उन डीजीपी से पूछना चाहिए जिनकी तैनाती के लिए सवा महीने का लंबा इंतजार किया गया। डीजीपी की कुर्सी लंबे समय तक खाली रखी गयी। क्या उनके आने के बाद यूपी पुलिस में कोई बदलाव होता दिखा या वसूली तेज हो गयी। यूपी पुलिस के डीजीपी ओ.पी. सिंह भले ही आदर्श पुलिसिंग की बात कर रहे हों पर सड़क पर चलते आम आदमी को तो पुलिस का बदला चेहरा नजर नहीं आता है। हां इतना जरूर हुआ है कि हर चौराहे पर आपको दिन-रात आठ-दस पुलिसकर्मी जरूर दिख जाएंगे। पर वह किन कार्यों में लिप्त हैं यह जगजाहिर है। पुलिस प्रशासन की मुस्तैदी जो बसपा सरकार में दिखती थी आज लोग उसकी नजीर दे रहे हैं। पर भाजपा सरकार की पुलिस ने तो समाजवादी पार्टी का भी रिकार्ड तोड़ दिया है। सरकार को सोचना होगा कि वह पुलिसिंग सिस्टम को कैसे सुधारे कि आम आदमी को पुलिस में बेहतर छवि दिख्ो। आम आदमी पुलिस से डरे नहीं बल्कि अपनी बात कह सके। पुलिस से लोगों को न्याय मिलता दिख्ो। पुलिस की लंबी-चौड़ी फौज जुगाड़ के बजाय जनता के हित करती दिख्ो। इसकी रणनीति तो डीजीपी को बनानी पड़ेगी। मुख्यमंत्री को यह तय करना होगा कि महज आरोपी सिपाही की गिरफ्तारी से बात नहीं बनेगी। रणनीति तो आपको ही बनानी होगी।
सबसे बड़ा सवाल है कि क्या वाकई यूपी में कानून-व्यवस्था सुधारने के नाम पर फर्जी एनकाउंटर हो रहे हैं? क्योंकि मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट तो कुछ इसी तरफ इशारा करती है। फर्जी एनकाउंटर के मामले में पिछले साल राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की भी एक रिपोर्ट आई थी, जिसमें कहा गया था कि फर्जी एनकाउंटर की शिकायतों के मामलों में उत्तर प्रदेश पुलिस देश में सबसे आगे है। आयोग ने पिछले 12 साल का आंकड़ा जारी किया था, जिसमें देशभर से फर्जी एनकाउंटर की कुल 1241 शिकायतें आयोग के पास पहुंची थीं। इसमें अकेले 455 मामले यूपी पुलिस के खिलाफ थे। हालांकि सरकार के आंकड़े कुछ और ही बयां करते हैं। इसी साल फरवरी में एक आधिकारिक आंकड़ा जारी किया गया था, जिसमें बताया गया कि योगी सरकार के सत्ता में आने के 1० महीने के अंदर पूरे राज्य में करीब 11०० पुलिस एनकाउंटर हुए। इनमें 34 अपराधी मारे गए, 265 घायल हुए और करीब 2,7०० हिस्ट्री-शीटरों को गिरफ्तार किया गया। इसके अलावा पुलिस द्बारा किए गए कई एनकाउंटर ऐसे भी थे, जिन्हें फर्जी करार दिया गया। मानवाधिकारों के लिए काम करने वाले एक संगठन ‘सिटीजंस अगेंस्ट हेट’ ने हाल ही में एक रिपोर्ट पेश की थी और दावा किया था कि यूपी पुलिस द्बारा किए गए करीब 16 एनकाउंटरों में गड़बड़ियां हैं। संगठन का कहना था कि मुठभेड़ से जुड़े कई ऐसे तथ्य उन्हें मिले हैं जो संदेह पैदा करते हैं।
पहली तो ये कि इन सभी 16 मामलों में दर्ज हुए दस्तावेजों में करीब-करीब एक जैसी ही एनकाउंटर की कहानियां बताई गई हैं। जैसे अपराधियों को पकड़ने का तरीका और एनकाउंटर में हर बार एक अपराधी मारा जाता है, जबकि दूसरा मौके पर फरार होने में सफल हो जाता है। इसके अलावा संगठन ने ये भी दावा किया था कि पुलिस ने जिन अपराधियों को एनकाउंटर में मार गिराने का दावा किया था, उनके शरीर पर कई तरह के जख्म के निशान मिले थे, जिससे मामला एनकाउंटर की तरफ न जाकर, पुलिस प्रताड़ना की तरफ घूम जाता है। संगठन ने एनकाउंटर फर्जी होने का एक और दावा किया था कि मुठभेड़ में अपराधियों को बिल्कुल पास से गोली मारी गई है, जो एनकाउंटर पर सवाल खड़े करता है। उनका कहना था कि एनकाउंटर के तहत अमूमन गोली तब चलाई जाती है, जब अपराधी भाग रहा होता है या पुलिस पर हमला बोल देता है। ऐसे में गोली बिल्कुल पास से कैसे लग सकती है? संगठन ने ये भी दावा किया था कि मुठभेड़ों में खास समुदाय को निशाना बनाया जा रहा है। वहीं, कुछ संगठनों का ये भी दावा था कि पुलिस पहले गोली मार देती है और बाद में उसके हाथ में बंदूक पकड़ा दी जाती है, ताकि उसे एनकाउंटर का रूप दिया जा सके। अब सच क्या है और झूठ क्या है, यह या तो पुलिस को पता है या शायद सरकार को। लेकिन ऐसे मामलों को गंभीरता से लेना चाहिए और न्यायिक जांच जरूर करानी चाहिए।