राजेश श्रीवास्तव
कानपुर में कुख्यात अपराधी विकास दुबे को पकड़ने गई पुलिस टीम को जिस तरह विकास दुबे की गैंग ने घेरा और आठ पुलिसकर्मियों की शहादत हुई, उससे पता चलता है कि उत्तरप्रदेश में अपराधियों का हौसला कितना बुलंद है, कानून व्यवस्था कितनी सड़ी-गली है और राजनीति के साथ अपराध का गठजोड़ कितना मजबूत है। पहले जब इस तरह की कोई बड़ी घटना होती थी, तो सरकार में बैठे लोगों से इस्तीफ़े की मांग होती थी। निश्चित रूप से विकास दुबे रातों-रात नहीं खड़ा हो गया उसे खाद-पानी सियासत ने ही मुहैया करायी। आज विकास जो बढ़ गया है वह सत्ता और अपराध की काकटेल का ही निखरा रूप विकास दुबे के रूप में हम देख रहे हैं।
समाज ऐसी घटनाओं से भीतर तक हिल जाता था। नैतिक मूल्य कितनी तेजी के साथ गिर रहे हैं, इस पर विमर्श होते थे। लेकिन अब इस तरह की दो-चार बातें सोशल मीडिया पर हो जाती हैं और समाज की सारी जिम्मेदारी वहीं खत्म हो जाती है। सत्ता में बैठे लोगों की तो बात ही क्या की जाए, जिनके पास हर घटना-दुर्घटना का एक ही इलाज है, पीड़ितों को मुआवजे का ऐलान। इसके बाद सत्ता की सारी शक्ति स्थितियों को मैनेज करने और बयानबाजी में लग जाती है।
कानपुर की घटना में एक साथ आठ पुलिसकर्मी मारे गए, इसलिए इस बार घटना को बड़ी कहा जा रहा है, लेकिन इससे पहले भी पुलिस वालों पर जो हमले हुए या जिस तरह राजनैतिक दबाव ने उन्हें अपमानित किया, अगर उन्हें भी बड़ी घटना ही समझा जाता, तो शायद कानपुर जैसे हालात से बचा जा सकता था। याद कीजिए दो साल पहले इसी उत्तरप्रदेश में भीड़ की हिसा का शिकार इंस्पेक्टर सुबोध सिह हुए थे। देश के अन्य राज्यों में भी कहीं रेत माफिया, कहीं टिम्बर माफिया के निशाने पर पुलिस अधिकारी और जवान आते रहे हैं। ये माफिया किसी दूसरी दुनिया से अपनी शक्ति और पोषण नहीं पाते हैं, कि उनके लिए किसी और को जिम्मेदार ठहराया जाए। आम जनों के बीच से ही सत्ता, व्यापार और कानून का अनैतिक गठजोड़ किसी को दबंग बनाता है, तो किसी का हक मारता है। विकास दुबे जैसे लोग ऐसे ही अनैतिक गठजोड़ की पैदाइश है।
आश्चर्य है कि इस गठजोड़ पर जितनी चिता व्यक्त की गई, राजनीति के अपराधीकरण या अपराध के राजनीतिकरण को लेकर जितना मंथन किया गया, उतना अधिक समाज में विकास दुबे जैसे लोगों का जहर फैलता गया। दुख इस बात का है कि अब भी इस जहर का इलाज ढूंढने में समाज और सत्ता की दिलचस्पी नजर नहीं आ रही है। शायद अधिकतर लोग यह मान चुके हैं कि राजनीति में बाहुबलियों का साथ जरूरी है और बाहुबली अपने राजनैतिक रसूख के बूते प्रशासन के जूते की नोंक पर रखना चाहते हैं। प्रशासन में बैठे बहुत से लोग भी नियम और नीतिपुस्तिका की जगह उस इबारत पर यकीन करते हैं जो सत्ता और शक्तिसंपन्न लोग उनके लिए लिखते हैं। शायद वक्त आ गया है कि प्रेमचंद के नमक के दारोगा का पुनर्पाठ किया जाए और उसमें आदर्शवादिता को तलाशने की जगह उस सच को समझा जाए, जिसे प्रेमचंद ने बरसों पहले देख और समझ लिया था।
विकास दुबे हो या कोई और माफिया, ये रातों-रात खड़े नहीं हुए हैं। न इनमें इतना अनैतिक साहस अनायास आ गया कि वे अपनी गैंग के साथ समूची पुलिस टीम पर हमला बोल दें। इस सबके पीछे गहरी साजिश है। विकास दुबे पर पचास से अधिक मामले दर्ज हैं। वो इनामी बदमाश है। और बावजूद इसके उसके पास अपने अपराध के साम्राज्य को चलाने के लिए पूरा नेटवर्क है, जिसमें सैकड़ों युवा सरकार के अलग-अलग विभागों से, पुलिस से खबरें उसके लिए लाया करते थे। पुलिस, प्रशासन, पीडब्ल्यूडी, नगर निगम, केडीए हो या अन्य कोई भी सरकारी विभाग, सभी जगह पर उसके लोग मौजूद हैं। जिस दिन पुलिस उसके घर पर आने वाली थी, उस दिन भी करीब साढ़े पांच घंटे पहले ही उसे इस बात की खबर लग गई थी और उसने अपने आदमियों को इकत करके हमला करने की तैयारी कर ली थी।
जबकि पुलिस विभाग की तैयारी विकास दुबे जैसे कुख्यात अपराधी को पकड़ने की शायद थी ही नहीं। शहीद हुए सीओ देवेन्द्र मिश्रा के नेतृत्व में तीन थानों की फोर्स विकास के गांव दबिश देने पहुंची, लेकिन उनमें से किसी को यह अनुमान नहीं था कि वह इस तरह उन्हें घेर सकता है। उन्होंने विकास दुबे को किसी मामूली अपराधी की तरह पकड़ने की तैयारी की। और यह चूक उन पर बहुत भारी पड़ी। सवाल यही है कि आखिर किसी शातिर अपराधी के बारे में पुलिस तंत्र के पास पूरी जानकारी क्यों नहीं थी और अगर जानकारी किसी के पास थी तो उसे किस वजह से छिपा कर अपने साथियों की जान दांव पर लगाई गई।
कानपुर की घटना के बाद कई तस्वीरें सामने आई हैं, जिसमें विकास दुबे के राजनैतिक कनेक्शन समझ में आते हैं। सत्ता या सरकार किसी की भी रही हो, विकास दुबे ने राजनेताओं के बीच अपनी पैठ बनाए रखी। पुलिस को विकास के भाई के घर से सरकारी एम्बेसडर गाड़ी मिली है, जिसका उपयोग विकास अपना राजनैतिक दबदबा दिखाने के लिए करता था। यह राज्यपाल के प्रधान सचिव के नाम पर है, जिसे 2०14 में नीलामी में विकास के भाई ने खरीदी थी।
लेकिन इस गाड़ी को उसने अपने नाम पर ट्रांसफर नहीं कराया था। बिना कागजात के गाड़ी बीते छह सालों से कैसे चलती रही, यह सवाल भी सरकार और प्रशासन से पूछा जाना चाहिए। उत्तरप्रदेश सरकार ने सीएए का विरोध करने वालों के नाम और तस्वीरों के पोस्टर चौराहे पर टांगे। डॉ. कफील खान को अरसे से कैद में रखा है। बस विवाद पर कांग्रेस अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू को गिरफ्तार किया, लेकिन विकास दुबे जैसे फलते-फूलते अपराधियों पर उसकी निगाह नहीं गई। क्या इसलिए कि उससे सरकार का कोई राजनैतिक विरोध नहीं था। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक पुलिस विकास को ढूंढ ही रही है। अलबत्ता उसके आलीशान घर और महंगी गाड़ियों को तोड़ कर प्रशासन ने अपनी नाराजगी और सख्ती का परिचय दे दिया है, विकास पर इनामी राशि भी बढ़ा दी है।
लेकिन क्या इससे आठ पुलिस कर्मियों की जान वापस आ जाएगी या जो बची पुलिस फोर्स है, उसका जोश नए सिरे से लौट आएगा। घर और गाड़ी का तो दूसरा उपयोग भी किया जा सकता था। पुलिस को अगर सख्ती दिखानी ही है तो अपने ऊपर पड़ते राजनैतिक दबाव के खिलाफ दिखाए ताकि बेईमानी लापता हो जाए। सत्ता और अपराध के गठजोड़ से ईमानदारी के अलावा कोई दूसरी फोर्स नहीं लड़ सकती। विकास दुबे को पकड़ने गई पुलिस टीम को जिस तरह विकास दुबे की गैंग ने घेरा और आठ पुलिसकर्मियों की शहादत हुई, उससे पता चलता है कि उत्तरप्रदेश में अपराधियों का हौसला कितना बुलंद है, कानून व्यवस्था कितनी सड़ी-गली है और राजनीति के साथ अपराध का गठजोड़ कितना मजबूत है। पहले जब इस तरह की कोई बड़ी घटना होती थी, तो सरकार में बैठे लोगों से इस्तीफ़े की मांग होती थी। समाज ऐसी घटनाओं से भीतर तक हिल जाता था। नैतिक मूल्य कितनी तेजी के साथ गिर रहे हैं, इस पर विमर्श होते थे। लेकिन अब इस तरह की दो-चार बातें सोशल मीडिया पर हो जाती हैं और समाज की सारी जिम्मेदारी वहीं खत्म हो जाती है। सत्ता में बैठे लोगों की तो बात ही क्या की जाए, जिनके पास हर घटना-दुर्घटना का एक ही इलाज है, पीड़ितों को मुआवजे का ऐलान। इसके बाद सत्ता की सारी शक्ति स्थितियों को मैनेज करने और बयानबाजी में लग जाती है। कानपुर की घटना में एक साथ आठ पुलिसकर्मी मारे गए, इसलिए इस बार घटना को बड़ी कहा जा रहा है, लेकिन इससे पहले भी पुलिस वालों पर जो हमले हुए या जिस तरह राजनैतिक दबाव ने उन्हें अपमानित किया, अगर उन्हें भी बड़ी घटना ही समझा जाता, तो शायद कानपुर जैसे हालात से बचा जा सकता था। याद कीजिए दो साल पहले इसी उत्तरप्रदेश में भीड़ की हिसा का शिकार इंस्पेक्टर सुबोध सिह हुए थे।
देश के अन्य राज्यों में भी कहीं रेत माफिया, कहीं टिम्बर माफिया के निशाने पर पुलिस अधिकारी और जवान आते रहे हैं। ये माफिया किसी दूसरी दुनिया से अपनी शक्ति और पोषण नहीं पाते हैं, कि उनके लिए किसी और को जिम्मेदार ठहराया जाए। आम जनों के बीच से ही सत्ता, व्यापार और कानून का अनैतिक गठजोड़ किसी को दबंग बनाता है, तो किसी का हक मारता है। विकास दुबे जैसे लोग ऐसे ही अनैतिक गठजोड़ की पैदाइश है।
आश्चर्य है कि इस गठजोड़ पर जितनी चिता व्यक्त की गई, राजनीति के अपराधीकरण या अपराध के राजनीतिकरण को लेकर जितना मंथन किया गया, उतना अधिक समाज में विकास दुबे जैसे लोगों का जहर फैलता गया। दुख इस बात का है कि अब भी इस जहर का इलाज ढूंढने में समाज और सत्ता की दिलचस्पी नजर नहीं आ रही है। शायद अधिकतर लोग यह मान चुके हैं कि राजनीति में बाहुबलियों का साथ जरूरी है और बाहुबली अपने राजनैतिक रसूख के बूते प्रशासन के जूते की नोंक पर रखना चाहते हैं। प्रशासन में बैठे बहुत से लोग भी नियम और नीतिपुस्तिका की जगह उस इबारत पर यकीन करते हैं जो सत्ता और शक्तिसंपन्न लोग उनके लिए लिखते हैं। शायद वक्त आ गया है कि प्रेमचंद के नमक के दारोगा का पुनर्पाठ किया जाए और उसमें आदर्शवादिता को तलाशने की जगह उस सच को समझा जाए, जिसे प्रेमचंद ने बरसों पहले देख और समझ लिया था। विकास दुबे हो या कोई और माफिया, ये रातों-रात खड़े नहीं हुए हैं। न इनमें इतना अनैतिक साहस अनायास आ गया कि वे अपनी गैंग के साथ समूची पुलिस टीम पर हमला बोल दें। इस सबके पीछे गहरी साजिश है। विकास दुबे पर पचास से अधिक मामले दर्ज हैं। वो इनामी बदमाश है। और बावजूद इसके उसके पास अपने अपराध के साम्राज्य को चलाने के लिए पूरा नेटवर्क है, जिसमें सैकड़ों युवा सरकार के अलग-अलग विभागों से, पुलिस से खबरें उसके लिए लाया करते थे। सभी जगह पर उसके लोग मौजूद हैं। जिस दिन पुलिस उसके घर पर आने वाली थी, उस दिन भी पांच घंटे पहले ही उसे खबर लग गई थी।