अभिरंजन कुमार
अब इसमें कोई संदेह नहीं कि राम की महिमा अपरम्पार है, वरना लगभग 500 साल बाद अयोध्या में राम मंदिर का पुनर्निर्माण संभव नहीं होता। जिन दुष्ट और बर्बर आक्रांताओं ने उनका मंदिर तोड़ा होगा, उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि एक दिन मर्यादा पुरुषोत्तम के भक्त बेहद मर्यादित तरीके से उनके पाप का अंत करते हुए अपने आराध्य का मंदिर वापस ले लेंगे।
इस मौके पर मेरे मन में यह खयाल भी आ रहा है कि क्या यह सही समय नहीं है, जब हम भारत में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच चिरकाल से चली आ रही साम्प्रदायिक समस्या का हल ढूंढने के बारे में भी शिद्दत से विचार करें? यदि हां, तो इसके लिए निम्नलिखित तीन बातों पर गौर करना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है।
कोई किसी धर्म को माने, लेकिन इतिहास जिन्हें आक्रमणकारी सिद्ध करता है, जिन लोगों ने अनगिनत हत्याएं की, अनगिनत बलात्कार किये, अनगिनत धार्मिक स्थल तोड़े और अनगिनत लोगों को तलवार की नोंक पर धर्मांतरित करा लिया, उन्हें यदि कोई अपना गौरवशाली पूर्वज माने, तो समस्या बनी रहेगी।
कांग्रेस की सरकारों का रोल देश की जनता के इतिहास बोध को बिगाड़ने और हिन्दुओं एवं मुसलमानों को लड़ाए रखने में बेहद भयानक रहा है। मुझे शर्म आती है कि आज भी इस देश में अनेक आक्रांताओं के नाम पर शहरों, गांवों, सड़कों इत्यादि के नाम हैं, फिर भी उन्हें किसी ने बदला नहीं। और तो और, बाबर और औरंगजेब जैसे हत्यारों के नाम पर नई सड़कों के नाम भी रख दिए गए, वो भी देश की राजधानी में। ज़रा सोचिए कि क्या किसी हत्यारे, बलात्कारी, आक्रमणकारी के नाम पर शहरों, गांवों, सड़कों के नाम होने चाहिए?
2. 1947 में भारत-विभाजन से पैदा हुई समस्या को ठीक करना होगा
देश के लोगों का इतिहास बोध सुधारने के साथ-साथ हमें 1947 में मजहब के नाम पर हुए देश-विभाजन के कारण पैदा हुई समस्या को भी ठीक करना होगा। इसे ठीक करने का रास्ता इस घटना को भुलाने की कोशिश से नहीं निकलेगा, क्योंकि ऐसी कोई भी बड़ी ऐतिहासिक घटना-दुर्घटना भुलाई जानी संभव नहीं है। इसलिए पाकिस्तान की तरफ से आने वाली हर मुश्किल का स्थायी समाधान करना होगा। साथ ही, भारत में पाकिस्तान समर्थक किसी भी आवाज़ को राष्ट्रीय पुरुषार्थ के द्वारा कुचल देना होगा। लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भारत में पाकिस्तान समर्थक और भारत-विरोधी आवाज़ें बर्दाश्त करते रहना देश के पुरुषार्थ पर गंभीर सवाल खड़े करता है।
जहां तक पाकिस्तान की तरफ से आने वाली चुनौतियों के स्थायी समाधान का प्रश्न है, तो मैं कई बार लिख-बोल चुका हूं कि चूंकि मौजूदा शक्ल-ओ-सूरत वाला पाकिस्तान कभी भी धार्मिक कट्टरता और आतंकवाद से मुक्त नहीं हो सकता, इसलिए उसे विघटित करने के लिए काम करना ही एकमात्र समाधान है। इसके लिए हमें न सिर्फ अपना पीओके उससे वापस लेना होगा, बल्कि सिंध और बलूचिस्तान को भी उसकी अत्याचार भरी कैद से आज़ादी दिलानी होगी। जिस दिन पाकिस्तान विघटित होगा, केवल उसी दिन 1947 में हुई गलती ठीक हो सकती है। इससे पहले इसका कोई दूसरा समाधान नहीं है।
3. हिन्दू पुराने मंदिरों को वापस लेने की ज़िद छोड़ें और मुसलमान मंदिर तोड़कर बनाए गए ढांचों को मस्जिद कहना बंद करें
अयोध्या के अलावा काशी और मथुरा समेत अनेक जगहों पर मंदिर तोड़कर बनाए गए मस्जिदनुमा ढांचे इस देश के इतिहास के कलंकित अध्याय रहे हैं। मेरे जैसे उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष और मानवतावादी व्यक्ति ने भी जब बीएचयू में पढ़ाई के दौरान 1994 में काशी का ज्ञानवापी ढांचा देखा था, तो मन में केवल एक ही ख्याल आया था कि यहां पर नमाज की इजाज़त जिस भी मूर्ख ने दी होगी, वह भारत के संविधान और साम्प्रदायिक सद्भाव का बहुत बड़ा दुश्मन रहा होगा, क्योंकि एक धर्मनिरपेक्ष देश में स्पष्ट रूप से मंदिर की दीवारों पर बनाए गए ढांचों को मस्जिद क्यों कहा जाना चाहिए और वहां नमाज की इजाज़त क्यों होनी चाहिए? और यदि उन्हें मस्जिद कहा जा सकता है और वहां नमाज पढ़ी जा सकती है, तो झगड़ा तो कभी खत्म हो ही नहीं सकता।
अयोध्या में तो कुछ मात्रा में विवाद भी था और विवाद को हल करने के लिए बाद में खुदाई की ज़रूरत भी पड़ी, लेकिन काशी में प्रमाण स्पष्ट हैं। न किसी जांच की ज़रूरत है, न किसी खुदाई की, न इस बारे में रत्ती भर भी बहस की गुंजाइश है कि वह मस्जिदनुमा ढांचा मंदिर को तोड़कर उसी की दीवारों पर बना दिया गया था। मैंने उस मंदिर की दीवारों और पत्थरों को अपने हाथों से छूकर देखा, साफ तौर पर जिसके ऊपर वह कलंकित ढांचा अवस्थित है।
जब मैंने वह कलंकित ढांचा देखा था, उससे पहले यानी 1992 में ही अयोध्या में बाबरी ढांचा ढहाया जा चुका था। उस वक्त बनी राय के आधार पर मैं मानता था कि बाबरी ढांचा ढहाया नहीं जाना चाहिए था, बल्कि उसे मस्जिद कहना बंद करके मध्ययुगीन बर्बरता की निशानी के तौर पर भावी पीढ़ियों और इतिहास अध्येताओं के लिए सुरक्षित रखा जाना चाहिए था। इसीलिए काशी के ज्ञानवापी ढांचे के बारे में भी मेरी राय यही बनी थी कि इसे एक ढांचे के तौर पर सुरक्षित तो रखा जाना चाहिए, लेकिन इसे मस्जिद कहने से बचा जाना चाहिए और इसलिए यहां नमाज की इजाज़त भी नहीं होनी चाहिए।
न्याय और मानवता की दृष्टि से भी देखा जाए, तो मंदिर को तोड़कर बने किसी ढांचे को मस्जिद की संज्ञा देकर वहां नमाज पढ़ने की इजाज़त दे देना अपने आप में शरारतपूर्ण है। इससे देश की धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिक सौहार्द की भावना को गंभीर चोट पहुंचती है। मुझे लगा कि जो लोग भारत में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच स्थायी खाई बनाए रखना चाहते हैं, वही लोग ऐसे ढांचों को मस्जिद कहकर वहां नमाज पढ़ने की इजाज़त दे सकते हैं। यह और कुछ नहीं, बल्कि अंग्रेज़ों की फूट डालो और राज करो वाली कुटिल नीति का ही एक्सटेंशन है।
अब जबकि अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण होने जा रहा है, तो मैं चाहता हूं कि भारत में हिन्दुओं और मुसलमानों, जिन्हें मैं भारत माता की दो आँखें कहता हूं, के बीच विवाद और झगड़े का यह तीसरा प्रमुख कारण भी समाप्त किया जाए। इसके लिए सरकार से मेरी मांग है कि काशी और मथुरा जैसे सभी विवादित ढांचों को संरक्षित किया जाए और वहां दोनों समुदायों को लड़ाए रखने की मंशा से दी गई नमाज़ की इजाज़त को अविलंब निरस्त किया जाए।
अब न तो भारत के हिंदुओं को हर विवादित ढांचे को वापस हासिल करने की ज़िद करनी चाहिए, न ही भारत के मुसलमानों को मध्ययुगीन आक्रांताओं द्वारा मंदिरों को तोड़कर बनवाए गए ढांचों को मस्जिद कहकर वहां नमाज पढ़ने जाना चाहिए।
अगर इस देश में हिन्दू-मुस्लिम सांप्रदायिकता की समस्या को हल करना है, तो उपरोक्त तीन बातों पर अमल करने, यानी (1) देश का इतिहास बोध दुरुस्त करने, (2) 1947 की गलती को ठीक करने, और (3) मंदिर-मस्जिद के झगड़ों से बाहर निकलने, के सिवा अन्य कोई उपाय नहीं। सोचिए, वह दिन कितना खूबसूरत होगा, जब इस देश के दो सबसे विशाल और सबल समुदाय आपसी विवाद की तीनों जड़ों को खत्म करते हुए परस्पर विश्वास और भाईचारे के साथ तरक्की की राह पर आगे बढ़ चलें। धन्यवाद।