बिहार चुनाव में अब गिनती के दिन बचे हैं, लोजपा के एनडीए से अलग होने तथा दलितों के बड़े नेता रामविलास पासवान के निधन के बाद बिहार की राजनीति और जटिल हो चुकी है, लोजपा अध्यक्ष चिराग पासवान और वर्तमान में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार में पारस्परिक अविश्वास घर कर गया है, ऐसे में बिहार की राजनीति में उन दावेदारों के लिये जाति की राजनीति के अलावा कोई चारा नहीं बचा है।
विधानसभा चुनाव 2020 में सीएम नीतीश कुमार वोट बटोरने के लिये अपने पुराने चुनावी हथकंडे सोशल इंजीनियरिंग के सहारे खड़े नजर आ रहे हैं, नीतीश और चिराग पासवान के बीच विश्वास की कमी ने राज्य में जाति की राजनीति को जन्मा है, जो नियमित रुप से पुरजोर ढंग से चालू है, बिहार की जातिगत राजनीति पर नजर डालें, तो पटना में हुए बेलछा नरसंहार (साल 1978) को याद किया जा सकता है, जिसमें 11 दलित मजदूरों को जिंदा जला दिया गया था। मारे गये खेत मजदूरों में 8 पासवान थे और तीन सुनार, गांव बेलछी नीतीश कुमार के गृह जिले नालंदा में है, वह इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हैं, कि बेलछी में दुसाध- कुर्मी समुदाय के बीच कलह उनके लिये बड़ी मुसीबत है, हालांकि नीतीश खुद एक कुर्मी किसान परिवार से हैं।
नीतीश सरकार में दुसाध समुदाय को एक विद्रोही के रुप में देखा जाता है, क्योंकि ब्रिटिश शासन काल में उन्हें चौकीदारों और दूत के रुप में शुरुआती रोजगार मिला था, वहीं ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में उन्हें काम मिला था, सुअर पालन के पारंपरिक व्यवसाय को देखते हुए वह कभी भी मुस्लिम समुदाय से नहीं जुड़ पाये, वहीं पीएम मोदी ने भी मैं भी चौकीदार का नारा देकर कहीं ना कहीं बिहार के दुसाध समुदाय को लुभाने का काम किया है।
नीतीश ने पार्टी को सामाजिक तौर पर मजबूत करने के लिये साल 2015 में बिहार की राजनीति में ऐतिहासिक शराबबंदी का फैसला लिया है, हालांकि इससे आबकारी राजस्व के रुप में सलाना 4 हजार करोड़ रुपये की कमाई हो रही है, लेकिन नीतीश कुमार ने प्रदेश की महिला वोटरों को लुभाने के लिये इतनी बड़ी कीमत को दांव पर लगा दिया, पिछले 15 सालों में नीतीश ने महादलित के रुप में नये-नये वोट बनाकर राजनीति में बड़ा अनुभव हासिल किया है।