सीताराम को बाथरूम में किया बंद, सिंधिया को नहीं दिया समय: सोनिया गाँधी ने ‘यूज एंड थ्रो’ से 22 साल चलाया कॉन्ग्रेस

अनुपम कुमार सिंह

सोनिया गाँधी फ़िलहाल कॉन्ग्रेस की अध्यक्ष हैं। मीडिया में तरह-तरह के लेख लिख कर बताते जाते हैं कि कैसे उन्होंने ‘कठिन समय और विषम परिस्थितियों में’ पार्टी अध्यक्ष का कार्यभार संभाल कर कितना कुशल नेतृत्व किया है। लेकिन, इस दौरान वो ये भूल जाते हैं कि उनके लगभग 20 (बेटे को मिला कर 22) वर्षों के कार्यकाल में कैसे कॉन्ग्रेस के कई बड़े नेताओं को किनारे लगाया गया और राहुल गाँधी के लिए जगह तैयार करने में सारा दम लगाया गया।

जब सोनिया गाँधी कॉन्ग्रेस की अध्यक्ष बनीं, तब दलित नेता सीताराम केसरी को कैसे किनारे लगाया गया था, ये सभी को पता है। तत्कालीन कॉन्ग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी जब बैठक में पहुँचे तो कोई उन्हें सुनने वाला तक नहीं था और जब सोनिया अध्यक्ष चुनी गईं, उस समय उन्हें बाथरूम में बंद कर दिया गया था। इसके बाद उन्हें कोई पूछने वाला तक नहीं था और जब वो घर गए तो वहाँ उनके कुत्ते के अलावा कोई मौजूद नहीं था।

इस तरह से बुजुर्ग नेताओं को ठिकाने लगाने की कॉन्ग्रेस की ये परंपरा 1998 से ही चली आ रही है। ये परंपरा यूँ तो इससे भी पुरानी है, लेकिन तब नेहरू, इंदिरा और राजीव के लिए ऐसा होता था, उसके बाद सोनिया और अब राहुल के लिए यही हो रहा है। चाहे सीताराम केसरी हों या फिर मनमोहन सिंह, सोनिया गाँधी ने जब जैसे ज़रूरत पड़ी, इन बुजुर्ग नेताओं का इस्तेमाल किया और फिर बाद में उन्हें ठिकाने लगा दिया।

आप सोचिए, कोई राष्ट्रीय पार्टी दो-दो आम चुनाव बड़े अंतर से हारती है और कई राज्यों में उसकी सत्ता जाने के बावजूद उसके नेतृत्व में कोई परिवर्तन नहीं होता है। पहले माँ अध्यक्ष रहती है, फिर बेटे को अध्यक्ष बनाया जाता है, फिर माँ को अंतरिम अध्यक्ष बना कर बिठाया जाता है। अब फिर बेटे को अध्यक्ष बनाने की चर्चा है। हालाँकि, अब किसी को भी ये उम्मीद नहीं है कि गाँधी परिवार से बाहर का कोई अध्यक्ष बनेगा।

अब कॉन्ग्रेस में चार समूह बन गए हैं। एक सोनिया गाँधी के वफादारों का है, जिसमें प्रमुख रूप से अहमद पटेल शामिल हुआ करते थे। एक राहुल गाँधी के वफादारों का समूह है, जो अपेक्षाकृत युवा हैं और सोनिया के वफादारों को किनारे करने में लगा रहता है। एक तीसरा समूह है यूपी में प्रदेश कॉन्ग्रेस के नेताओं का, जिस पर पूर्णरूपेण प्रियंका गाँधी का कब्ज़ा है। एक चौथा समूह है, जो पार्टी में लोकतंत्र चाहता है।

सीताराम केसरी के बाद अब बात प्रणब मुखर्जी की, जिनके प्रधानमंत्री बनने की चर्चा तभी शुरू हो गई थी, जब राजीव गाँधी की मृत्यु हुई थी। लेकिन, आगे की सभी कॉन्ग्रेस सरकारों के वे तभी तक सर्वेसर्वा रहे, जब तक वो राष्ट्रपति न बन गए। कॉन्ग्रेस को उम्मीद थी कि 2014 में उसकी सरकार बनेगी और राहुल गाँधी की कैबिनेट में प्रणब मुखर्जी जैसे नेता तो हो नहीं सकते, इसीलिए ये चाल चली गई।

प्रणब मुखर्जी भी जब तक कॉन्ग्रेस में रहे, गाँधी परिवार के वफादार बने रहे। उन्होंने सोनिया को अध्यक्ष बनाने के लिए तमाम रणनीति बनाई और फिर यूपीए काल में लगभग सभी संसदीय समितियों के अध्यक्ष भी रहे। जब उनका काम समाप्त हुआ, उन्हें राष्ट्रपति बना दिया गया। जब उन्हें भारत रत्न से नवाजा गया, उस कार्यक्रम में सोनिया-राहुल शामिल नहीं हुए। जब वो RSS मुख्यालय पहुँचे, तब कॉन्ग्रेस के कई नेताओं ने उनकी आलोचना की।

इसी तरह मनमोहन सिंह को ले लीजिए। यूपीए-1 में उन्हें सिर्फ इसीलिए प्रधानमंत्री बनाए रखा गया, क्योंकि गाँधी परिवार को अपना कोई विश्वस्त उस कुर्सी पर चाहिए था। यूपीए-2 में उन्होंने अपना कार्यकाल इसीलिए पूरा किया, क्योंकि सरकार की नकारात्मक छवि के कारण राहुल गाँधी की ताजपोशी न करने का निर्णय लिया गया। कॉन्ग्रेस चाहती थी कि सारा दोष मनमोहन के मत्थे मढ़ा जाए और गाँधी परिवार की छवि अक्षुण्ण रहे।

लेकिन, अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के साथ-साथ नरेंद्र मोदी भी ‘आउट ऑफ सिलेबस’ आ गए। अब यही काम राहुल गाँधी के लिए किया जा रहा है। पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया को ठिकाने लगाया गया, उसके बाद सचिन पायलट को शांत कर दिया गया। सिंधिया एक समय इंतजार करते रहे, सोनिया ने समय ही नहीं दिया। हिमंत बिस्वा सरमा जब राहुल से मिलने गए थे तो वो अपने कुत्ते को बिस्किट खिलाने में व्यस्त थे और नहीं मिले। परिणाम ये हुआ कि हिमंत भाजपा में आ गए और पूरे उत्तर-पूर्व से कॉन्ग्रेस साफ़ हो गई।

सीताराम केसरी, प्रणब मुखर्जी और मनमोहन सिंह की तरह ही शरद पवार भी कॉन्ग्रेस में एक बड़ी धुरी बन कर उभर रहे थे, लेकिन उनके बगावत के बाद उनके दो साथियों पीए संगमा और तारिक अनवर के साथ उन्हें पार्टी से निकाल बाहर किया गया। हाल ही में कॉन्ग्रेस के 23 नेताओं ने पत्र लिख कर पार्टी में चुनाव कराने की माँग की। कपिल सिब्बल, शशि थरूर और गुलाम नबी आजाद जैसे वफादारों को भी सन्देश दे दिया गया कि पार्टी में सोनिया ही सर्वोपरि है।

कई विशेषज्ञ मानते हैं कि कॉन्ग्रेस के नक्शेकदम पर चलते हुए ही देश में कई ऐसे राजनीतिक दल खड़े हो गए हैं, जो ‘प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी’ की तरह चलते हैं और जहाँ एक ही परिवार के बीच सत्ता की चाभी अटकी रहती है। कोई मतभेद होता भी है तो एक ही परिवार के दो वारिसों के बीच। मनमोहन सिंह की सरकार में PMO की फाइलें भी सोनिया गाँधी से होकर ही गुजरती थी, ये आरोप भी कई बार लग चुके हैं।

सोनिया गाँधी ने उस दौरान ‘राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (NAC)’ का गठन किया और समानांतर सरकार चलाती रहीं। कहा जाता है कि उस दौरान कई ऐसे NGO थे, जिनकी सोनिया गाँधी सुनती थीं और मनमोहन मंत्रिमंडल के मंत्री भी उनसे परेशान होकर उन्हें ‘झोलेवाला’ कहते थे। सजायाफ्ता नेताओं को राहत देने वाला बिल जब राहुल गाँधी ने फाड़ा था, तब भी सोनिया गाँधी को उनके पुत्रमोह ने चुप रखा। मनमोहन अपमानित हुए, पर वो भी चुप रहे।

इस तरह से 1998 में सीताराम केसरी हों या 2019 में ज्योतिरादित्य सिंधिया, सोनिया गाँधी ने कॉन्ग्रेस को दूसरे नेताओं को किनारे लगा कर ही चलाया है। बाद में शरद पवार ने कॉन्ग्रेस के साथ गठबंधन किया, अर्जुन सिंह और तारिक अनवर वापस लौट आए और सचिन पायलट को वापस बुला लिया गया – लेकिन, किसी को अपना कद नहीं बढ़ाने दिया गया। अभी उनकी ढलती उम्र के कारण जब बदलाव की माँग हो रही है, फिर कई किनारे लगाए जाएँगे।