राहुल कुमार गुप्ता
मानव जीवन आगे बढ़ने का नाम है, प्रयोगों का नाम है। परिवर्तन की कड़ी इन्हीं प्रयोगों के चलते, प्रगति की मांग के चलते निरंतर अपने कोटि-कोटि रूपों में विद्यमान है।
परिवर्तन के दौर में अस्थिरता का माहौल जन्म लेता ही लेता है। कभी छोटे रूप में तो कभी बड़े रूप में और समय बीतते-बीतते हम सब परिवर्तन को आत्मसात कर ही लेते हैं। इतिहास इसका साक्षी है।
ऐसे कई परिवर्तन जो सकारात्मक दिशा में होते हैं वो धीरे-धीरे बहुत शक्तिशाली हो जाते हैं। लोगों के प्रयोग में आ जाते हैं और लोग उसके आदी हो चुके होते हैं। भले उससे अच्छी चीज हमें मिल रही हो लेकिन हम उसके मोह से नहीं छूट पाते। अतः एक नये परिवर्तन को आत्मसात करना शुरूआत में उतना ही कठिन होता है जितना कि पुराने परिवर्तन से मोह छुड़ाना।
भारत में भी सन् 2014 में जब से सत्ता परिवर्तन हुआ है तो कई विषयों में परिवर्तन का दौर शुरू हुआ जो मोदी के दूसरे शासनकाल में भी देखने को मिल रहा है। ऐसे ही कई परिवर्तनों के चलते देश में लगातार अस्थिरता का माहौल समझ में आ रहा है। कई लोगों को लोकतंत्र खतरे में भी नज़र आ रहा है। लेकिन परिवर्तन वक्त की माँग है, प्रगति की मांग है। कई परिवर्तन सार्थक होते हैं और कई परिवर्तन निरर्थक। ये निरर्थक परिवर्तन वक्त की बर्बादी और संसाधनों की बर्बादी तक ही सीमित हो जाते हैं।आज देश में फिर से अस्थिरता का माहौल है। तीन नये किसान विधेयकों के पक्ष व विपक्ष में देश आमने-सामने है।
सरकार के विरोध में जो भी खड़े हैं वो कह रहे हैं कि मोदी सरकार नये कृषि बिल के नाम पर किसानों को प्रगति का केवल स्वप्न दिखा रही है। जो पूरे तो होने से रहे लेकिन उसके विपरीत परिस्थितियाँ जरूर साकार हो सकती हैं। उनका कहना है कि इन नये कृषि कानूनों से देश में बहुत बड़ा भूचाल आयेगा जो किसानों के अलावा आमजन के लिए भी भविष्य में बड़ा घातक होगा।
पूरा देश एक–दो कॉर्पोरेट घरानों के रहमोकरम पर आश्रित हो जायेगा। इस देश की अर्थव्यवस्था कुछ ही लोगों के हाथों का खिलौना बन जायेगी। क्योंकि सरकार तमाम सार्वजनिक संस्थानों को पहले ही इनके नाम कर चुकी है अब खेती पर नज़र है, जो इस देश के आमलोगों की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। किसानों के दोगुना आय और बड़े लाभ का जो प्रलोभन दिया जा रहा है वो कुछ सालों बाद सब कुछ भगवान भरोसे हो जायेगा।
दो साल पहले ही अरबों के गोदाम अडाणी ग्रुप ने बना कर तैयार कर लिये, जिओ एग्रो भी कृषि बाजार के लिए तैयार है तो ये नये कृषि कानून आपदा काल में ही अध्यादेश के द्वारा आ गये। इतने बड़े परिवर्तनकारी कानून आनन-फानन में बड़ी शीघ्रता के साथ संसद से पास करा लिये गये। कोरोना काल में ऐसे कानून की आखिर जल्दी क्या थी? फिर विपदा काल में असीमित अन्न, फल व सब्जी भंडारण का कानून पारित करना आखिर कहाँ तक उचित था? कोरोना काल में किसान भी परेशान थे, जिन्होंने औने-पौने दामों में अपना उत्पाद बेंचा।
फिर माल डम्प कर के ये लोग मनमानी कीमत पर ये उत्पाद बेंचकर देश में महँगाई को चरम अवस्था पर ले आयेंगे,जो कि देश हित के लिये कहीं से वाजिब नहीं है। एमएसपी तो तब रहेगी जब ये कॉर्पोरेट वाले मंडियों को बने रहने देंगे। जिस तरह से बीएसएनएल व अन्य कई सार्वजनिक संस्थानों को खोखला कर के इन की झोली में डाल दिया गया है तो एमएसपी कब तक टिक सकेगी। गोरी हुकूमत का इतिहास दोहराने के लिए इस काले कानून का प्रयोग किया जा रहा है। इस देश को फिर से कुछ लोगों के हाथों का गुलाम बनाने की साजिशें सफल होने का मार्ग चुन रही हैं।
आंदोलनकारियों की कुछ ऐसी ही सोंच ने इस कड़ाके की ठंड में दिल्ली की सर्दी को गर्म किये हुए है। बहुत कष्टों को झेलते हुए किसान महीने भर से आंदोलन का रास्ता अख्तियार करने कि लिये मजबूर हैं। बहुत सी जानी मानी हस्तियाँ और विपक्ष भी इस कानून को काला कानून बता रहे हैं। एनडीए की सहयोगी पार्टी अकाली दल व अब आरएलपी इन नये किसान कानूनों में एकराय नहीं है और संगठन से बाहर हो गए।
किसानों व विपक्ष की एक आशंका फिर इस बिल को कमतर साबित कर देती है कि अचानक आपदा काल में अध्यादेश की जरूरत क्यों? फिर कानून बनाने में इतनी हड़बड़ी क्यों? किसान नेताओं व विपक्ष के नेताओं की राय क्यों नहीं ली गयी इस बड़े परिवर्तन को लेकर? राज्यों की राय क्यों नहीं ली गयी? जबकि कृषि सातवीं अनुसूची के अन्तर्गत राज्य का विषय है। इन आशंकाओं के चलते इस बिल के नकारात्मक पहलुओं की तरफ से आंदोलनकारी भयभीत नज़र आ रहे हैं जिसके लिये वो हर कष्ट सहते हुए सरकार से बिल वापसी के लिए हठ कर रहे हैं।
जो कृषि बिल अभी वर्तमान में है उसमें तो बहुत से ऐसे पेंच हैं कि किसान वास्तव में भविष्य में समस्याओं से घिर सकता था लेकिन इस महा आंदोलन ने सरकार को कुछ सुधार करने पर विवश कर दिया है। इस बिल की कमियों को कमतर और बिल की कई अच्छाइयों को दिखाने व समझाने के लिये इलेक्ट्रानिक मीडिया, प्रिंट मीडिया, सोशल मीडिया, आईटीसेल, सरकारी महकमा, ग्रामस्तर के नेताओं से लेकर केंद्र के मंत्री यहाँ तक खुद प्रधानमंत्री तक पुरजोर प्रयास कर रहे हैं कि किसान बिल किसानों के हित के लिये है। विपक्षी दल किसानों को बरगला रहे हैं।
इस प्रचार-प्रसार के लिये अरबों रुपये खर्च कर दिये गयें। और कुछ बातों को मानने का, कमियों को सुधारने का आश्वासन भी दिया जा रहा है। केंद्रीय कृषि और किसान कल्याण मंत्री ने आठ पेज की एक पत्रिका भी पूरे देश में बँटवायी, ताकि किसान उनकी बात समझ सके। किसानों की कई माँगों को पूरा करने के लिये पत्रिका में आश्वासन भी दिया गया है।
यह आश्वासन (बिल में होने वाला सुधार) इस महाआंदोलन के कारण ही उसके हिस्से में आने वाला है। किसानों ने और आंदोलन के समर्थन में आये कई विद्वानों ने इस बिल से भविष्य में होने वाली समस्याओं का विश्लेषण कर बताया तब कुछ आश्वासन किसानों की झोली में आकर गिरे हैं। जिससे किसान कुछ हद तक अब निश्चिंत हो सकते हैं।
ये आंदोलन भविष्य के खतरों को लेकर संभावनाओं की नींव पर खड़ा है। जो सत्य भी हो सकते हैं और नहीं भी। अगर इनकी संभावनाएं भविष्य में सत्य की ओर अग्रसर हुईं तो वास्तव में स्थितियां अवाम के लिये शायद ही सही हों। किन्तु यही पूर्णतः सत्य नहीं है। संभावनाओं का एक दूसरा पहलू भी होता है। जो हम सोंचते हैं उसके अलावा भी उसकी दिशाएं होती हैं।
अगर यह दूसरा पहलू भविष्य में सही दिशा में जा रहा है तो देश में बहुत जल्द सकारात्मक सुधार देखने को मिलेंगे। देश की प्रगति का रथ, देश को उसकी खुशहाली के मुकाम तक पहुँचा भी सकता है। मोदी जी के अनुसार ये वास्तव में किसानों की आजादी का बिल साबित हो सकता है। हो सकता है सरकार इसी नियत से बिल लेकर आयी हो।
पूर्वाग्रह से निकलकर किसान संगठनों को सरकार से वार्ता करनी चाहिए। वार्ता से और कई अच्छे विकल्प निकल सकते हैं। क्योंकि ये कृषि बिल संशोधित रूप में, वास्तविक रूप से देश की प्रगति व किसानों की खुशहाल ज़िंदगी के लिये एक नया आयाम स्थापित कर सकता है।
जिन तीन नये कृषि बिलों के लिये देश में अस्थिरता का माहौल है उसकी वास्तविकता जाननी भी अवाम को बहुत जरूरी है। मौजूदा कृषि बिल में कुछ कमियों के साथ किसानों की प्रगति की बहुत सी नई दिशाएं और ऊर्जाएं भी समाहित हैं। अभी अपना देश कई महत्वपूर्ण कृषि उपज के मामलों में जहाँ दूसरे और तीसरे स्थानों पर विश्व में अपना कीर्तिमान बनाये है वहीं इन कानूनों के बाद कई कृषि उपजों में पहला स्थान तो बनेगा ही साथ में किसानी और खेती रोजगार के एक अच्छे विकल्प के रूप में देश की प्रगति को एक नया आयाम देगी।
सिंचित भूमि और फसल क्षेत्र में हम अन्य देशों से बहुत आगे हैं फिर भी उपज की तुलना में कुछ देशों से कुछ कृषि उपजों में पीछे हैं। क्योंकि खेती में तकनीकियों का प्रयोग अपेक्षाकृत बहुत ही कम होता है। अगर कॉर्पोरेट व अन्य कई व्यापारी कंपनियाँ इस क्षेत्र में उतरेंगी तो भारत खाद्यान्न, सब्जी, मसाले, औषधीय पौधों आदि के उत्पादन में प्रथम स्थान पर होने के साथ-साथ एक बड़े निर्यातक के रूप में अपनी एक नई पहचान बनायेगा।
कोरोना जैसे आपदाकाल में यही एक क्षेत्र था जिसने देश की अर्थव्यवस्था को बहुत बड़े झंझावात से बचाया, यह आत्मनिर्भर क्षेत्र, भविष्य में किसी ऐसी ही आपदाओं की परिस्थितियों में देश की अर्थव्यवस्था को गिरने न देगा। हमारे अन्नदाता तब भी बिना किसी हानि के प्रगति पथ पर अपना साथ देंगे। व्यापारी और कंपनी को भी जो किसानों के साथ संविदा खेती पर व्यापार करेंगे वो फसलों का तथा अन्य संबंधित का विशेष बीमा भी कराकर संभावित हानियों से बच सकते हैं और सरकार पर इसका बोझ भी न होगा। जिससे सरकार अन्य क्षेत्रों में भी कुछ बेहतर कार्य कर सकती है।
संविदा पे खेती करना किसानों की इच्छा पर निर्भर है। वो संविदा पर खेती नहीं भी करना चाहता तो उसे एक खुला बाजार मिलेगा, जिस पर वह देश के किसी कोने पर ऑनलाईन अपनी फसल की बिक्री कर उचित मूल्य ले सकता है। हो सकता है भविष्य में अमेजान की तरह, फ्लिपकार्ट की तरह कई ऐसे एग्रो ऐप बन जायें जो किसानों को घर बैठे एक बड़ा बाजार उपलब्ध करा दें। हो सकता है इन नये कृषि बिलों में कुछ कमी रहीं हों लेकिन सरकार की नियत में कहीं कमी नहीं रही। वो किसानों का भला लेकर ही, देश को बेहतर दिशा प्रदान करने के लिये किसानों की आजादी वाला बिल लेकर आयी है।
हाँ! आंदोलन के बाद ही सही सरकार ने किसानों की आशंकाओं को दूर करने के लिये आश्वासन दिया है। यह आंदोलन कृषि बिल में कुछ संशोधन के लिये जरूर वाजिब था, लेकिन तीनों कृषि बिल को समाप्त करना किसी के हित में नहीं है। इन नये कृषि विधेयकों में संशोधन के लिये एक स्वस्थ वार्ता एक बेहतर विकल्प हो सकता है।
ये तीनों कृषि बिल वार्ता के बाद संशोधित रूप में आयेंगे तो वास्तव में भारत में एक नये दौर का आगाज होगा। सदियों से प्रकृति और आपदाओं की मार खाता किसान इनसे निजात पा सकेगा और अन्नदाताओं की आत्महत्याओं का बढ़ता ग्राफ शून्य की ओर अग्रसर हो जायेगा। अगर सरकार इन हितों को भी इन विधेयकों के माध्यम से साकार करना चाहती है तो अब सरकार का विरोध यहाँ पर किसी तरह से जायज नहीं है। सरकार के समर्थकों को भी चाहिए कि आंदोलनकारी अन्नदाताओं के लिए अपशब्दों का प्रयोग न करें। क्योंकि उनकी कुछ मांगें उनके लिए वह देशहित के लिए वाजिब ही हैं।
हाँ! आंदोलन नहीं होता तो इन नये बिलों की कुछ कमियों पर सरकार की नज़र नहीं जाती। इसी आंदोलन ने ही कृषि बिल की कुछ कमियों पर सुधार का रास्ता दिया है। सरकार की अपनी दृष्टि की अनुसार तो बिल सही थे लेकिन आंदोलनकारियों ने कुछ और संभावनाओं की दृष्टियों से सरकार को इन तीन बिलों पर कुछ सुधार करने का नज़रिया दिया है।
आजादी के वक्त भारत खाद्यान्न व कृषि उपजों पर भी विदेशों पर निर्भर था, उत्पादन बहुत कम था, ऐसी स्थिति में जो थोड़ा बहुत कृषि उत्पाद होते भी थे वो जमाखोरी व कालाबाजारी के कुचक्र का हिस्सा बन जाते। सरकार ने इससे निजात पाने के लिए, 1955 में आवश्यक वस्तु अधिनियम पारित किया। जिसके चलते कुछ आवश्यक वस्तुओं के अनियमित तथा असीमित भण्डारण पर रोक लग गयी। धीरे-धीरे आवश्यक वस्तुओं की श्रेणी में बढ़ोत्तरी होती चली गयी। किन्तु भारत उन अतीत की स्थितियों से उबर चुका है आज वह कृषि के क्षेत्र में किसी भी विकसित या विकासशील देश से कमजोर नहीं है।
ऐसी स्थिति में कृषि व्यापार को सरल व सुगम बनाना आवश्यक हो जाता है। किसानों की हर उपज का सही मोल मिले तथा अनाज व अन्य कृषि उत्पाद पहले की तरह बर्बाद न हों उनका समुचित उपयोग किया जा सके। जब इस क्षेत्र में बड़ी कंपनियाँ आयेंगी तो कृषि उत्पादों के रखरखाव की सही व्यवस्था होगी। कई मीट्रिक टन कृषि उत्पाद जो हर साल खराब हो जाता है, वो बड़ी बर्बादी तो बचेगी ही साथ में प्राईवेट स्तर पर रोजगार का भी सृजन होगा। इसी सोच के साथ आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम 2020 लाया गया।
विपक्ष व आंदोलनकारियों का पहला आरोप यहीं से शुरू होता है कि यह सब अडाणी व अंबानी के लिये हो रहा है। वो ही पूरे देश के कृषि उत्पाद का भंडारण कर लेंगे और देश की अर्थव्यवस्था को अपने हिसाब से रेगुलेट करेंगे। यदि ऐसी स्थिति आती तो ये संभावित था कि भविष्य में महँगाई अपने चरम स्तर पर पहुँचती, जिससे मात्र किसानों के लिये समस्या न खड़ी होती बल्कि इस समस्या से देश की एक बहुत बड़ी आबादी प्रभावित होती। खैर, सरकार ने आश्वासन दिया है कि ऐसा कुछ नहीं होगा। प्राकृतिक आपदा, अकाल, युद्ध, कीमतों में अभूतपूर्व वृद्धि जैसी परिस्थितियों में कृषि उपजों की कीमतों को नियंत्रित किया जा सकता है।
यहाँ अभूतपूर्व मूल्य वृद्धि के मानक क्या होंगे इस पर भी सरकार को अपने तथ्य स्पष्ट करने चाहिए। क्योंकि अभूतपूर्व शब्द अपने आप में बुहत विशाल है। ऐसी स्थिति में महँगाई नियंत्रण के लिए किसी बोर्ड की औपचारिकता पर विचार किया जा सकता है। एक और कृषि बिल भी कई अच्छाईयों को लेकर संसद में पारित हुआ, जो कि किसानों के लिये वास्तविक आजादी का पर्याय हो सकता है।
वो बिल है कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और संरक्षण) अधिनियम 2020। सरकार दावा कर रही है कि इस नये बिल के माध्यम से कृषि क्षेत्र के व्यापार पर लगी कई पाबंदियों को हटाने से किसान की सोच खेती व व्यापार को लेकर इन्नोवेटिव हो जायेगी। जिससे खेती में नवीनता आयेगी और कम मेहनत पर अच्छी उपज के दायरे बढेंगे। व्यापार के लिए पूरे भारत में कहीं भी अपना उत्पाद बेच सकते हैं। लेकिन आश्वासन के बाद राज्यों को कर लगाने या न लगाने के निर्णय का अधिकार पुनः सौंपा गया है। न्यूनतम समर्थन मूल्य सरकार समाप्त नहीं कर रही है। बस किसान को अपना उत्पाद बेंचने के लिये च्वाईसेज बढ़ा दी गयी हैं। जो कि एक सेहतमंद बाजार के लिये आवश्यक है।
व्यापारी या कंपनी किसानों को सुविधाएं देकर खरीदारी मंडी के बाहर ही करेंगे जिससे मंडी शुल्क या मध्यस्थ को भी कुछ देना न पड़ेगा। लेकिन किसानों को डर है कि इससे धीरे-धीरे मंडियाँ बंद हो जायेंगी और सरकारी मंडियाँ बंद तो एमएसपी का कोई औचित्य न होगा। जिससे किसानों का काफी नुकसान भी हो सकता है। कर्ज तले आकर कई किसान कुछ अनुचित कदम न उठाएं, इसके लिये भी सरकार को विचार करना होगा। एमएसपी से कम पर खरीद गैर कानूनी घोषित हो जिससे किसानों के साथ न्याय हो सके। व्यापारी या कंपनी द्वारा कृषि उत्पाद खरीदने पर तुरंत भुगतान की भी व्यवस्था बनायी जाये। जिससे किसानों का शोषण न हो सके।
तीसरा कानून जो बना वो संविदा खेती से संबंधित है। यह बिल है संविदा खेती से संबंधित किसान (सशक्तीकरण और संरक्षण) अधिनियम 2020। इस बिल पर किसानों की आशंकाएं ज्यादा हैं। यह बिल जहाँ अपने मूलरूप में एक ओर बहुत सी अच्छाईयों और सहूलियतों को समेटे हुए है वहीं कई पेंचीदा बिंदु भी हैं जो किसानों के लिये सरदर्द या जिंदगी भर की समस्या बन सकती है। अब सरकार भी आंदोलन के बाद अपनी बनायी नीतियों की कमियों में झाँक सकी है। सरकार की नियत सही है इसीलिये वो इसके मूलरूप में सुधार की बात कर रही है। अब कृषि समझौते करने वाली कंपनियों व व्यापारियों का पंजीकरण राज्य के अधिकार क्षेत्र में देने का आश्वासन दिया जा रहा है।
विवाद की स्थिति में अब किसानों के पास अदालत जाने का भी विकल्प दिये जाने की बात कही जा रही है। अदालती कार्यवाही में लेटलतीफी के कारण ही इस विवाद के निपटारे को एसडीएम स्तर के अंडर में रखने की बात कही गयी थी। ये दोनों स्थितियों के बीच यह भी हो सकता है कि इसके लिये विशेष रूप से एक कृषक कल्याण प्राधिकरण का निर्माण कराया जाये जो किसानों से संबंधित इस नये बिल के सारे मामले देख सके। जिससे न्याय मिलने में देरी न हो।
सरकार को संविदा की खेती का एक ही फार्मेट तैयार करना चाहिए जिसे हर कंपनी व किसान प्रयोग कर सके। जिसमें किसान अपनी जानकारी व कंपनी अपनी जानकारी व शर्तें भर सकें। क्योंकि जब बहुत सी कंपनी व व्यापारी संविदा खेती के बाजार में उतरेंगे तो उनके संविदा के फार्मेट्स में बहुत से कानूनी पेंच हो सकते हैं जो सरल स्वभाव के किसान समझ न सकेंगे और ये लोग उनका अनुचित लाभ उठाते रहेंगे।
सरकार ने यह भी आशंका दूर की है कि ठेकेदार किसानों की जमीनों पर कोई स्थायी बदलाव नहीं कर सकते। किसी भी स्थिति में वह किसान की जमीन पर कब्जा नहीं कर सकते, ट्रांसफर, बिक्री, लीज और गिरवी पर जमीन नहीं रखी जायेगी। फायदा क्या है संविदा खेती का? जिसके कारण सरकार इस बिल को भी कृषि क्षेत्र के विकास का एक महत्वपूर्ण स्तम्भ मानती है। अगर इस बिल को पुनः सुधार कर लागू करेंगे तो वास्तव में यह बिल देश की तरक्की में अहम रोल अदा करेगा।
कंपनी या ठेकेदार उच्च क्वालिटी के बीज, बेहतर खाद, मृदा परीक्षण आदि की सुविधा देने के साथ-साथ तथा फसल कटने के बाद खेतों से ही कृषि उत्पाद ले जाने की स्वयं व्यवस्था करेंगे। बड़ी कंपनियाँ या बड़े ठेकेदार फसलों की संभावित हानि के लिये बीमा भी करवा सकते हैं जिससे प्राकृतिक आपदाओं की स्थिति में दोनों को अर्थ की हानि न हो। अभी तक तो प्राकृतिक आपदाओं में किसानों को काफी अर्थहानि व श्रमहानि होती थी लेकिन अब शायद इन आपदाओं से किसानों को वो शिकायतें न हो जो हजारों साल से होती चली आयी हैं।