टिहरी। जबसे उत्तराखंड राज्य बना है, विकास और पर्यटन के नाम पर हर तरह की दुकानें खुल गई हैं. मनमाने तरीके से वहां ज़मीन की ख़रीद-फ़रोख़्त हो रही है. अंधाधुंध खुदाई चल रही है. बिजली के नाम पर जगह जगह डैम बनाकर नदियों को बांधा जा रहा है. विकास के लिए टिहरी जैसी प्राचीन बस्तियों की आहुति ले ली गई. नतीजा सामने है. यानी कहर आसमानी ज़रूर था पर बुनियाद इंसानों ने ही रखी.
पहाड़ों को अब भी ऐसे लोग मिल जाते हैं जिन्हें उनकी क़द्र है. जो उनकी ज़ुबान समझते हैं. लेकिन उनकी तादाद बहुत कम होती जा रही है. उंगलियों पर गिने जा सकते हैं ऐसे लोग. बाक़ी तो पहाड़ों के बदन से जोंक की तरह लिपट जाते हैं. और उनका ख़ून तब तक चूसते रहते रहते. जब तक उनके पेट फट नहीं जाते. कितना बदल गया है सब कुछ. पहले इंसानों के पूर्वज पहाड़ों को माथे से लगाते थे. उनकी अहमियत को समझते थे. पत्थर को देवता समझते थे. उन्हें पता था कि पहाड़ संजीवनियों के रखवाले हैं.
लेकिन इन्हीं पहाड़ों ने देखा कि धीरे-धीरे उन इंसानों की औलादों में बदलाव आने लगा. पहाड़ जानते हैं कि बदलाव होता है. उनके अंदर भी परिवर्तन होता है. कुदरत की हर चीज़ में बदलाव आता है. यहां तक की रीति-रिवाजों में, मान्यताओं में, सोचने के अंदाज़ में. हर शय में बदलाव आता है. ये बदलाव कभी मौत का मज़ा देता है. कभी ज़िंदगी की कड़वाहटें. पर बहुत हल्के हल्के होता है ये बदलाव. जैसे दिन धीरे-धीरे रात की आग़ोश में चला जाता है. जैसे रात सुबह को जगाती है. और ख़ुद को समेट कर तकिये के नीचे कहीं छुपा जाती है.
पहाड़ अपनी दास्तान सुना रहे थे हम सुन रहे थे. पहाड़ों की बातें अभी खत्म नहीं हुई थीं. वो और भी कुछ कहना चाहते थे. हम पहाड़ों की ये बातें सुन रहे थे. उनकी आवाज़ में दर्द था और धीरे-धीरे ग़ुस्सा बढ़ता जा रहा था. हवाएं भी तेज़ हो गई थीं. जैसे कह रहीं हों कि ये पहाड़ सही कह रहे हैं. जो दर्द इन्हें मिला है वो अगर समंदर को मिला होता तो पूरी दुनिया में सैलाब आ जाता. आइये आगे सुनते हैं कि ये इंसानी समाज से और क्या कहना चाहते हैं?
इस ब्रह्मांड को बनाने वाले ने जो कुछ बनाया है उसके पीछे कोई न कोई तर्क ज़रूर है. पानी जिसके बिना धरती पर जीवन की कल्पना तक नहीं की जा सकती उसके ख़ज़ाने उसने हमें दिये. हमारी उंचाइयों से लेकर समंदर की गहराई तक पानी का ये सफ़र पूरी धरती को जीवन की सौग़ात बांटता है. लेकिन आज का सिरफिरा और पढ़ा-लिखा इंसान क़ुदरत के इस भेद से मुंह फेर चुका है. वो क़ुदरत को अपना ग़ुलाम बनाना चाहता है. वो चाहता है हवा उसके इशारे पर बहे. नदियां उससे पूछ कर आगे बढ़ें. समंदर उसके हुक्म का इंतज़ार करे. और हम पहाड़ अपने जिस्म में सूराख़ करवाते रहें.
अब इन नदियों को ही ले लो. हमारी कोख से निकल कर इन्हें समंदर तक जाना होता है. और ठहरना इनके मिजाज़ में इनके स्वभाव में ही नहीं है. क़ुदरत की कारीगरी में ठहरने की इजाज़त इन्हें है ही नहीं. उन्हें तो समंदर में समा जाना है. लेकिन इंसान और उनके विज्ञान ने इनसे बिजली बनानी सीख ली. इन्हें रोककर इनकी रफ़्तार को और तेज़ किया. इंसान की मदद के लिए एक हद तक इन नदियों ने उसका साथ दिया. लेकिन नदियों की इस मदद को इंसान उसकी कमज़ोरी समझ बैठा. बस यहीं भूल हो गई उससे. और उस भूल का नतीजा. उत्तरकाशी के दामन में जो तबाही, जो जान-माल का नुक़सान हुआ वो इसी भूल का नतीजा है.
पहाड़ कहते हैं कि तुम इंसानों का एक तबक़ा ये कह रहा है कि ये क़ुदरत का क़हर है. जो ज़मीन वालों पर टूटा है. लेकिन हम बताते हैं हमसे ज़्यादा किसने देखा है. सदियों का इतिहास हमारे सीने में दर्ज है. हम बताते हैं कि हमने कभी क़ुदरत को क़हर बरसाते नहीं देखा. तबाही मचाते नहीं देखा. जब-जब इंसान ने क़ुदरत के साथ बदतमीज़ी की है. अभद्रता की है तब तब क़ुदरत ने अपने गुस्से का हल्का सा नमूना पेश किया है. वो भी चेतावनी के लिए. लेकिन तुम इंसान कहां मानने वाले हो.
लेकिन याद रखना, ये क़ुदरत ये प्रकृति जीने के लिए सब कुछ देती है. लेकिन जब इंसान उसका रास्ता रोकने की कोशिश करता है तो मजबूरन उसे अपना रास्ता साफ़ करना पड़ता है. ये तबाही ये जान-माल का नुकसान जो तुमने देखा. भुगता. ये क़ुदरत के उसी गुस्से का सबसे छोटा नमूना है. जो सिर्फ ये कहने की कोशिश कर रहा है कि संभल जाओ. होश में आ जाओ. ताकि तुम्हें वक्त से पहले कयामत ना देखनी पड़े.