अनुपम कुमार सिंह
भारत के एक महान सैन्य अधिकारी को उनके योगदान के लिए 70 साल बाद वो सम्मान मिला, जिसके वो हकदार थे। तवांग का भारत में विलय कराने वाले मेजर रालेंगनाओ बॉब खातिंग के सम्मान में रविवार (फरवरी 14, 2021) को CDS जनरल विपिन रावत, अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू, मेघालय के मुख्यमंत्री कोनराड संगमा, केंद्रीय खेल मंत्री किरण रिजिजू और अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल ब्रिगेडियर (रिटायर्ड) बीडी मिश्रा की उपस्थिति में खातिंग के स्मारक का अनावरण हुआ।
तत्कालीन नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (नेफा) के सहायक राजनीतिक अधिकारी रहे खातिंग का जन्म मणिपुर के तंगखुल नगा समुदाय में हुआ था। उन्होंने बिना किसी खून-खराबे के जनवरी 17, 1951 को तवांग को भारत में मिलाने का कार्य किया था। इस काम में असम राइफल्स के 200 जवानों ने उनका साथ दिया था। तब असम के राज्यपाल रहे जयरामदास दौलतराम के आदेश पर ये हुआ था। उससे पहले तवांग स्वतंत्र तिब्बत प्रशासन का हिस्सा हुआ करता था।
तवांग का भारत में विलय कराने वाले मेजर रालेंगनाओ बॉब खातिंग ने इंडियन फ्रंटियर एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस (IAFS) के पहले अधिकारी, नगालैंड के मुख्य सचिव और विदेश में आदिवासी समुदाय के पहले भारतीय राजदूत के रूप में अपनी सेवाएँ दीं लेकिन उन्हें तवांग उपलब्धि के लिए कभी सम्मानित नहीं किया गया। उन्हें पद्मश्री और ब्रिटिश सरकार की तरफ से मेंबर ऑफ ब्रिटिश एंपायर सम्मान मिला था। उनके बेटे जॉन भी IRS की सेवा से रिटायर हो चुके हैं।
जॉन और उनके अन्य परिजनों की उपस्थिति में कालावांगपू ऑडिटोरियम में मेजर रालेंगनाओ बॉब खातिंग मेमोरियल की नींव रखने का कार्य संपन्न हुआ। मेजर रालेंगनाओ बॉब खातिंग के जीवन की बात करें तो उनकी 5वीं तक की शिक्षा-दीक्षा एक स्थानीय मिशनरी स्कूल में हुई थी। उनकी बौद्धिक क्षमता के कारण असम की तत्कालीन राजधानी शिलॉन्ग के सरकारी हाई स्कूल में पढ़ने के लिए उन्हें स्कॉलरशिप मिला।
Will attend the foundation stone laying of Maj. Bob Khathing memorial at Tawang with Chief Minister of Meghalaya Shri @SangmaConrad Ji. Thank you Tsering Tashi Ji (Tawang MLA) and the team for the warm reception. https://t.co/dklAVeZj7G pic.twitter.com/iTyaa7Oo8h
— Kiren Rijiju (@KirenRijiju) February 13, 2021
गुवाहाटी के बिशप कॉटन कॉलेज से स्नातक की डिग्री पाने वाले वो मणिपुर के पहले ऐसे व्यक्ति थे, जो जनजातीय समुदाय से आते थे। इसके बाद वो असम के दर्राम स्थित बारासिंघा में एक स्कूल खोल कर पढ़ाने लगे। तब एक ब्रिटिश अधिकारी ने उन्हें उखरुल हाई स्कूल में प्रधानाध्यापक बना दिया। 1939 में दूसरे विश्व युद्ध के समय उन्होंने सेना में शामिल होने का फैसला लिया। 5 फ़ीट 3 इंच के बॉब ‘किंग्स कमीशन’ पाने वाले पहले मणिपुरी थे।
सेना में भर्ती के दौरान उनकी क्षमताओं के कारण उनकी हाइट आड़े नहीं आई, लेकिन उन्हें इसके लिए दिक्कतों का सामना ज़रूर करना पड़ा। उन्होंने मेजर केएस थिमैय्या (आज़ादी के बाद भारतीय सेना के प्रमुख) के नेतृत्व में प्रशिक्षण लिया और फिर 19वीं हैदराबाद रेजिमेंट (बाद में 7वाँ कुमाऊँ रेजिमेंट) में शामिल हुए। जोरहाट में लॉजिस्टिक्स अधिकारी के रूप में काम करते हुए उन्होंने यूएस आर्मी एयर फोर्सेज (USAAF) की जापान की सेना के खिलाफ सहायता की।
बर्मा रोड में मणिपुरी जनजातीय समूहों के लोगों ने इस युद्ध में ब्रिटिश सेना के लिए गाइड का काम किया था। मणिपुर के महाराजा ने बर्मा के आक्रमण को ध्यान में रखते हुए भारत के साथ विलय का फैसला लिया और 1949 में ये एक भारतीय राज्य बना। 1950 में उन्होंने असम के तत्कालीन राज्यपाल अकबर हैदरी के निवेदन पर असम राइफल्स में सेवाएँ दी। तब असम-तिब्बत भूकंप के कारण इलाके में काफी बुरी स्थिति थी।
उन्होंने राहत कार्यों में बड़ी भूमिका निभाई। इसके बाद वो अरुणाचल प्रदेश में असिस्टेंट पॉलिटिकल अधिकारी बने और उनकी कूटनीति के सब कायल हो गए। जनवरी 17, 1951 को उन्होंने तवांग की तरफ मार्च किया। उन्होंने वहाँ के गाँवों के बुजुर्गों से बात की, तिब्बत के अधिकारियों से मिले और तिब्बती प्रशासन द्वारा मोनपा जनजातीय समुदाय पर लगाए कड़े टैक्सों की समीक्षा की। उनके तवांग दौरे के दौरान ही पीएम नेहरू ने अपने विदेश सचिव को एक पत्र लिखा। उन्होंने इस पत्र में लिखा था,
“मैं लगातार रक्षा समिति द्वारा उत्तर-पूर्वी सीमाओं पर हो रही गतिविधियों के बारे में सुन रहा हूँ। इससे तिब्बत और नेपाल की सीमा पर हलचल है। इन मामलों को कभी मेरी राय के लिए मेरे सामने नहीं लाया गया। असम के राज्यपाल और अन्य लोग निर्णय ले रहे हैं। हमारे तवांग में जाकर वहाँ का नियंत्रण लेने से अंतरराष्ट्रीय समस्याएँ आ सकती हैं, मैं पहले भी कह चुका हूँ। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि बिना मेरी जानकारी के ये सब कैसे हो रहा है।”
लेकिन ये सब उस दूरदर्शी नेता कहने पर हो रहा था, जिनका असामयिक निधन हो गया लेकिन उनकी नीतियाँ अब भी देश का भला कर रही थीं। सरदार पटेल ने अपने जीवनकाल में ही जयरामदास दौलतराम और मेजर बॉब को कह दिया था कि नेहरू से राय-मशविरा किए बिना ही ये ऑपरेशन चलाया जाए, क्योंकि वो दूसरी कश्मीर समस्या नहीं चाहते थे। उन्होंने 800 किलोमीटर की म्यांमार सीमा की समस्याएँ भी सुलझाईं।