आग की भट्टी में सुलगते गाँव

कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
कोरोना संक्रमण अपने चरम पर है,इससे लगभग कोई भी अछूता नहीं रह गया है। गाँव आज अपने भाग्य को कोसते हुए अपनी अन्तहीन पीड़ा में कराह रहे हैं। स्थिति ठीक आग की भट्टी में सुलगने वाले कोयले की तरह हो गई है।सबके पास अपने बचाव की पर्याप्त बतोलेबाजी है,जिसे जिम्मेदारी तय करने पर जेब से निकालकर प्रयोग कर लिया जाएगा। लेकिन गाँवों को महामारी के प्रकोप से बचाने के लिए कहीं कोई ठोस कदम नहीं उठाए जा रहे हैं। सरकारों एवं राजनैतिक नेतृत्व के दावे-वादे उनके लच्छेदार भाषणों की भाँति गायब हैं।स्वास्थ्य अधोसंरचनाएँ अप्रत्याशित दबाव और शासन की अदूरदर्शिता के कारण ध्वस्त हैं।उपचार के नाम पर जनता के हिस्से ‘ढाक के तीन पात’ हैं।
अतिआवश्यक दवाओं, ऑक्सीजन, बेड की चौतरफा मारामारी मची हुई है।आँकड़ों में सबकुछ बेहतर दिखाया जा रहा है। राजनैतिक निकृष्टता और अकर्मण्यता ने जनता को थोक के भाव मौत के द्वार पर ढकेला है। दवाओं ,ऑक्सीजन सिलेंडर की कालाबाजारी के राक्षसीपन ने मनुष्यता को कलंकित किया है। निजी चिकित्सालयों में उपचार के नाम पर लाखों की कमाई का माध्यम मानकर विपदा में भी डकैती डाली गई और वह क्रम लगातार चल रहा है।
आयुष्मान भारत जैसी योजनाएँ धूल फाँक रही हैं,और इसका फायदा उठाकर निजी चिकित्सालयों के संचालक अपना मुनाफा बढ़ाने पर लगे हुए हैं।उन्हें बीमारों के उपचार से कोई मतलब नहीं है। यह स्थिति समूचे देश की है। राज्यों में चाहे सरकारें किसी भी दल की हो। सभी महामारी के प्रकोप से जनता को बचाने और समुचित स्वास्थ्य सुविधाएँ प्रदान करने में असफल हुई हैं।
जनता का सरकार और राजनेताओं से विश्वास उठ चुका है। जिस प्रकार से श्मशानों में शव अपने जलने की प्रतीक्षा में खड़े दिख रहे हैं,उसी तरह सरकारों की भी अर्थी उठ रही है। मरने वाले स्वयं से सवाल पूँछ रहे हैं, और अपनी मौतों के जिम्मेदार भी स्वयं को इसलिए ठहरा रहे हैं,क्योंकि वे संक्रमित हुए तो क्यों हुए?आखिर! निकम्मी सरकारों और राजनेताओं के भरोसे रहने का यह दुष्परिणाम तो उन्हें ही भुगतना था।
स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर नगरों-महानगरों की स्थिति कुछ स्तर तक इसलिए ठीक है,क्योंकि वहाँ चिकित्सा केन्द्र हैं। किन्तु गाँवों की स्थिति दयनीय है। संक्रमण की चपेट से गाँवों को बचाने में व्यवस्थाएँ असफल सिध्द हुई हैं। स्वास्थ्य की अधोसंरचनाएँ तो पहले से ही गाँवों में नहीं हैं।जहाँ यदा-कदा प्राथमिक एवं सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र हैं,वहाँ केवल भवनों के ढाँचे खड़े हैं।इक्का-दुक्का फॉर्मासिस्ट, नर्सों,कम्पाउंडर के कन्धों में ही ग्रामीणों के स्वास्थ्य उपचार का भार रखा हुआ है।देश की अधिकाँशतः आबादी गाँवो में ही बसती है,लेकिन स्वास्थ्य सुविधाओं से लेकर जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के लिए तरसती ही रह जाती है।
हमारे जनप्रतिनिधियों ने गाँवों का कुछ इस तरह दमन किया है कि आज केवल विद्रूपताओं और बदहाली के अलावा गाँवो में कुछ नहीं दिखता है।अब जबकि कोरोना संक्रमण गाँवों तक पहुँच चुका है और उसकी गति बढ़ रही है। ऐसी परिस्थिति में शासन तन्त्र द्वारा संक्रमण से बचाव और संक्रमितों के उपचार की कोई भी तैयारी गाँवों में देखने को नहीं मिल रही है।
सरकारों में बैठे हुए नुमाइन्दे केवल भाषणबाजी, आँकड़ों की जादूगरी का खेल खेलने और अपनी पीठ थपथपाने में मदमस्त दिख रहे हैं। शहरों में तो भाँति-भाँति के संगठन और नेता नामक प्रजाति पाई जाती है ,जिनके थोड़ा बहुत नूराकुश्ती का खेल खेलने पर कुछ असर तो होगा ही। ऊपर से नए किस्म की रौबदारी वाले नौकरशाहों की जद्दोजहद के चलते स्थितियाँ शून्यता से तो बेहतर ही मिल जाती हैं। लेकिन गाँवों के हिस्से में सिर्फ़ अन्धकार है। कहीं किसी की भी नजर गाँवों की ओर नहीं जा रही है। जो है सबकुछ भगवान भरोसे। न तो नेताओं को कोई मतलब है और न ही नौकरशाहों को। कर्फ्यू, लॉकडाउन के चलते गाँवों के प्रतिरोध का स्वर भी किसी के कानों तक नहीं गूँजता है।
गाँवों की सघन बस्तियाँ और सुविधाओं की निरंकता के कारण कोरोना प्रसार लगातार बढ़ रहा है। स्वास्थ्य सुविधाएं बेदम पिट रही हैं,लेकिन सर्वाधिक चिन्ता की बात यह है कि जिस प्रकार से कोरोना संक्रमण ने शहरों को अपनी चपेट में लिया है। यदि उसी प्रकार संक्रमण का प्रसार गाँवों में बढ़ जाएगा, तब स्थिति भयावह होने में बिल्कुल भी समय नहीं लगेगा। न तो गाँवों में त्वरित उपचार व्यवस्था है -न ही संसाधन ।और न ही उतनी आर्थिक समृध्दि जिससे शासन तन्त्र के भरोसे के अलावा भी अपने स्तर से प्राथमिक देखभाल और उपचार की व्यवस्था संभव हो सके।
गाँवों में अधिकाँशतः व्यक्ति खाँसी-सर्दी ,जुकाम या बुखार से पीड़ित मिल रहे हैं।लेकिन विधिवत उपचार मिलने की बजाय सामान्य काढ़े और झोलाछाप डाक्टरों के सहारे ही जीवन की नैय्या उतारने के प्रयास चल रहे हैं। यदि कोई संक्रमित भी हुआ तो उसकी जाँच के कोई भी प्रबन्ध नहीं हैं। गाँवो में यह भी स्थिति नहीं है कि सामान्य तरीके से पृथक तौर पर संक्रमितों को आइसोलेट करवाया जा सके। उनके लिए अलग आवास और शौचालय की व्यवस्था बिल्कुल शून्य है। साथ ही समुचित उपचार की उपलब्धता का अभाव अपना प्रहार कर रहा है। ग्रामीण इस महामारी के दौर में चौतरफा संकट से जूझ रहे हैं।पेट की भूख से लेकर जीवन रक्षा! के लिए ग्रामीण किसी ईश्वरीय चमत्कार होने के सहारे बैठे हुए हैं।लेकिन कहीं से कोई भी उम्मीद की किरण नहीं फूट रही है।
वहीं गाँवों की सामाजिकता की शक्ति भी इस संकट को और बढ़ाएगी क्योंकि लोग परस्पर दूरी बरतने को बुरा व्यवहार मानते हैं। यह चिन्ता की बात है।क्योंकि इससे संक्रमण की शृंखला में बढ़ोत्तरी कई गुना बढ़ जाती है। संक्रमित गाँवों में यह देखा भी गया है कि जहाँ कोरोना संक्रमण पहुँचा है,वहाँ परिवार के परिवार और आस-पड़ोस में मातम पसर गया है। इन स्थितियों को सम्हाला जा सकता था और आगे भी इस पर नियन्त्रण किया जा सकता है,लेकिन इसके लिए दृढ़ इच्छाशक्ति और आरोग्यमय जीवन का संकल्प लेना होगा।
यदि ग्राम स्तर पर कोरोना जाँच और उसके उपचार के लिए पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाएँ बढ़ा दी जाएँ।जहाँ प्राथमिक या सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र हैं वहाँ त्वरित ऑक्सीजन सिलेंडर, कन्सट्रेटर,बेड और आइसोलेशन की व्यवस्था कर दी जाए। ताकि जरूरत पड़ने पर सरकारी तन्त्र के पाटों में पिसने से जनता बचे और उसके उपचार में समय न लगे।जिन गाँवों में चिकित्सालय नहीं हैं -वहाँ अस्थायी अस्पताल और आँगनवाड़ी केन्द्रों, विद्यालयों में आईसोलेशन सेन्टर के रुप में परिवर्तित करने में देरी नहीं करनी चाहिए। विशेषज्ञ चिकित्सकों की सलाह से प्रारम्भिक स्तर पर उपचार मुहैय्या करवाना तथा संक्रमण के आधार पर जिला केन्द्र या अन्य केन्द्रों तक उपचार की व्यवस्था करनी होगी। टीकाकरण की गाड़ी की गति को बढ़ाया जाना और जनजागरूकता के कार्य युध्दस्तर पर करने होंगें।
क्योंकि यदि गाँवों को बचाना है तो संकल्प शक्ति के साथ कोरोना संक्रमण को मात देने के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं की जान फूँकनी होगी। जनभागीदारी के माध्यम से हर गली मुहल्ले में निगरानी समिति का गठन और उसके आधार पर निर्णय लेकर संक्रमण की गति को रोकने और बीमारों के उपचार में किसी भी प्रकार की देरी नहीं करनी होगी। क्योंकि गाँव में एक भी व्यक्ति के संक्रमित होने से समूचा गाँव संकट में पड़ जाता है। कागजी सर्वेक्षण न करके धरातलीय यथार्थ के आधार पर पीड़ितों को समुचित उपचार और रक्षा-सुरक्षा का मार्ग प्रशस्त करना होगा। इसके लिए त्वरित और स्फूर्तिपूर्ण निर्णय के आधार पर गाँवों को संक्रमण से बचाने के कारगर यत्न करने होंगें।अन्यथा की स्थिति में अदूरदर्शिता और सरकारी तन्त्र की उपेक्षा, लापरवाही के चलते यह महामारी गाँवों को असमय काल का ग्रास बना लेगी।