परजीवी अफगान अपनी बदहाली के लिए खुद जिम्मेदार, सेना व आवाम दोनों हैं तालिबान के हमदर्द

राज बहादुर सिंह
यह हैं मोहम्मद अशरफ गनी अहमदजई जिन्हें अशरफ गनी के नाम से जाना जाता है और इनकी सबसे बड़ी पहचान है कि यह अपने मुल्क या कहें भूतपूर्व मुल्क अफगानिस्तान के भगोड़े राष्ट्रपति हैं। तालिबान के काबुल पर कब्जे का अभी औपचारिक ऐलान होने का इंतजार हो रहा है और अशरफ गनी मुल्क छोड़कर किसी महफूज मुकाम की ओर निकल गए हैं।
तकरीबन ढाई दशक बाद तालिबान की अफगानिस्तान की सत्ता में वापसी हो रही है। और तालिबान का शासन एक क्रूर व अमानवीय शासन था और आगे इससे अलग होगा इसके इमकान कम ही हैं। बहरहाल तालिबानी हुकूमत के अत्याचारी तौर तरीके सच्चाई हैं तो इससे भी ज्यादा कड़वी सच्चाई यह भी है कि अफगानिस्तान की जनता है भी इसी लायक कि उस पर तालिबान हुकूमत करें।
यह तालिबान लड़ाके आखिर कहां से आए हैं ? चांद से, सूरज से, जुपिटर से, वीनस से या किसी और ग्रह से ? ये आम अफगानियों के घरों में ही पैदा हुए हैं। इन्हें जन्म देने वाली वही औरतें हैं जो अब तालिबानों के जुल्म की आशंका में कांप रही हैं। जब इनकी औलादों को जेहादी बनाया जा रहा था तब तो इनका सीना गर्व से चौड़ा हो रहा था और आज जब वही जेहादी अपने पैरों से इनका सीना कुचलने पर आमादा है तो आंसू निकल रहे हैं।
कुछ बुद्धिजीवी तर्क दे रहे हैं कि अमेरिका दुम दबाकर भाग खड़ा हुआ अफगानियों को उनके हाल पर छोड़ कर। अमेरिका ने बिल्कुल ठीक किया और मैं तो कहूंगा कि बहुत देर से किया। बीस साल से अमेरिका ने अपनी सेनाओं को अफगानिस्तान में तैनात किया हुआ था। तालिबान प्रमुख मुल्ला उमर की हुकूमत को समाप्त कर एक डेमोक्रेटिक सरकार बनाई। मिलिट्री से लेकर अन्य तरह की मदद मुहैया कराई और अरबों, खरबों डॉलर खर्च किए पर आखिर कब तक यह चलता ?
आखिर अफगान फौजें क्या मोम की बनी हैं ? क्या वह पिचकारियों से लड़ रहीं थीं ? सच तो यह है कि न तो अफगान फौजें और न ही आम जनता दिल से तालिबान के खिलाफ है। उनकी हमदर्दी तालिबान है। वे चाहते हैं दूसरे देश की फौज आकर रोके तो ठीक वरना फिर तालिबान ही हमारे लिए ठीक है। कोई भी देख सकता है कि ताश के पत्तों की तरह अफगान के एक के बाद एक शहर ढहते गए और तालिबान इन पर काबिज होता गया।
दरअसल अमेरिका को सोवियत यूनियन से सबक लेना चाहिए था लेकिन 9/11 के आक्रमण के बाद उसे अलकायदा को सबक सिखाना ही था और ओसामा बिन लादेन के नेतृत्व वाले अलकायदा को अफगानिस्तान की तत्कालीन मुल्ला उमर के नेतृत्व वाली तालिबानी सरकार ने पनाह दे रखी थी। लिहाजा अमेरिका ने अफगानिस्तान के रुख किया और बीस साल बाद यह रुख अब वापस हो चुका है। भूलना नही चाहिए तत्कालीन अफगान सरकार के बुलावे पर सोवियत फौजें दिसम्बर 1979 में अफगान गईं थीं और दस साल की लड़ाई के बाद भी सोवियत फौजें मुजाहिदीन लड़ाकों पर काबू नहीं पा सकीं। इस दौरान सोवियत यूनियन टूट कर केवल रूस रह गया और कोल्ड वार के इस अंजाम के लिए सोवियत का अफगान में फेल मिशन भी एक कारण माना जाता है।
अशरफ गनी ने भाग कर अपनी जान बचाई। उन्हें याद होगा कि कैसे सत्ता में आने के बाद तालिबान ने तत्कालीन अफगान प्रेसीडेंट नजीबुल्लाह को सरे आम चौराहे पर फांसी पर लटका दिया था। पाकिस्तान सहित जितने भी देशों,संगठनों ने तालिबान को मदद की है उनके लिए तालिबान भस्मासुर साबित होगा। बस इंतजार कीजिए। अगर आज सत्ता में वापसी का एपिसोड तालिबान-2 चल रहा है तो इस सत्ता के खात्मे का तालिबान एपिसोड-2 भी आएगा। पर उसके पहले भस्मासुर द्वारा मचाई जाने वाली त्राहि त्राहि भी देखनी होगी।