नई दिल्ली। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अस्तित्व में आए संयुक्त राष्ट्र (United Nations) की सुरक्षा परिषद में दुनिया के 5 कद्दावर देश अमेरिका, रूस, फ्रांस, चीन और यूनाइटेड किंगडम को जगह मिली. इन देशों को पी-5 (Permanent Five) भी कहा जाता है. भारत लंबे समय से इस एलीट क्लब में शामिल होने की जद्दोजहद कर रहा है. तकनीकी रूप से उसकी दावेदारी बनती भी है और पी-5 के ही ज्यादातर देश खुलेआम इसे स्वीकार भी चुके हैं. सवाल उठ रहा है कि क्या मौजूदा वैश्विक परिस्थितियां भारत को सुरक्षा परिषद में बतौर पी-6 शामिल करने के सबसे मुफीद हैं?
बीते कई दशकों से दुनियाभर में सुरक्षा परिषद के विस्तार की मांग चल रही है और इस दौड़ में भारत सबसे आगे है. आजादी से पहले ही भारत ने बतौर फाउंडिंग मेंबर 1 जनवरी 1942 को संयुक्त राष्ट्र को अस्तित्व में लाने के लिए वॉशिंगटन डेक्लरेशन पर हस्ताक्षर किए और विश्व शांति के सभी प्रयासों में अहम भूमिका अदा करने की सहमति दी. संयुक्त राष्ट्र में भारत के पहले प्रतिनिधि सर ए रामास्वामी मुदलियार थे.
मौजूदा पी-5 सदस्य आर्थिक और सैन्य शक्ति होने के साथ-साथ द्वितीय विश्व युद्ध के बाद स्थापित होने वाली दुनिया के ऐसे देश थे जिन्हें संयुक्त राष्ट्र ने तीसरे विश्व युद्ध की संभावनाओं को खत्म करने की जिम्मेदारी दी. संयुक्त राष्ट्र के निर्माण के वक्त चीन को छोड़कर चारों देश द्वितीय विश्व युद्ध के विजेता समूह में थे और बड़ी आर्थिक और सैन्य शक्ति होने के कारण इन्होंने विश्व शांति को स्थापित करने में अपनी अहम सक्रियता निर्धारित की.
आजादी के बाद पहली बार भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का अस्थायी सदस्य 1950-51 में बना. सुरक्षा परिषद में पी-5 के अलावा 10 अस्थायी सदस्य हैं और सदस्य देश दो वर्षों के लिए इनका चुनाव करते हैं. आजादी के तीन साल बाद ही अस्थायी सदस्य बना भारत अबतक 7 बार सुरक्षा परिषद में शामिल हो चुका है (1950-51, 1967-68, 1972-73, 1977-78, 1984-85, 1991-92 और 2011-12).
सुरक्षा परिषद में इस भूमिका के बावजूद पहली बार 1971 में भारत को सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य न होने की कमी खली. इस वक्त भारत ने बांग्लादेश को पाकिस्तान से आजाद कराने में अहम भूमिका अदा की. इसके बावजूद दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत को सबसे पुराने और ताकतवर लोकतंत्र अमेरिका से चुनौती मिली. अमेरिका ने पाकिस्तान के पक्ष में खड़े होते हुए अपनी नौसेना के सबसे शक्तिशाली सातवें फ्लीट के लड़ाकू विमानों से लैस युद्धपोत एंटरप्राइज को हिंद महासागर में पाकिस्तान की मदद के लिए रवाना कर दिया.
इसके साथ ही तत्कालीन अमेरिकी विदेश मंत्री हेनरी किसिंगर ने बांग्लादेश की आजादी के लिए हुई जंग में भारत को युद्ध का कारण तक करार दिया. हालांकि, सुरक्षा परिषद में पी-5 सदस्यों के इस प्रहार से भारत को बचाने का काम तत्कालीन सोवियत संघ (रूस) ने किया, जिसने अपने वीटो पावर का इस्तेमाल करते हुए भारत के खिलाफ अमेरिकी कदम को रोक दिया.
हालांकि यह वाक्या अब इतिहास हो चुका है लेकिन यहीं से भारत की सुरक्षा परिषद में शामिल होने की दौड़ शुरू हुई. सुरक्षा परिषद की इस दौड़ में भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने तीन बार (1972-73, 1977-78, 1984-85) देश को सुरक्षा परिषद में अस्थायी सीट दिलाई. इसके बाद पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने 1991-92 में भारत को छठी बार और फिर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2011-12 में सातवीं बार देश को सुरक्षा परिषद में पहुंचाया.
अस्थायी सीट के लिए हुए इन सभी प्रयासों के जरिए सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट की भारत की प्रबल दावेदारी पेश हुई. बीते दशकों में हुए इन प्रयासों के चलते आज संयुक्त राष्ट्र के पांच स्थायी सदस्यों में से चार सदस्य अमेरिका, रूस, फ्रांस और यूनाइटेड किंगडम भारत को पी-6 बनाने के लिए तैयार हैं लेकिन चीन लगातार इसका विरोध कर रहा है.
सुरक्षा परिषद के अलावा संयुक्त राष्ट्र की महासभा में भी भारत की सदस्यता का विरोध करने के लिए चीन के समर्थन से कुख्यात ‘कॉफी क्लब’ (Uniting for Consensus) सक्रिय है. इस क्लब में अर्जेंटीना, कनाडा, कोलंबिया, कोस्टा रिका, इटली, माल्टा, मेक्सिको, पाकिस्तान, कोरिया रिपब्लिक, सैन मारिनो, स्पेन और तुर्की शामिल है. भारत के साथ-साथ ये कॉफी क्लब सुरक्षा परिषद के किसी विस्तार का विरोध कर रहा है.
मोदी का मास्टरस्ट्रोक?
केन्द्र की सत्ता पर काबिज भारतीय जनता पार्टी के लिए भारत को सुरक्षा परिषद में जगह दिलाना प्राथमिकता है. पार्टी ने अपने मेनिफेस्टो में भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाने का वादा दर्ज कर रखा है. इसके साथ ही लगभग 100 देश की यात्रा के दौरान पीएम मोदी ने इस प्राथमिकता पर बढ़त बनाने का मौका नहीं छोड़ा. 25 सितंबर 2015 को संयुक्त राष्ट्र आम सभा को संबोधित करते हुए मोदी ने सुरक्षा परिषद को 21वीं सदी की चुनौतियों के मुताबिक बदलने के साथ भारत को सुरक्षा परिषद में सक्रिय भूमिका दिए जाने का आह्वान किया.
जहां सुरक्षा परिषद में चार सदस्य अमेरिका, रूस, फ्रांस और यूनाइटेड किंगडम समय-समय पर भारत को शामिल किए जाने की वकालत कर चुके हैं, वहीं हमेशा विरोध में बैठने वाले चीन के रुख में कुछ सहजता दर्ज की गई है. सितंबर 2014 में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के भारत दौरे के बाद भारतीय विदेश मंत्रालय की तरफ से बयान जारी कर कहा गया कि चीन सरकार सुरक्षा परिषद में भारत को जगह दिए जाने का समर्थन करती है. इसके साथ ही कहा गया कि चीन सरकार का मानना है कि मौजूदा समय में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की अहम भूमिका है. बाहरहाल, विदेश मंत्रालय के इस बयान से इतर चीन से कूटनीतिक स्तर पर अभी भी इस संबंध में बड़ी उपलब्धि हासिल करना है. हाल में जिस तरह भारत ने चीन को उसके वन बेल्ट वन रोड परियोजना में पीछे ढकेलने का काम करते हुए चीन को साफ संकेत दिया है कि उसकी किसी भी बड़ी परियोजना की सफलता तभी तय होगी जब भारत उस परियोजना के पक्ष में खड़ा है. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की नीतियों के चलते शुरू हुए ट्रेड वॉर में चीन को अमेरिका के खिलाफ भारत की ज्यादा समर्थन की दरकार है. ऐसे में भारत के लिए चीन को बातचीत की मेज पर बैठाने और सुरक्षा परिषद में सीट के लिए राजी करने के पहले से बेहतर मौके हैं.
अब संयुक्त राष्ट्र के मंच पर वास्तविक राजनीति के मुताबिक भारत को स्थायी सदस्यता तभी मिल सकती है जब पांचों स्थायी सदस्य देश भारत के पक्ष में खड़े हों. इतना ही नहीं इन पांच देशों में कम से कम एक देश ऐसा हो जो भारत की दावेदारी के लिए आम सभा में सदस्य देशों के बीच अहम भूमिका अदा करे. ऐसी स्थिति में जहां कॉफी क्लब की गतिविधियों को निष्क्रिय करने में मदद मिलेगी वहीं भारत की सुरक्षा परिषद में एंट्री का रास्ता साफ हो सकेगा.