महात्मा गांधी की हत्या से जुड़े मुकदमे की बात हो तो इसके बारे में कुछ चीजें सहज ही दिमाग में आती हैं. जैसे अदालत का माहौल बहुत ही गंभीर रहा होगा. इतने बड़े नायक की हत्या से लोग स्तब्ध रहे होंगे जिससे कार्रवाई बहुत शांति और संजीदगी के साथ चली होगी.
लेकिन एक दुर्लभ वीडियो इसके उलट तस्वीर दिखाता है. यह वीडियो 27 मई 1948 को मुकदमे की सुनवाई शुरू होने के वक्त का है. ऐतिहासिक क्लिपें सहेजने वाली एक एजेंसी ब्रिटिश पाथे का यह वीडियो दिखाता है कि इस चर्चित मुकदमे के दौरान अदालत में वैसा ही हंगामा था जैसा आज दिखता है. लोग आ-जा रहे हैं और कटघरे में बैठे आरोपितों से बात भी कर रहे हैं. नाथूराम गोडसे और बाकी आरोपितों को कैमरे में कैद करते पत्रकारों की हड़बड़ी माहौल में और भी अराजकता घोलती दिखती है. गौरतलब है कि आज अदालत में इस तरह फोटो या वीडियो लेने की इजाजत नहीं होती. न ही मुकदमे की सुनवाई कर रहा जज मीडिया से बात करता दिखता है. लेकिन उन दिनों ऐसा हो सकता था.
इस वीडियो की शुरुआत लाल किले के शॉट से होती है जहां मुकदमा चल रहा है. इसके बाद मुकदमे की सुनवाई देखने जाते लोगों की तलाशी के दृश्य हैं. आगे बिड़ला भवन दिखता है. उस जगह पर अब एक चबूतरा बना दिया गया है जहां गांधीजी को गोली लगी थी. इस पर हे राम लिखा है. लोग जूते उतारकर इस जगह पर दर्शन करने आ रहे हैं. इसके बाद कैमरा मुकदमे के न्यायाधीश आत्माचरण को दिखाता है जो शायद पत्रकारों से बातचीत कर रहे हैं. फिर जस्टिस आत्माचरण अदालत में बैठे दिखते हैं और अगले ही दृश्य में कैमरा कटघरे में बैठे आरोपितों को दिखाता है. नाथूराम गोडसे, नारायण दत्तात्रेय आप्टे और विष्णु रामकृष्ण करकरे कठघरे में पहली पंक्ति में बैठे हैं. उनके पीछे दूसरी पंक्ति में दिगंबर रामचंद्र बडगे, मदनलाल पाहवा और नाथूराम के भाई गोपाल गोडसे हैं. तीसरी पंक्ति में शंकर किष्टैया, विनायक दामोदर सावरकर और दत्तात्रेय सदाशिव परचुरे को भी देखा जा सकता है.
वीडियो देखकर लगता है जैसे नाथूराम गोडसे अदालत में होकर भी वहां नहीं हो. ज्यादातर वक्त वह आसपास के माहौल से कटा हुआ दिखता है. एक ही दिशा में ताकता हुआ. 1965 में इस मुकदमे के बारे में जस्टिस जीडी खोसला ने कहा भी कि उसके चेहरे पर इस काम के लिए कोई पछतावा नहीं दिखता था. उधर गोडसे के पड़ोस में बैठे नारायण आप्टे, विष्णु करकरे और पीछे बैठे मदनलाल पाहवा को देखकर ऐसा लगता है कि उन्हें अपने जुर्म की गंभीरता का अहसास ही नहीं है. उनके हावभाव (खासकर करकरे के) ऐसे हैं जैसे वे अपने घर के ड्राइंग रूम में बैठे हों. आप्टे और करकरे आपस में बात करते हुए खूब हंस भी रहे हैं. करकरे तो कई बार उत्साह से उचक-उचककर लोगों की बात का जवाब देता दिखता है.
इस वीडियो में ठीक मदन लाल पाहवा के पीछे और तीसरी पंक्ति में बीच में बैठे विनायक सावरकर को जितना भी दिखाया गया है बड़ी शांति से बैठा दिखाया गया है. वीडियो में मदनलाल पाहवा को पहली नजर में देखकर ही ऐसा लगता है कि जैसे वह आज की किसी बॉलीवुड फिल्म का नायक हो. वह शर्ट भी बिलकुल आज के चलन के हिसाब से पहने हुए है जिसकी ऊपर की बटन खुली हुई है.
गांधी की हत्या 30 जनवरी 1948 को हुई थी. हत्या के जुर्म में गोडसे और आप्टे को मौत की सजा हुई. सावरकर को बरी कर दिया गया और बाकियों को उम्र कैद हुई. उच्च न्यायालय में अपील के बाद दो आरोपितों परचुरे और किष्टैया की सजा माफ हो गई जबकि बाकी की सजा बरकरार रही. गोडसे और आप्टे के लिए 15 नवंबर 1949 फांसी की तारीख तय हुई. इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय का विकल्प बचता था. लेकिन देश में तब सर्वोच्च न्यायालय नहीं था. उन दिनों उच्च न्यायालय के बाद अपील करनी हो तो मुकदमा इंग्लैंड स्थित प्रिवी काउंसिल में जाता था. बताते हैं कि गोडसे नहीं चाहता था कि उसकी जान बचाने के लिए आगे अपील की जाए, लेकिन उसके घरवालों ने उसे बिना बताए अपील कर दी. यह अक्टूबर 1949 की बात है. प्रिवी काउंसिल ने सुनवाई से मना कर दिया. उसका तर्क था कि 26 जनवरी 1950 को भारत में सर्वोच्च न्यायालय अस्तित्व में आ जाएगा और उससे पहले उसके लिए मुकदमा खत्म करना संभव नहीं होगा. लिहाजा उसकी सुनवाई का कोई मतलब नहीं बनता. इसके बाद गोडसे के परिजनों ने तत्कालीन गवर्नर जनरल सी राजगोपालाचारी से उसकी सजामाफी की अपील की जो खारिज हो गई. यह सात नवंबर 1949 की बात है. इसके बाद गोडसे और आप्टे को अंबाला जेल में फांसी दे दी गई.
इस मुकदमे के बारे में एक दिलचस्प बात यह भी है कि इसके तीन आरोपितों का कभी कोई पता नहीं चला. ये थे गंगाधर दंडवते, गंगाधर जादव और सूर्यदेव शर्मा. वे फरार हो गए थे और आज तक कोई नहीं जानता कि उनका क्या हुआ.