इस चुनाव में जहां एक ओर बीजेपी-सपा में घमासान हो रहा था, कांग्रेस-बसपा भी कोशिशें कर रही थीं वहीं, “अदब ब्रांड” शहर में पत्रकारिता की आबरू संग बेअदबी जारी थी. राजधानी के पत्रकारों की जिस जमात का लिखने-पढ़ने-छपने-दिखने से वास्ता था वे तो अपने “काम” में मशगूल थे. लेकिन पत्रकार की खाल ओढ़ने वाले एजेंडाबाज “कारनामों” को अंजाम देने में जुटे थे. जी हां कारनामे, एक भरी पूरी जमात ऐसे कथित पत्रकारों की रही, जो निहित वजहों से पत्रकारिता के शार्प शूटर बन चुके थे. कई स्वनामधन्य गरिष्ठ पत्रकारों के लहू में पिछली शासन सत्ताओँ में उपकृत होने का नमक हिलोरे मार रहा था. इन सबका एकसूत्रीय एजेंडा था—योगी सरकार को उखाड़ फेंकना. बताते हैं कि इनमें से कईयों को इन कारनामों के लिए बाकायदा प्रीपेड सुपारी मिली थी. दिल्ली के हमारे प्रखर पत्रकार साथी भाई Manish Thakur खैराती पत्रकारों का जिक्र करते हैं जिन के बारे में प्रिय साथी Samarendra Singh भी प्रकाश डालते रहे हैं, पर चारण-भाट परंपरा से भी कई स्तर ऊपर का पायदान तय करने वाले लखनऊ के इन सुपारी पत्रकारों ने अपनी लेखनी क्षमता के मुताबिक षड्यंत्र का पूरा मायाजाल बुना, टीवी-प्रिंट-डिजिटल मीडिया हर कहीं कूदकर अपने लक्ष्य साधे. यूक्रेन युद्ध हुआ तो शांति के परम पैरोकार अवतार में आए और विदेश नीति के विशेषज्ञ का गेटअप धारण कर भड़ास शांत की, जाट-किसान-ब्राह्मण नाराजगी नैरेटिव सरीखे कांधे का सहारा लेकर लक्ष्य संधान किया. अयोध्या में डीएम आवास के बोर्ड-पार्कों का रंग बदलने की मामूली सी घटना से बल्लियों उछल गए.
सरकार-सत्ता की आलोचना करना पत्रकारीय दायित्व का अहम हिस्सा है लेकिन जब कोई कलम कुंठा की स्याही से छलक रही हो मस्तिष्क पक्षपात के आडंबर से भरा हो तो एकतरफा रवैया न सिर्फ झलकता है बल्कि चीखचीखकर पक्षपात की गवाही दे देता है…दूसरों पर गोदी मीडिया की तोहमत का कीचड़ उछाल रहे ये तत्व अपने भीतर बजबजा रहे जातीय-धामिक कुंठाओँ के कीटाणुओ को रंचमात्र नहीं देख पा रहे थे. खैर, लोकतंत्र में जनादेश ही सर्वोपरि होता है, जनता जिस का साथ दे वही सत्ता के रथ पर सवार होता है. पर इन चुनावों ने सुपारी पत्रकारिता के वाहकों को बेपर्दा कर दिया है, अभी कुछ मायूस हैं पर जल्द ही ये सियासत-सत्ता के गलियारों में नए एजेंडे-नई सुपारी का टेंडर लेने में जुटे नजर आएंगे.
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