भाजपा सांसद वरुण गांधी के कांग्रेस में शामिल होने की अटकलों पर राहुल गांधी ने यह कहकर विराम लगा दिया है कि ‘मेरे परिवार की एक विचारधारा है। वरुण ने अलग रास्ता चुना, जिसे मैं कभी अपना नहीं सकता। मैं कभी आरएसएस के दफ्तर नहीं जा सकता हूं। इसके लिए आपको मेरा सिर काटना होगा।’ गांधी परिवार का हिस्सा रहते हुए भी आखिर मेनका गांधी और उनके बेटे को कांग्रेस नेताओं से इतर रास्ता क्यों चुनना पड़ा? इस सवाल का जवाब पाने के लिए आपको 28 मार्च 1982 की रात की उस सियासी घटना को जानना होगा।
मेनका गांधी उस समय बमुश्किल 25 साल की थीं, जब इंदिरा गांधी ने संजय गांधी की विरासत को राहुल गांधी को सौंपने का फैसला किया। इस सियासी घटना ने मेनका और इंदिरा गांधी के बीच दरारें पैदा कर दी। मशहूर लेखक खुशवंत सिंह ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि दोनों के बीच दूरियां इस कदर बढ़ गईं कि दोनों का एक छत के नीचे साथ रहना मुश्किल हो गया। 28 मार्च 1982 को मेनका ने मीडिया और पुलिस की मौजूदगी में वरुण गांधी को साथ लेकर प्रधानमंत्री आवास से निकल गईं।
स्पेनिश लेखक जेवियर मोरो ने अपनी किताब ‘द रेड साड़ी’ में उस रात की घटना का जिक्र करते हुए लिखा है, “मेनका गांधी को यह बात नागवार गुजरी कि कैसे उनके पति की विरासत उनके भाई द्वारा उनसे छीन ली गई।” मेनका और इंदिरा गांधी के बीच मनमुटाव तब चरम पर पहुंच गया जब संजय गांधी के समर्थकों के साथ लखनऊ में उन्होंने एक बैठक में भाग लिया। इस दौरान उन्होंने जोरदार भाषण दिया। आपको बता दें कि इस समय इंदिरा गांधी लंदन में थीं।
28 मार्च 1982 की सुबह इंदिरा घर लौटती हैं। मेनका के अभिवादन का इंदिरा गांधी ने रूखे अंदाज में जवाब दिया। उन्होंने मेनका से कहा, “हम बाद में बात करेंगे”।
जेवियर मोरो लिखते हैं, “गलियारे से नीचे जाते हुए मेनका गांधी के पैर कांप रहे थे। कमरे में कोई नहीं था। उन्हें कुछ मिनट इंतजार करना पड़ा। इस दौरान वह अपने नाखून चबाने लगीं। अचानक मेनका ने शोर सुना। उन्हें इंदिरा गांधी दिखाई दीं। वह गुस्से में नंगे पांव पहुंची थीं। इस दौरान उनके साथ उनके गुरु धीरेंद्र ब्रह्मचारी और सचिव धवन भी थे। वह उन्हें इस घटना का गवाह बनाना चाहती थीं।”
इंदिरा गांधी ने मेनका को घर से जाते समय कपड़ों के अलावा कुछ भी नहीं ले जाने की भी चेतावनी दी। इसके बाद मेनका ने खुद को अपने कमरे में बंद कर लिया। वहां से अपनी बहन अंबिका को फोन कर उन्होंने सारी बातें बताईं। ताकि वह प्रेस को बता सकें और मदद ले सकें।”
उस रात लगभग नौ बजे घर के प्रवेश द्वार पर अंतर्राष्ट्रीय संवाददाताओं के एक बड़े समूह सहित फोटोग्राफरों और पत्रकारों की भीड़ जमा हो गई। पुलिस बल भी भारी मात्रा में तैनात रहा। मेनका और उनकी बहन जब यह तय कर रही थीं कि कैसे आगे बढ़ना है कि इंदिरा कमरे में घुस गईं। उन्होंने चिल्लाते हुए कहा- ‘अभी बाहर निकलो! मैंने तुमसे कहा है कि अपने साथ कुछ भी मत ले जाना। इसपर अम्बिका ने हस्तक्षेप किया। उसने कहा, ‘वह नहीं जाएगी। यह उसका घर है।’ इतना सुनते ही इंदिरा फिर चिल्लाईं। उन्होंने कहा- ‘यह उसका घर नहीं है। यह भारत के प्रधानमंत्री का घर है।’
बहनों ने मेनका का सामान पैक किया। सचिव धवन और गुरु धीरेंद्र ब्रह्मचारी को संदेशवाहक का काम करना पड़ा। कुछ घंटों के बाद मेनका का सामान एक गाड़ी में लादा जा रहा था। इसी दौरान वरुण गांधी का मामला सामने आता है। इंदिरा अपने दो साल के पोते को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थीं और मेनका अपने बेटे के बिना नहीं जाने को तैयार थीं। इंदिरा की लीगल टीम ने भी प्रधानमंत्री से कहा कि पोते को रखने के लिए कुछ भी नहीं किया जा सकता है।
रात के ग्यारह बजे के बाद मेनका गांधी वरुण गांधी को अपनी गोद में लेकर अंतत: घर से निकलीं और अपनी बहन के साथ एक कार में सवार हो गईं। वह दुनिया को यह बताना चाहती थीं कि कैसे एक वफादार बहू के साथ उसकी शक्तिशाली और सत्तावादी सास द्वारा क्रूरता से व्यवहार किया गया। मेनका ने कार से पत्रकारों की तरफ हाथ हिलाया। वही तस्वीर भारत सहित दुनिया के कई देशों के अखबारों में छपी।