अज़ीम मिर्ज़ा
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51(A) के मुताबिक हर जीवित प्राणी के प्रति सहानुभूति रखना भारत के हर नागरिक का मूल कर्तव्य है। पशु क्रूरता निवारण अधिनियम’ के मुताबिक किसी पशु को आवारा छोड़ने पर तीन महीने की सजा हो सकती है।
पशु कल्याण बोर्ड बनाम ए नागराज के फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने जीने के मौलिक अधिकार के दायरे का विस्तार करते हुए इसमें पशुओं को भी शामिल कर लिया है सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार बैलों को भी एक स्वस्थ और स्वच्छ वातावरण में रहने का अधिकार है। हमारे संविधान में पशुओं को पर्याप्त अधिकार प्राप्त हैं लेकिन क्या ज़मीन में इनका सही ढंग से क्रियान्यवन हो रहा है। आज भारी भरकम बजट खर्च करके भी समस्त बेसहारा गौवंश का पालन पोषण में बहुत समस्याएं आ रही हैं।
उत्तर प्रदेश सरकार ने साल 2019-2020 के बजट में गोशालाओं के रखरखाव के लिए 247.60 करोड़ रुपये आवंटित किए और शराब की बिक्री पर लगे विशेष शुल्क से मिले करीब 165 करोड़ रुपये निराश्रित एवं बेसहारा गोवंशीय पशुओं के भरण-पोषण के लिए इस्तेमाल हुए। वर्ष 2019 की पशु गणना के अनुसार प्रदेश में 19019641 गौवंशीय पशु हैं, जिसमें 1184494 पशु बेसहारा हैं। सरकार अपनी वेबसाइट पर दावा करती है कि 950174 पशुओं को संरक्षित किया गया है। फिर भी आपको उत्तर प्रदेश की सड़कों पर भारी तादाद में आपको बेसहारा गौवंश घूमते दिख जाएंगे तो फिर आखिर किसकी ज़िम्मेदारी है कि इस तरह से गौवंश सड़कों पर न घूमे।
इसके सम्बन्ध में पीपुल्स फॉर एनिमल्स की ट्रस्टी गौरी मौलेखी का मानना है कि गौशालाओं में जो गाय आती हैं वह पहले डेयरी में इस्तेमाल की जाती हैं और जब बूढ़ी और बाँझ हो जाती तथा दूध देने कम कर देती हैं और वह डेयरी वालों के काम की नहीं रह जातीं ऐसे में या तो वह सड़क पर घूमती पाई जाती हैं या उनकी तस्करी हो रही होती। उस दौरान उसे पुलिस या नगर पालिका पकड़ कर किसी एन जी ओ या सरकारी गौशाला में भेज देती है, फिर यह दान पर पलती हैं। यह पूरा सिस्टम ही खराब है। जो उधोग इनसे फायदा उठाता है उसने तो आज तक एक टका आना खर्च नहीं किया।
मानिए कोई पेपर मिल लगता है और पेपर मिल से निकलने वाली राख सड़क पर छोड़ दे और फिर सरकार से कहे कि तुम इसको ठिकाने लगा दो तो उसे पुलिस पकड़ कर ले जाएगी और कहेगी कि आपके उधोग का कचरा है इसे आपने क्यों नहीं निस्तारित किया।
लेकिन लगभग हर स्टेट में ढूध उत्पादन के लिए सोसाइटीयां हैं उनको आजतक किसी ने नहीं कहा कि आप गाय का ढूध बेचते हैं, आप इतने पैसे उनसे कमाते हैं आपने आज तक बाँझ जानवरों और नर गौ वंश के लिए क्या किया।
जो लोग दूध प्रयोग नहीं करते उनके भरे हुए टैक्स भी सरकार गौशालाओं पर खर्च करती है जो गलत बात है। जो डेयरी पैसे कमा रही है उसी को बाँझ गाय और नर गौवंश का भरण-पोषण का इंतेज़ाम करना चाहिए, चाहे वह उसमें जो पैसा लगे उसे दूध में बढ़ा लें, ताकि जो दूध खरीद रहा है वह उसका पैसा भरे न कि वह व्यक्ति जो दूध नहीं इस्तेमाल करता।
यूपी में योगी जी ने गौशालाओं पर पैसे खर्च किए। वह बहुत अच्छी नियत से खर्च किया, यह प्रशंसनीय है, लेकिन क्या वह सन्तोषणीय है। डेयरी उधोग जो इनसे अंधाधुन पैसे कमा रहे हैं, अगर हम उनको उत्तरदायी नहीं बनाते तो फिर दान से गाय पालन कोई उचित बात नहीं है।
गांव में जहाँ कोआपरेटिव सोसाइटी दूध न खरीद रही हों वहाँ भी यह नियम लागू किया जा सकता है कि जिस रेट पर आप दूध बेच रहे हैं उसमें 2 रू और बढ़ा लीजिए और इससे जो पैसा इकट्ठा होगा, उससे वृद्ध जानवरों का भरण-पोषण होगा। बाँझ हो गए गौवंश को फेक दो यह सोच ही गलत है। सड़क पर गाय को छोड़ना गलत है इसके लिए गाँव मे भी आश्रय स्थल बनाया जा सकता है, इसकी ज़िम्मेदारी गौ पालकों की है।
पशु अधिनियम की धारा 11 में किसी भी किसी भी पालतू पशु को विचरण करने के लिए छोड़ देना अपराध है। कानूनी तौर पर, तकनीकी तौर पर और सामाजिक तौर पर यह बिल्कुल गलत है कि बाँझ पशुओं को सरकार का कोई और विभाग पाले, जिनका फायदा दुग्ध सोसायटीयां उठा रही हैं।
दुनियाभर में जितनी भी गाड़ियों के धुँए से प्रदूषण होता है उससे 11 गुना जानवरों के गोबर से होता है। इसलिए गोबर गैस के प्लांट लगने चाहिए और गैस निकलने के बाद जो गोबर बचे उससे कण्डे बनाए जाए। इसको एक बड़े उधोग के रूप में विकसित करना चाहिए।
एक व्यक्ति जब मरता है तो 6 टन लकड़ी लगती है यानी लगभग 6 पेड़ को काटना पड़ता है, इसकी अपेक्षा अगर हम गोबर के कण्डे से दाह संस्कार किया जाए तो पर्यावरण को भी फायदा होगा और गौ पालकों को भी।
दुधारू पशुओं की उपलब्धता को कम करने के लिए अब हमें दूध के अन्य स्रोतों को भी अपनाना होगा। जैसे बादाम का दूध, सोया दूध, मोमफली का दूध इस तरह के वनस्पतियों से उतपन्न दूधों को सरकार को प्रोत्साहित करने की जरूरत है ताकि हमारी पशुओं पर निर्भरता कम हो।
इस तथ्य को और आगे बढ़ाते हुए वन गुड कम्पनी के को – फाउंडर अभय रंगन ने बताया कि हमने प्लान्ट बेस डेयरी कम्पनी इसलिए ही बनाई है कि लोंगों की निर्भरता पशुओं पर कम हो। आज हम काजू, ओट और मिलेट से दूध, दही, पनीर, घी व चॉकलेट आदि बना रहे है जो देश के पाँच बड़े शहरों में उपलब्ध है। अगर सरकार हमको प्रोत्साहन और अनुदान दे तो वनस्पति आधारित डेयरी, पशु आधारित डेयरी का विकल्प बन सकती है।