डा. अभिलाशा
प्रकृति में ठंडे शुष्क मौसम के बाद रस का संचार होता है। इसे ही वसंत ऋतु कहते हैं। सूर्य के प्रकाश में गर्माहट बढ़ने के साथ ही धरती पर प्रकृति में रस का संचार होने लगता है। सरस्वती का विग्रह सरस+वती है जिसका अर्थ होता है सुन्दर रस युक्त। रस ही हमारे मनोभावों का आधार हैं। इसीलिए लालित्य की देवी, संगीत आदि कलाओं की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती का जन्मोत्सव वसंत पंचमी ही माना जाता है।
ऋग्वेद में देवी सरस्वती का वर्णन दो रूपों में मिलता है। एक महान नदीतमा के रूप में जिसकी हमारे पूर्वज उपासना करते थे, दूसरा वाग्देवी के रूप में। भारतीय समाज में ज्ञान को सर्वसुलभ करने के लिए उसे कथा का रूप दे दिया जाता था। इसीलिए नियम यह है कि पहले पुराण पढ़िए फिर वेदार्थ में आइए। सीधे वैदिक प्रज्ञान में प्रवेश नहीं कराया जाता। अतः पौराणिक कथानक के माध्यम से विषय प्रवेश कराने का नियम बना।
ब्रह्मा यानी सृष्टि की रचनाकार शक्ति और ब्रह्म ज्ञान यानी सृष्टि संरचना का ज्ञान। सावित्री, गायत्री, श्रद्धा, मेधा और सरस्वती, ज्ञान की यह 5 धाराएं ब्रह्म में मिल जाती हैं, जो ब्रह्म यानी ईश्वर (परम ज्ञान) में मिलने का मार्ग हैं। इसलिए इन्हें पत्नी कहा गया है। यहां पौराणिक कथा के रूप में पत्नी कहने का अर्थ बहुत सारगर्भित है।
इसे समझने के लिए भाषा विज्ञान की समझ होनी आवश्यक है। अगर भाषा ज्ञान न हो तो अर्थ का अनर्थ निकाल लिया जाता है। ऋग्वेद, अथर्ववेद, ऐतरेय ब्राह्मण और श्रीमद्भागवत से एक एक श्लोक ऐसे हैं जिसकी मनमानी व्याख्या कर ब्रह्मा और सरस्वती पर चारित्रिक दोष लगाने का नैरेटिव फैलाया जाता है। जो लोग ऐसा करते हैं न तो उन्हें ब्रह्म की समझ है और न सरस्वती की।
श्रीमदभागवत् का श्लोक जिसकी मनमानी व्याख्या की जाती है, वह इस प्रकार है:
वाचं दुहितरं तन्वीं स्वयंभूर्हतीं मन:।
अकामां चकमे क्षत्त्: सकाम् इति न: श्रुतम् ॥
इसी तरह ऋगवेद का श्लोक है:
पिता यस्त्वां दुहितरमधिष्केन् क्ष्मया रेतः संजग्मानो निषिंचन् । स्वाध्योऽजनयन् ब्रह्म देवा वास्तोष्पतिं व्रतपां निरतक्षन् ॥
ऐतरेय ब्राह्मण का श्लोक इस प्रकार है:
प्रजापतिवै स्वां दुहितरमभ्यधावत्
दिवमित्यन्य आहुरुषसमितन्ये
तां रिश्यो भूत्वा रोहितं भूतामभ्यैत्
तं देवा अपश्यन्
“अकृतं वै प्रजापतिः करोति” इति।
अंत में अथर्ववेद का श्लोक देखते हैं जिसके कारण कुछ लोग ब्रह्म और सरस्वती को मूर्त रूप में दिखाकर उनके चरित्र पर लांछन लगाते हैं।
सभा च मा समितिश्चावतां प्रजापतेर्दुहितौ संविदाने।
येना संगच्छा उप मा स शिक्षात् चारु वदानि पितर: संगतेषु।
अब अगर इन श्लोकों और ऋचाओं की व्याख्या करें तो सबसे पहले यह समझना जरूरी है कि वैदिक काल में राजा को प्रजापति कहा जाता था। सभा और समिति को प्रजापति की दुहिता यानि बेटियों जैसा माना जाता था। इन ऋचाओं में ब्रह्मा को प्रजापति कहा गया है इस कारण भ्रम की स्थिति उत्पन्न की गयी है।
शास्त्रीय गुरुओं के अनुसार ‘सरस्वती’ शब्द का प्रयोग उस ऊर्जा शक्ति के लिए किया जाता है, जो ज्ञान की अधिष्ठात्री हो, विद्या की अधिष्ठात्री हो और साकार रूप में विद्यमान हो। शास्त्रों के अनुसार जिस तरह ज्ञान या विद्याएं दो हैं उसी तरह सरस्वती भी दो हैं। विद्या में अपरा और परा विद्या है। अपरा विद्या की सृष्टि ब्रह्माजी से हुई, लेकिन परा विद्या की सृष्टि ब्रह्म ज्ञान की धारा से हुई मानी जाती है।
भारत के शाक्त परंपरा में तीन रहस्यों का वर्णन है- प्राधानिक, वैकृतिक और मुक्ति। इस प्रश्न का, इस रहस्य का वर्णन प्राधानिक रहस्य में है। इस रहस्य के अनुसार महालक्ष्मी के द्वारा विष्णु और सरस्वती की उत्पत्ति हुई। अपरा विद्या की देवी सरस्वती और विष्णु का सम्बंध बहन और भाई का कहा गया है। यहां यह जानने की जरूरत है कि पौराणिक कथाओं में जिस सरस्वती के ब्रह्मा से विवाह का उल्लेख आता है वो विष्णु की बहन सरस्वती हैं जो श्वेत नहीं बल्कि रक्त वर्ण की है।
लेकिन अंग्रेजी शासन काल में पुराणों के साथ बहुत छेड़छाड़ की गई। हिन्दू धर्म के दो ग्रंथों ‘सरस्वती पुराण’ और ‘मत्स्य पुराण’ में सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा का सरस्वती से विवाह करने का प्रसंग है जिसके फलस्वरूप इस धरती के प्रथम मानव ‘मनु’ का जन्म हुआ। लेकिन पुराणों की व्याख्या करने वाले सरस्वती के जन्म की कथा को उस सरस्वती से जोड़ देते हैं जो ब्रह्मा की पत्नी हैं जिसके चलते सब कुछ गड्ड – मड्ड हो चला है।