यूपी में अनुसूचित जातियों के वोट को साधने की मिली अघोषित जिम्मेदारी, स्वामी को मिला सपा से ईनाम, बढ़ा कद
स्वामी के समर्थकों ने लखनऊ में जलायी श्री रामचरित मानस की प्रतियां, फाड़े पन्ने, देश भर में आक्रोश की प्रतिक्रिया
राहुल कुमार गुप्ता
हाल ही में श्री राम चरित मानस की कुछ चौपाइयों पर बिहार के नेता चंद्रशेखर व यूपी में सपा नेता स्वामी प्रसाद मौर्या ने कुछ विवादित चौपाइयों को लेकर सवाल उठाये हैं। ये सवाल मिशन 2024 की बिसात की शुरुआत हैं।
कुछ लोगों का कहना है यूपी में अनुसूचित जातियों के वोट को साधने के लिए सपा नेता स्वामी प्रसाद को अघोषित जिम्मेदारी मिल गई है, जिसके कारण
स्वामी का सपा में कद बढ़ गया है। उन्हें महासचिव बनाया गया। रविवार को लखनऊ में उनके समर्थन में कुछ लोगों ने श्रीराम चरित मानस की प्रतियां फाड़ी और जलाई भी। जिससे देश भर से आ रही प्रतिक्रियाओं और आक्रोश से सोशल मीडिया भरा पड़ा है ।
श्रीरामचरित मानस में कुछ जिन चौपाइयों के लेकर पुनः विवाद उपज रहा है। मानस या किसी भी महाकाव्य में शब्दों के विशेषण रूप और जातिवाचक संज्ञा रूप का अलग-अलग जगह अलग रूप में प्रयोग होना सामान्य है। किसी भी भाषा में यह सामान्य बात है कि एक शब्द के कई भावों में अलग- अलग अर्थ हैं। यदि उन शब्दों को उन भावों का सही ज्ञान हो जाये तो अपवाद का कोई विषय ही नहीं बनता।
आदर्शों से भरा यह महाकाव्य समाज को जोड़ने और सुधारनें की दिशा में सदैव से अग्रसर रहा है।
श्रीराम चरित मानस की इन दो चौपाइयों को लेकर ज्यादा विवाद सामने आता है:- सुंदर कांड की एक चौपाई है:-
“ढोल, गंवार, शूद्र, पशु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।।”
जब समुद्र सजीव रूप में आकर श्री राम से याचना करते हैं तब यह चौपाई आती है। क्षमा मांगने वाला व्यक्ति ये कभी नहीं कहता की हम मारने के अधिकारी या योग्य हैं। हमें मार डालो। वो तो बोलता है हम क्षमा योग्य हैं क्षमा करिये और वह क्षमा करने की वजहें भी गिनाता है। आज के दौर में भी कानून विवेकहीन लोगों के लिए सजा में क्षमा का भाव रखता है। जैसे बच्चों और पागलों के साथ। इनसे से हो जाने वाले अपराधों में और विवेकशील लोगों से होने वाले अपराधों में दोनों की सजाओं में अलग अलग प्रावधान है। विवेकहीन लोगों की सजा में अपेक्षाकृत नम्रता और क्षमा का बोध ज्यादा होता है।
यहां तमाम विद्वजन उन शब्दों के कई अर्थों के कारण कई अर्थ निकालते हैं। कोई ‘ये सभी तारने के अधिकारी हैं’, और कोई ‘देखने (ताड़ना) के अधिकारी हैं।’ के बारे में बताते हैं। उपरोक्त चौपाई में सभी के शिक्षित न होने के कारण विवेक की भी कमी पर जोर है। अतः हम सब क्षमा योग्य हैं।
यह भाव ज्यादा प्रभावी जान पड़ता है।
हां! समुद्र ने यहां खुद को शूद्र की श्रेणी में रखकर क्षमायाचना की है। इस चौपाई में यही भाव आता है कि ढोल, गंवार (ग्रामीण), शूद्र, पशु, नारी ये शिक्षित नहीं हैं किन्तु इनका महत्व समाज में सर्वाधिक है। ढोल एक वाद्ययंत्र है जो अच्छी धुन भी निकालता है और कर्कश इसमें उसका दोष नहीं। गंवार( ग्रामीण) स्वभाव से सरल और अशिक्षित होता है तथा खेती किसानी और मजदूरी कर समाज को संबल प्रदान करता है। इससे भी कोई ग़लती होती है तो वो भी क्षमा के योग्य हैं। शूद्र यहां जातिवाचक अर्थ में है जिसका अर्थ है अशिक्षित होते हुए भी समाज के सभी ऐसे कार्य करने वाला जो अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, जिससे समाज में प्रगति का पहिया विराम नहीं लेता। यहां शूद्र का समाज के प्रति इतना महत्वपूर्ण होना और अशिक्षित होने के अभाव में वो भी क्षमा योग्य ही है। पशु पर्यावरण और समाज के लिए अतिमहत्वपूर्ण हैं किंतु अविवेक के कारण वो भी क्षमा योग्य हैं। नारी समाज में जीवन की गति की संबल दाता है और अनेकों कष्ट सहने में पृथ्वी की तरह सहनशील है। जननी है पर शिक्षित न होने के कारण अपेक्षाकृत विवेकशीलता भी कम है अतः नारी भी क्षमा की अधिकारी है।
समुद्र श्रीराम के पूर्वज रहे और उन्होंने खुद को बचाने के लिए शूद्र शब्द का सहारा लिया
कि वो सेवक की तरह आपकी बनाई सृष्टि की सेवा कर रहे हैं किंतु प्रभु स्वभाव से आपने मुझे जड़ रखा है अर्थात विवेकहीन रखा है। अत: प्रभु मैं भी शूद्र की भांति क्षमा का अधिकारी हूं। अब बताइये इस भाव से शूद्र की कितनी महिमा और गरिमा है।
उस काल में दलित ऋषि भी पूजे जाते रहे हैं इसके कई उदाहरण मिल जाते हैं। इस दौर पे कहीं छुआछूत की झलक नहीं दिखाई देती। वाल्मीकि जी उस दौर में सभी के पूज्य थे, निषादराज, शबरी आदि कई उदाहरण देखने को मिल जाते हैं।
एक दूसरी चौपाई जो विवाद की वजह बनी हुई है वो ये है :- “पूजहिं विप्र सकल गुण हीना, शूद्र न पूजहिं वेद प्रवीना” ।।
इसको लेकर भी एक ग़लत भावना उपजती है।
शूद्र के विशेषण रूप में और अर्थ भी हैं जैसे निकृष्ट, संवेदनहीन आदि! अब संवेदनहीन व्यक्ति को कितने भी शास्त्र रट जायें, वह सामान्यत: घातक ही साबित होता है।
इसके तमाम उदाहरण और दृष्टांत आप सबके समक्ष रहते ही हैं। आज के दौर में भी ऐसे बहुत से हाई एजुकेटेड लोग भी अनीति के मार्ग पर चलते रहते हैं। जिससे समाज में नकारात्मकता प्रसार करती है और भयाक्रांत वातावरण तैयार करती है। केवल ज्ञान भर की महत्ता नहीं होती। ज्ञान की अपेक्षा मानवता और संवेदनशीलता ज्यादा महत्वपूर्ण है।
विप्र का एक अर्थ संवेदनशील से भी है और जगत कल्याण से भी है। अगर ऐसे व्यक्ति के पास ज्ञान का भंडार नहीं है तो वो अनीति के मार्ग पर चलने वाले उन महाज्ञानियों की अपेक्षा पूज्य ही है।
रावण महाज्ञानी होते हुए, संवेदनहीन था, जगत कल्याण की भावना नहीं थी, अत: वो पूज्य नहीं हुआ। भले उसकी जाति ब्राह्मण थी लेकिन अर्थ जातिवाचक न लेकर विशेषण के रूप में लिया गया।
काव्य में विशेषण का प्रयोग ज्यादा प्रचलित है। इसी प्रकार जाति से शूद्र होते हुए वाल्मीकि विशेषण रूप में विप्र थे, जगत के कल्याण का भाव लिए संवेदनशील थे। अत: वो पूज्य हुए। सभी ने उनको पूजा।
इसी प्रकार संत रैदास, कबीर और अन्यान्य दलित ऋषि- मुनि भी पूजनीय रहे।
राजपूतों के घर की लक्ष्मी मीराबाई ने रैदास को अपना गुरु बनाया। तब भी छुआछूत अपने चरम पर नहीं थी। ये धर्म ग्रंथों और इतिहास से देखने को मिलता है। अब लिखित और मान्य इतिहास की तरफ झांकते हैं।
भारत के कई हिस्सों में भी बहुत से शूद्र राजाओं और उनके अनेक वंशजों ने राज किया। जैसे मगध में नागवंशी, नंदवंश, मौर्यवंश! इसी प्रकार देश के अन्य कई हिस्सों में और बहुत से शूद्र और पिछड़े राजाओं ने राज किया। मौर्यवंश की स्थापना में ब्राह्मण कौटिल्य का ही हाथ था। तब भी छुआछूत नहीं थी। शाक्यवंशीय राजकुमार तथागत गौतम बुद्ध जी को भी तब ब्राह्मणों ने ही शिक्षा प्रदान की। अब विष्णु के नौंवें अवतार के रूप में उन्हें आज भी पूजा जाता है।
तमाम पिछड़ी जाति के राजा अंग्रेजी शासन के समय भी राज कर रहे थे, तब खुद को उच्च समझे जानेवाले उनके समर्थन में ही थे न कि विरोध में।
इस ऐतिहासिक काल में भी जब शूद्र जातिवाचक के रूप में है तब कोई समस्या नहीं। इसका विशेषण रूप इसको अलग ही अर्थ देता है।
धर्म ग्रंथों में शूद्र जातिवाचक न होकर अधिकांशतः विशेषण अर्थ में प्रयुक्त हुआ है और जहां-जहां जातिवाचक के रूप में प्रयोग हुआ है वहां सकारात्मक अर्थ ही निकलकर आया है।
हां! आज जो एससी और पिछड़ी जाति के रूप में हैं उन्हें कालांतर में (उत्तरवर्ती मुगल काल और अंग्रेजी शासन के बाद से) काफी अमानवीय स्थिति में रखे जाने के साक्ष्य भी हैं। जो किसी कलंक से कम नहीं है। बाबा साहेब अंबेडकर जी ने बताया कि ऐसा कोई देश नहीं है जो ऐसे ही भेदभावपूर्ण रवैये से अछूता रहा हो। इस्लाम और ईसाइयत में अव्यवस्थाओं को लेकर वो इनसे सहमत नहीं थे। उन्होंने तो कुरान में भी सुधार की मांग की। अब शायद स्वामी प्रसाद व उनके समर्थक जिस प्रकार से श्रीराम चरित मानस में मानवता के खातिर सुधार की मांग कर रहे हैं वो मानवता के खातिर कुरान की कुछ आयतों में भी सुधार की मांग इसी प्रकार से करेंगे।
हम इतिहास के उस कलंक को भुलाकर ही प्रेम, शांति, प्रगतिशील और सौहार्दपूर्ण समाज का निर्माण कर के इस धरा को पुनः खुशियों का संसार बना सकते हैं। लेकिन सत्ता के स्वार्थ के चलते सही सुधार की संभावना कम है। और तो और ध्रुवता बढ़ती ही जा रही है।
हां! अभी हाल ही में कुछ दिनों पहले संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भी जाति परंपरा को पाटने की आवाज उठाई थी। यह हिंदू समाज ही है जो सर्वाधिक लोचदार है। यह अपने अंदर की बहुत सी रूढ़ियों को बाहर कर संकीर्णता की जंजीरों से बाहर निकल आकाश की ओर निहारता है।