सम्भवामि युगे युगे…

सर्वेश तिवारी श्रीमुख
अधर्म जैसे अपने चरम पर पहुँच चुका था। मथुरा में बैठा कंस स्वयं को ईश्वर बताता था, तो उधर मगध नरेश जरासंध भी ईश्वरत्व का दर्प लिए जी रहा था। कहीं नरकासुर स्वयं को ईश्वर बता कर मानव जाति की प्रतिष्ठा को अपने पैरों तले रौंद रहा था। अब तो उन्हें ही ईश्वर मान कर पूजने वालों की संख्या अधिक हो गयी थी।
धर्म को अपशब्द बोलने वालों की संख्या रोज ही बढ़ती जाती थी और जो ही शक्तिशाली होता वह स्वयं को ईश्वर घोषित कर लेता था। आर्यावर्त की सीमाओं के पार यवनों का आतंक चरम पर था। भारतवर्ष के भीतर भी ऐसी असँख्य राजनैतिक शक्तियां थीं, जो यवनों से मित्रता रखती थीं, उनकी परम्पराओं का पालन करती थीं, उनका सहयोग करती थीं। और इन सब के मध्य हृदय में धर्म धारण कर जीने वाले सामान्य जन की क्या दशा थी? तो उनके ऊपर असँख्य कर थोप दिए गए थे। गायें ग्वालों की, पर दूध कंस का। खेत किसानों के, अन्न कंस का। ऋषियों के हवन कुंड में हड्डियां डाल कर खिलखिला उठने वाले दैत्य विधर्मी सत्ता से सम्मान पाते थे। तो कहीं जगत कल्याण की प्रार्थना करते घूमते वैरागी सन्तों को पीट पीट कर मार देने वाले दैत्य क्षत्रप बने बैठे थे। देवस्थलों की गरिमा धूमिल की जाती थी, मन्दिर तोड़ दिए जाते थे, यज्ञ रोक दिए जाते थे, ईश्वर की आराधना करने वालों को दण्ड दिया जाता था।
सामान्य जन के जीवन के क्षण-क्षण पर आतंकियों का अधिकार था। उग्रसेन या वसुदेव जैसे प्रजा के धर्मनिष्ठ नायक आतंकियों की कैद में पड़े थे। बेड़ियां केवल धर्मिक जन के हाथों में ही नहीं लगीं थीं, अब जैसे समूची सभ्यता ही बेड़ियों में जकड़ गयी थी।
ऐसा केवल कुछ दिनों से ही नहीं हो रहा था, ऐसा सैकड़ों-हजारों वर्षों से हो रहा था। प्रजा त्राहि त्राहि कर उठी थी। धर्म के उत्थान का कोई मार्ग नहीं सूझ रहा था। अधिकांश जन अब मान चुके थे कि सभ्यता मर जाएगी, धर्म समाप्त हो जाएगा। वे बस किसी तरह अपना जीवन काट लेना चाहते थे। उनका कोई दोष नहीं था, लम्बे समय की पीड़ा मनुष्य की देह ही नहीं तोड़ती, उसके विश्वास को भी तोड़ देती है।
और एक रात! मध्यरात्रि में एकाएक सारे पक्षी चहचहा उठे। गौवें रम्भाने लगीं, बछड़े उछलने कूदने लगे, नदियों का वेग सौगुना हो गया, अधर्म की आंखों पर निद्रा छा गयी, सारी जंजीरें टूट गईं, किंवाड़ स्वतः खुल गए, और नकारात्मकता से भरे उस क्रूर कालखंड की उस काली अंधेरी रात में, बंदीगृह के सीलन भरे भयावह कमरे में, उस चिर दुखिया स्त्री की गोद में सम्पूर्ण ब्रम्हांड का तेज एकत्र हो कर बालक रूप में प्रकट हुआ।
सारी हवाएं उस बालक के चरण छू लेने को व्यग्र हो गयी थीं। उस बालक के ऊपर बरस कर उसका अभिषेक करने को आतुर मेघों के आपसी टकराव से उत्पन्न विद्युत की गरज में जैसे प्रकृति का उद्घोष था, कि धर्म कभी समाप्त नहीं होता। जब जब अधर्म चरम पर पहुँचता है, ईश्वर तभी आते हैं। परित्राणाय साधूनाम्… साधुओं के त्राण के लिए! विनाशाय च दुष्कृताम… दुष्टों के विनाश के लिए! धर्मसंस्थापनार्थाय… धर्म की स्थापना के लिए… वे आ गए थे। वे ऐसे ही आते हैं।

“प्रेम प्रेम प्रेम! इस संसार मे प्रेम के अतिरिक्त भी कुछ भाव हैं राधिका………………………

“प्रेम प्रेम प्रेम! इस संसार मे प्रेम के अतिरिक्त भी कुछ भाव हैं राधिका, प्रेम ही सबकुछ नहीं! समाज यदि ज्ञान की असभ्य परिभाषाएं रट गया तो सभ्यता मर जाएगी। तनिक ईश्वर का स्मरण भी कर लो, तनिक ज्ञान की चर्चा भी कर लो…” उद्धव अब झल्ला गए थे।
राधिका मुस्कुराईं। कहा, “जब संसार कंस के अत्याचारों से दब कर उसे ही भगवान मानने को विवश हो गया था, तब हमने उस नन्हे से बालक में अपने ईश्वर को देखा था उद्धव जी! हमने उस महाबलशाली दैत्य के समक्ष एक बालक पर भरोसा किया। और देखो, कंस हमें छू भी नहीं सका। कैसे न करें प्रेम उस साँवले से बाबा, कैसे न करें प्रेम…?
“एक बात बताओ राधिके! कंस जैसे आतताई के युग में, जब सभ्यता पर ग्रहण लगा हुआ था, तब पूरे गाँव का किसी व्यक्ति के प्रेम में पागल हो जाना कहाँ तक सही था? क्या समाज का धर्म नहीं था कि सब प्रतिकार की बात करते? क्रांति के युग में प्रेम क्या भ्रांति नहीं है?” उद्धव की खीज समाप्त नहीं हो रही थी।
“हमारा प्रेम ही हमारा प्रतिरोध है बाबा! किसी आततायी के युग मे प्रेमी बन कर जीना किसी क्रांति से कम नहीं होता। जब वह भय बांट रहा था, तब हमने होली का उत्साह चुना। जब वह बकासुर और कालिया नाग के माध्यम से मृत्यु बांट रहा था, तब हमने आनन्द के खेल रचे। हमारा भयभीत न होना उसके आतंक के मुँह पर थप्पड़ था। हमारा प्रेम ही हमारी विजय का प्रमाण था उद्धव बाबा, वह हारा और हम जीते… कन्हैया हमारी इस विजय का नायक था। ” राधिका के स्वरों में गर्व का भाव था। यूँ भी, गर्व करने के लिए कृष्ण के प्रेम का पात्र होने से अधिक महत्वपूर्ण क्या ही होगा…
“पर क्या प्रेम ही सबकुछ है राधिका? उसके अतिरिक्त और कुछ आवश्यक नहीं?” उद्धव भी अडिग थे।
“उनके प्रेम के बिना मेरा तो जीवन ही निष्प्राण है बाबा! वे मेरी नासिकाओं में बहती प्राणवायु हैं उनसे बढ़कर मेरे लिए कोई तीर्थ नहीं! संसार के लिए जीवन में प्रेम के अतिरिक्त भी बहुत कुछ होता होगा, पर मेरे लिए नहीं। मेरे लिए प्रेम ही प्रस्थान बिंदु है और प्रेम ही गंतव्य! मैं उसके अतिरिक्त और कुछ सोच भी नहीं सकती।” राधिका दृढ़ थीं।
“अच्छा चलो मान लिया! पर अब?” उद्धव फिर बोले, “मन तो जहाँ तहाँ अटक जाता है राधिके, पर जीवन का अंतिम लक्ष्य तो उस परमपिता की आराधना कर उसे पा लेना ही है, और तुम अपने इस चंचल मन को बिना जाग्रत किए यह कभी नहीं कर पाओगी।”
“निरर्थक प्रयास कर रहे हो बाबा! काश, कि मन दस-बीस हुए होते! एक था, जो वह बालक ले गया। अब इस जन्म में वह कहीं और न लग सकेगा… मन में वह इस तरह बसा हुआ है कि अब ईश्वर के लिए भी स्थान नहीं बचा! मन में कुछ और बसाने के लिए दूसरा जन्म लेना होगा, और उसके लिए पहले मरना होगा। मरना तो है ही, अब मरने के लिए ही जी भी रहे हैं। यदि वह ईश्वर है तो मर कर उसी के लोक में जायेगें, और कहेंगे कि अगले जन्म में छोड़ देना माधो। मिलना तो पूरा मिलना, अन्यथा न मिलना… तब शायद आपका ज्ञान सीख सकें हम! पर अभी तो कोई संभावना नहीं देवता!” राधिका के मुखड़े पर एक बार फिर उदासी पसर आयी थी।
उद्धव झल्ला उठे। कहा, “मैं कल तुमसे फिर मिलूंगा राधिके! अभी चलता हूँ। पर स्मरण रहे, वह प्रेम के नहीं भक्ति के योग्य है। तुम्हारा प्रेमी कन्हैया वास्तव में जगतपिता कन्हैया है।”
राधिका ने मन ही मन कहा, “प्रेम यदि ईश्वर से जुड़ जाय तो आध्यात्म हो जाता है बाबा! पर तुम नहीं समझोगे… जाओ!”
उस कालकोठरी तक कभी सूर्य का प्रकाश नहीं पहुँचा था। बंदीगृह की सुरक्षा में लगे प्रहरियों की काया इतनी भयावह थी, कि निर्बल जन उन्हें देख कर ही प्राण त्याग दें। जाने किस दैत्यलोक के निवासी थे वे, कि अपने समय के श्रेष्ठ और बलशाली योद्धाओं में गिने जाने वाले वसुदेव भी उनका सामना करना नहीं चाहते थे।
और एक दिन अनायास ही पश्चिम की बर्बर भूमि में जन्में कंस के वे क्रूर दास मुस्कुरा उठे। कभी न हँसने वाले वे क्रूर योद्धा स्वयं नहीं समझ पा रहे थे कि उन्हें क्या हो गया है। बार बार जा कर उस दुखी स्त्री से कहते, “कोई आवश्यकता हो तो हमें आदेश करना माँ! हम आपकी सेवा के लिए ही नियुक्त हैं।” वह भाद्रपद मास का पहला दिन था।
होना तो यह था कि देवकी उन क्रूर प्रहरियों के बदले व्यवहार से आश्चर्यचकित हो जातीं, भयभीत हो जातीं, पर जाने कैसे अब उनके अधरों पर भी मुस्कान पसरी रहती थी। उन्हें न अब प्रहरियों से शस्त्रों से भय होता था, न कंस के स्मरण से ही। अब तक यही होता आया था कि बच्चे के जन्म का समय निकट आते ही वे भय से काँपने लगती थीं। उन्हें सदैव स्मरण रहता था कि गर्भ से बाहर आते ही बच्चे को मृत्यु के हाथों में सौंप देना होगा, पर इस बार जाने क्यों इस बात की ओर ध्यान ही नहीं जाता था।
देवकी का यह आठवां गर्भ था, पर प्रसव का दिन निकट आने पर एक सामान्य स्त्री जिस सुख का अनुभव करती है उस सुख का अनुभव उन्हें प्रथम बार हो रहा था।
एक लंबे कालखंड से स्वयं को ईश्वर मान कर घमण्ड से भरे राजा कंस के कक्ष में बेचैनी भर गई थी। जिस डर के कारण उसने छह नवजात शिशुओं की हत्या की थी, वह डर अब चरम पर था। उसका हृदय चीख चीख कर कहता था कि “देवकी के आठवें बच्चे को तुम नहीं मार सकते कंस। तुम्हारा वध उसी के हाथों होना है…”
पापी मनुष्य अपने हृदय की भी नहीं सुनता। यदि सुनता, तो उससे उतने पाप नहीं होते। देवकी के पहले बच्चे की हत्या इस बात का प्रमाण थी कि कंस को आकाशवाणी पर पूर्ण विश्वास था। अब यदि उसे आकाशवाणी की सत्यता पर पूर्ण भरोसा था, फिर उसे असत्य करने के निरर्थक प्रयासों की क्या आवश्यकता थी? मनुष्य का घमण्ड उससे ऐसे ही मूर्खतापूर्ण कार्य कराता रहता है।
लम्बे समय से देवकी वसुदेव के मन में भरा हुआ डर अब स्थान बदल कर कंस के हृदय में स्थापित हो गया था। माता जानती थीं, बेटा यदि युगपुरुष है तो अपनी राह स्वयं बना लेगा। उन्हें यह भरोसा हो चला था, कि वह जब आएगा तब सब कुछ स्वयं ठीक हो जाएगा। धरती से आकाश तक सभी उसके आगे नतमस्तक होंगे। हवाएं उसकी राह बुहारेंगी, मेघ धरा को स्वच्छ करेंगे, पक्षी उसके स्वागत में गीत गाएंगे, सृष्टि का कण कण झूम उठेगा और सबकुछ यूँ ही हो जाएगा। महानायक के जन्म के पूर्व उसके माता के हृदय में इस भरोसे का जन्म तो होना ही था न!
भाद्रपद मास, जिसकी भयानक बरसात सदैव गृहस्थों को भयभीत करती रही है, वह उस चिर उदास दम्पत्ति के हृदय में शांति ले कर आया था। जंजीरों में बंधे उन दोनों बंदियों ने मान लिया था, वह आ रहा है….
नंद बाबा चुपचाप रथ पर कान्हा के वस्त्राभूषणों की गठरी रख रहे थे। दूर ओसारे में मूर्ति की तरह शीश झुका कर खड़ी यशोदा को देख कर कहा, “दुखी क्यों हो यशोदा, दूसरे की बस्तु पर अपना क्या अधिकार!”
यशोदा ने शीश उठा कर देखा नंद बाबा की ओर, उनकी आंखों में जल भर आया था। नंद निकट चले आये। यशोदा ने भारी स्वर से कहा,” तो क्या कान्हा पर हमारा कोई अधिकार नहीं! नौ वर्षों तक हम असत्य से ही लिपट कर जीते रहे?”
नंद ने कहा- अधिकार क्यों नहीं। कन्हैया कहीं भी रहे, पर रहेगा तो हमारा ही लल्ला न! पर उसपर हमसे ज्यादा देवकी वसुदेव का अधिकार है, और उन्हें अभी कन्हैया की आवश्यकता भी है।”
यशोदा ने फिर कहा, “तो क्या मेरे ममत्व का कोई मोल नहीं?”
नंद बाबा ने थके हुए स्वर में कहा, “ममत्व का तो सचमुच कोई मोल नहीं होता यशोदा। पर देखो तो, कान्हा ने इन नौ वर्षों में हमें क्या नहीं दिया है। उम्र के उत्तरार्ध में जब हमने संतान की आशा छोड़ दी थी, तब वह हमारे आंगन में आया। तुम्हें नहीं लगता कि इन नौ वर्षों में हमने जैसा सुखी जीवन जिया है, वैसा कभी नहीं जी सके थे। दूसरे की वस्तु से और कितनी आशा करती हो यशोदा, एक न एक दिन तो वह अपनी बस्तु मांगेगा ही न! कान्हा को जाने दो यशोदा।”
यशोदा से अब खड़ा नहीं हुआ जा रहा था, वे वहीं धरती पर बैठ गयी, कहा- आप मुझसे क्या त्यागने के लिए कह रहे हैं, यह आप नहीं समझ रहे।
नंद बाबा की आंखे भी भीग गयी थीं। उन्होंने हारे हुए स्वर में कहा- तुम देवकी को क्या दे रही हो यह मुझसे अधिक कौन समझ सकता है यशोदा! आने वाले असंख्य युगों में किसी के पास तुम्हारे जैसा दूसरा उदाहरण नहीं होगा। यह जगत सदैव तुम्हारे त्याग के आगे नतमस्तक रहेगा।
यशोदा आँचल से मुह ढांप कर घर मे जानें लगीं तो नंद बाबा ने कहा- अब कन्हैया को भेज दो यशोदा, देर हो रही है।”
यशोदा ने आँचल को मुह पर और तेजी से दबा लिया, और अस्पस्ट स्वर में कहा, “एक बार उसे खिला तो लेने दीजिये, अब तो जा रहा है। कौन जाने फिर…” नंद चुप हो गए।
यशोदा माखन की पूरी मटकी ले कर ही बैठी थीं, और भावावेश में कन्हैया की ओर एकटक देखते हुए उसी से निकाल निकाल कर खिला रही थीं। कन्हैया ने कहा- एक बात पूछूं मइया!
यशोदा ने जैसे आवेश में ही कहा- पूछो लल्ला।
-तुम तो रोज मुझे माखन खाने पर डांटती थी मइया, फिर आज अपने ही हाथों क्यों खिला रही हो!
यशोदा ने उत्तर देना चाहा पर मुह से स्वर न फुट सके। वह चुपचाप खिलाती रहीं। कान्हा ने पूछा- क्या सोच रही हो मइया? यशोदा ने अपने अश्रुओं को रोक कर कहा, “सोच रही हूँ कि तुम चले जाओगे तो मेरी गैया कौन चरायेगा। कान्हा ने कहा- तनिक मेरी सोचो मइया, वहां मुझे इस तरह माखन कौन खिलायेगा? मुझसे तो माखन छिन ही जाएगा मइया।
यशोदा ने कान्हा को चूम कर कहा- नहीं लल्ला, वहां तुम्हे देवकी रोज माखन खिलाएगी।
कन्हैया ने फिर कहा- पर तुम्हारी तरह प्रेम कौन करेगा मइया?
अबकी यशोदा कृष्ण को स्वयं से लिपटा कर फफक पड़ी। मन ही मन कहा- यशोदा की तरह प्रेम तो सचमुच कोई नहीं कर सकेगा लल्ला, पर शायद इस प्रेम की आयु इतनी ही थी।
कृष्ण को रथ पर बैठा कर अक्रूर के संग नंद बाबा चले तो यशोदा ने कहा- तनिक सुनिए न, आपसे देवकी तो मिलेगी न? उससे कह दीजियेगा, लल्ला तनिक नटखट है, पर कभी मारेगी नहीं।
नंद बाबा ने मुँह घुमा लिया। यशोदा ने फिर कहा- कहियेगा कि मैंने लल्ला को कभी दूभ से भी नहीं छुआ, हमेशा हृदय से ही लगा कर रखा है।
नंद बाबा ने रथ को हांक दिया। यशोदा ने पीछे से कहा- कह दीजियेगा कि लल्ला को माखन प्रिय है, उसको ताजा माखन खिलाती रहेगी। बासी माखन में कीड़े पड़ जाते हैं।
नंद बाबा की आंखे फिर भर रही थीं, उन्होंने घोड़े को तेज किया। यशोदा ने तनिक तेज स्वर में फिर कहा- कहियेगा कि बड़े कौर उसके गले मे अटक जाते हैं, उसे छोटे छोटे कौर ही खिलाएगी। नंद बाबा ने घोड़े को जोर से हांक लगाई, रथ धूल उड़ाते हुए बढ़ चला।
यशोदा वहीं जमीन पर बैठ गयी और फफक कर कहा- कृष्ण से भी कहियेगा कि मुझे स्मरण रखेगा।
उधर रथ में बैठे कृष्ण ने मन ही मन कहा- तुम्हें यह जगत सदैव स्मरण रखेगा मइया। तुम्हारे बाद मेरे जीवन मे जीवन बचता कहाँ है ? लीलायें तो ब्रज में ही छूट जायेंगी…
रक्षाबन्धन पर्व के बीतने के साथ ही भादो मास शुरू होता है। भादो! वही भाद्रपद मास जिसमें कन्हैया आये थे। और वही कन्हैया, जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन सम्बन्धों की मर्यादा को निभाने में लगा दिया। जिन्होंने जीवन में मिले एक एक धागे का मूल्य चुकाया, और ऐसा चुकाया कि वे सृष्टि के अंत तक सर्वश्रेष्ठ उपमा, उदाहरण बने रहेंगे।
द्रौपदी ने उनकी कटी उंगली में अपना आँचल फाड़ कर बांधा था। फिर द्रौपदी का भाई बनकर उन्होंने जो मूल्य चुकाया वह कोई क्या ही चुकाएगा। कुरुक्षेत्र में द्रौपदी के अपराधियों पर धनुष उठाते समय उसके पति के हाथ अनेक बार काँपे, हृदय असँख्य बार डोला, आंखें कई बार भर आईं, पर वह भाई एक क्षण के लिए भी विचलित नहीं हुआ। उनके मुख पर एक शिकन तक नहीं आयी। वे अडिग खड़े रहे। तबतक, जबतक कि बहन के सारे अपराधी धराशायी न हो गए।
बाल्यकाल में उस दरिद्र ब्राह्मण किशोर से मित्रता का नाता हो गया था उनका! बचपन की मित्रता तो गुरुकुल में ही छूट गयी थी, पर उम्र के उत्तरार्ध में जब वह वृद्ध ब्राह्मण, मित्र को ढूंढता द्वारिका पहुँचा तो वह हुआ जो संसार में कभी न हुआ था। सिंहासन से उतर कर नङ्गे पांव द्वारिका की गलियों में दौड़ते संसार के सबसे प्रभावशाली व्यक्ति की विह्वलता देख कर सब बोल उठे- मित्र हो तो कृष्ण सा! मित्रता हो तो कृष्ण सुदामा सी!
नरकासुर की कैद से जब उन सोलह हजार कन्याओं को छुड़ाया गया, तो उनके सामने जीवन और प्रतिष्ठा की चुनौती थी। कहाँ जातीं? कौन स्वीकार करता उन्हें? कहाँ आश्रय मिलता उन्हें? तब परिस्थियों से पराजित उन निरीह स्त्रियों ने एक असम्भव सी याचना की, “तुम्हारे अतिरिक्त और कौन है जो हमारी सुनेगा माधव? कहाँ जाएं? किस परिचय के साथ जियें? कौन वरण करेगा हमारा? तुम बरोगे कान्हा?”
वे माधव थे। एक पल में कहा, “जिसका कोई नहीं उसका मैं हूँ। तुम कृष्ण की प्रतिष्ठा लेकर जियो! कृष्ण की पत्नी बन कर जियो! वैभवशाली द्वारिका की रानी बन कर जियो।” कृष्ण के अतिरिक्त कोई अन्य कर पाता ऐसा? नहीं।
महाभारत युद्ध में सौ पुत्रों को खोने से विचलित हुई उस दुखी स्त्री ने क्षणिक आवेश में कृष्ण को शाप दे दिया, “तेरे वंश का नाश हो जाय!” श्रीकृष्ण ने उसे भी कहा, तथास्तु! समस्त जगत का मान रखने वाले उस महायोद्धा ने उस दुखी स्त्री के शाप का भी मान रखा, और एक दिन अपने भाई के साथ मिल कर अपने ही हाथों अपने वंश का अंत कर दिया। और मन ही मन कहा, “लो बुआ! मान ली तेरी बात।”
आप कहेंगे, उनके लिए तो लिखा ही नहीं जिन्होंने श्रीकृष्ण को सर्वाधिक प्रेम किया पर कृष्ण उनके हो न सके। तो दोस्त! श्रीकृष्ण जितने उनके हुए, उतने तो किसी के न हो सके… आज पाँच हजार वर्ष बाद भी आपके गाँव के मंदिर में उन्ही के साथ विराजते हैं न?
भाद्रपद प्रारम्भ हो चुका। वे आ रहे हैं। प्रतीक्षा कीजिये उद्धारक का! जय जय श्रीकृष्ण!