देश के एक उद्योगपति के घर शादी थी. और उसके घर पहुंचने वालों में भारत के प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी, गृहमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी , राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ही नहीं विपक्ष के सभी नेता, पूरा बॉलीवुड , क्रिकेट सितारे, उद्योग जगह के महारथी सभी पहुंचते हैं. प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव और बॉलीवुड के शहंशाह अमिताभ बच्चन हर आने जाने वालों की अगवानी के लिए उद्योगपति के दरवाजे पर हाथ जोड़े खड़े थे. बाल ठाकरे , जयललिता और दयोल फैमिली जो किसी की पार्टी में न जाने के लिए मशहूर थे वह भी यहां आने से अपने को रोक नहीं सके थे .
ऐसा आयोजन देश में केवल एक बार हुआ था शायद दुबारा कोई कर भी न सके. जी हां यह करिश्मा कर दिखाया था सुब्रत रॉय सहारा ने. पर इस पार्टी की एक खास बात और थी. इस अतुलनीय पार्टी में देश का एक महत्वपूर्ण राजनीतिक शख्सियत नहीं पहुंचा था जिसे लाने की कोशिश हुई थी या नहीं ये बहस का विषय हो सकता है. पर इतना तय है कि इस शख्स का न आना ही सहारा समूह की बरबादी की तारीख लिख गया.पर बचपन में सुनी स्लिपिंग ब्यूटी कहानी में परियों ने मिलकर जिस तरह राजकुमारी के शॉप को कम कर दिया था शायद सहारा ग्रुप की कंपनी की बरबादी की दास्तां को कम करने वाला कोई जादुगर नहीं मिला.
आप सुब्रत रॉय को समाजवादी अर्थतंत्र की भ्रष्ट व्यवस्था की देन कह सकते हैं, आप उन्हें आम जनता के पैसे के लुटेरे के रूप में देख सकते हैं, आप उन्हें खेलों के लिए रुपया लुटाने वाले शख्स के रूप में देख सकते हैं. आप उनसे नफरत कर सकते हैं, आप उनसे प्यार कर सकते हैं पर आप उन्हें पिछली सदी में आंठवीं और नौवीं और दसवें दशक की बात करते हुए इग्नोर नहीं कर सकते.
बात उन दिनों की है जब जब देश में आर्थिक उदारीकरण की हवा नहीं चली थी. उदारवाद की शुरुआत के पहले दो दशक जब सहारा ने जनता के बीच अपनी जड़े जमानी शुरू की थीं.तीन दशकों की स्वतंत्रता के बाद भी 5 परसेंट से भी कम लोगों के पास बैंक का एकाउंट होता था. समाजवादी अर्थतंत्र की कानूनी विसंगतियों का फायदा उठाकर सहारा चिट फंड ने जनता से एक रुपये से लेकर सैंकड़ों रुपये तक इकट्ठा करना शुरू किया. साइकिल रिक्शा वाले से लेकर गांव कस्बों में स्थित छोटे बड़े दुकानदारों से हर रोज उनकी कमाई का कुछ हिस्सा सहारा के एजेंट इकट्ठा करते. देश में उस दौर में न सरकारी नौकरियां थीं और न ही प्राइवेट नौकरियां थीं. सो बहुत सारे लोग इस तरह के धंधे में लग गए.
सहारा ने शुरूआती दौर में अपने निवेशकर्ताओं को खूब फायदा दिया. सहारा को देखकर ढेर सारी चिट फंड कंपनियां बाजार में आ गई. एक समय ऐसा था कि हर 20 हजार की जनसंख्या वाले कस्बे में भी कम से कम 20 चिट फंड कंपनिया एक्टिव थीं. अपने दिमाग पर जोर डालिए, हाउसिंग, प्लांटेशन आदि के नाम से कितनी चिट फंड कंपनियां उग आईं थीं. एक बात और यह है कि हर शख्स यह जानता था कि ये कंपनियां पब्लिक को बेवकूफ बना रही हैं. पर इन्हें रोकने वाला कोई नहीं था.
समाजवादी दौर की सरकारों में बैठे नेता और अफसर मोटी मलाई खाते रहे इन कंपनियों से और ये जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा लूटती रहीं. ये सभी को पता था एक दिन ये कंपनियां बरबाद हो जाएंगी या ये एक दिन जनता का पैसा लेकर फरार हो जाएंगी. हुआ भी यही सहारा ग्रुप को छोड़कर सभी एक न दिन फरार हो गई.सुब्रत रॉय की कंपनी बुरे दौर में भी उसी मजबूती के साथ खड़ी रही जिस तरह शुरूआती दिनों में. कारण रहा कि सहारा ने अपना पैसा, रियल एस्टेट, एविएशन , हॉस्पिटलिटी, एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री आदि में लगाया था. हालांकि सहारा समूह का कोई बिजनेस परवान नहीं चढ़ा पर सहारा ने अपनी इमेज इस तरह बना ली थी कि जनता सहारा में निवेश करती रही.
पत्रकार दीपक शर्मा अपने सोशल मीडिया एकाउंड एक्स पर लिखते हैं कि यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह और मुलायम सिंह यादव ने रॉय साहब की शुरूआती मदद की. वाजपेयी को चुनाव में हराने की कोशिश के बावजूद सुब्रत राय के भाजपाइयों से गहरे रिश्ते थे. वो नब्बे के दशक के अडानी थे. यहां तक कि धीरूभाई अंबानी के उत्थान में भी उनका योगदान था.राय साहब का काम चिट फंड का था लेकिन दिल बहुत बड़ा था. खासकर नेताओं को चंदा देने में उन जैसा न कोई हुआ और न होगा, कारण जो भी हों पर सोनिया और राहुल गांधी से उनकी कभी नहीं बनी और मनमोहन सिंह के दौर में सेबी ने सुब्रत राय की फाइल खोल दी और शायद उसके बाद से ही उनका सूरज जो डूबा तो डूबता चला गया.
जिस तरह की कानूनी खामियों का सहारा लेकर सहारा ने इतना बड़ा साम्राज्य खड़ा किया था. कुछ उसी तरह की दूसरी कानूनी खामियों ने समूह को इस तरह कानूनी झमेले में फंसाया कि उससे बाहर निकलना मुश्किल हो गया.जिस तरह की सख्ती सेबी ने सहारा ग्रुप के साथ की उसी तरह की सख्ती देश के राष्ट्रीयकृत बैंकों के साथ कर दिया जाए तो वो भी बरबाद हो जाएंगे.देश के सभी राष्ट्रीयकृत बैंकों में हजारों करोड़ रुपये आम जनता के फंसे हुए हैं. जो न कभी कोई मांगने आता है और न ही इन बैंकों ने कभी उन परिवार वालों के पास पहुंचाने की कोशिश ही की है. उसी तरह सहारा ग्रुप में हजारों करोड़ रुपयों का हिसाब नहीं है. सेबी ने ग्रुप से 24 हजार करोड़ वसूल कर अपने पास तो रख लिए पर आम निवेशकों को हिस्से आठ सालों में आया मात्र कुछ करोड़. यह भ्रष्ट तंत्र की देन है कि जिसके पीछे सरकार पड़ती है उसी का राजफाश होता है.
सहारा ग्रुप भी यह लगातार यह कहता रहा कि उसने पहले ही 95 प्रतिशत से अधिक निवेशकों को प्रत्यक्ष रूप से भुगतान कर दिया है. सेबी ने सहारा समूह की दो कंपनियों के निवेशकों को 11 वर्षों में 138.07 करोड़ रुपये वापस किए. इस बीच पुनर्भुगतान के लिए विशेष रूप से खोले गए बैंक खातों में जमा राशि बढ़कर 25,000 करोड़ रुपये से अधिक हो चुकी है.सेबी शायद यह समझ नहीं पा रही है या कानून की खामियों का शिकार खुद सेबी भी हो गई है.