अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर सुप्रीम कोर्ट में सवाल खड़े हुए हैं। केंद्र ने कहा है कि एएमयू कभी अल्पसंख्यक संस्थान नहीं हो सकता क्योंकि ये किसी विशेष मजहब या मजहबी संप्रदाय का विश्वविद्यालय नहीं है। इसे राष्ट्रीय महत्व वाला संस्थान घोषित किया गया है। वहीं एएमयू का कहना है कि सिर्फ इसलिए कि संस्थान में सरकार की दखल है इसके कारण यूनिवर्सिटी का अल्पसंख्यक दर्ज नहीं छीना जा सकता।
केंद्र ने उठाया मुद्दा
केंद्र की ओर से इस मामले में एएमयू सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दायर अपनी लिखित दलील में कहा कि विश्वविद्यालय हमेशा से राष्ट्रीय महत्व का संस्थान रहा है, यहाँ तक कि आजादी के पहले से भी। यूनिवर्सिटी की स्थापना 1875 में हुई थी।
केंद्र ने कहा कि जिस संस्थान को राष्ट्रीय महत्व मिला है वो गैर अल्पसंख्यक ही होना चाहिए। केंद्र ने बताया कि राष्ट्रीय महत्व वाला संस्थान होने के बावजूद भी अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के एडमिशन प्रोसिजर अलग हैं।
सुप्रीम कोर्ट का सवाल
केंद्र की दलील सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यों वाली पीठ ने यूनिवर्सिटी से पूछा है जब विश्वविद्यालय के 180 सदस्यों में 37 ही मुस्लिम हैं तो फिर ये संस्थान अल्पसंख्यक संस्थान कैसे हुआ। मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस जे बी पारदीवाला, जस्टिस दीपांकर दत्ता, जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस सतीश शर्मा ने विश्वविद्यालय से कहा कि वह अब यूनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक दर्जा क्यों दिया जाए इस बात को साबित करें।
विश्वविद्यालय की ओर से इस मामले की पैरवी राजीव धवन ने की। उन्होंने कहा कि संविधान के आर्टिकल 30 (1) के तहत, सभी धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यक समुदायों को अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और प्रशासित करने का अधिकार है। उन्होंने यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक दर्ज को बनाए रखने के लिए दलील दी कि 1875 में मुहम्मदम एंगो-ओरिएंटल कॉलेज ने स्थापना की थी, जो 1920 में एएमयू बन गया।
सीजेआई ने इस दौरान सवाल किया कि क्या प्रशासन के 180 सदस्यों में से 37 के मुस्लिम होने से ये दावा कमजोर नहीं होता। इसपर धवन ने कहा कि संस्थान को अल्पसंख्यक दर्जा दिलाए रखने के लिए बिलकुल जरूरी नहीं है कि सौ फीसद स्टाफ समुदाय द्वारा ही नियंत्रित किया जाए।
धवन ने दलील दी कि स्थापना के बाद से इस यूनिवर्सिटी के सारे वीसी मुस्लिम रहे। इसलिए इसे अल्पसंख्यक द्वारा प्रशासित संस्थान कहा जाएगा। यहाँ बताया गया कि एएमयू की अन्य खासियतें भी इस्लाम से जुड़ी है। ऐसे में सिर्फ इसलिए कि मैनेजमेंट में सरकार का दखल है, इसके अल्पसंख्यक चरित्र को खारिज नहीं किया जा सकता। इस संस्थान को मुस्लिमों के उत्थान के लिए स्थापित किया गया था।
दलितों से बद्तर हैं मुस्लिमों की हालत
वहीं कपिल सिब्बल ने इस मामले पर दलील देते हुए कहा, “मैं ये बताना चाहता हूँ कि शिक्षा के मामले में मुसलमान अनुसूचित जातियों (SC) से भी नीचे हैं। ये तथ्य हैं। हमें पर्याप्त रूप से सशक्त नहीं बनाया गया है और खुद को सशक्त बनाने का एकमात्र तरीका शिक्षा का माध्यम है और अधिकांश लोकप्रिय पाठ्यक्रमों में अल्पसंख्यक बहुत कम हैं और केवल बहुसंख्यक हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि उन्हें सशक्त नहीं बनाया गया है।”
गौरतलब है कि एनडीए सरकार ने साल 2016 में ये मुद्दा सुप्रीम कोर्ट में उठाया था कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी कोई अल्पसंख्याक संस्थान नहीं है। उन्होंने एस अजीज बाशा केस में कोर्ट के 1967 के फैसले को आधार बनाकर ये दावा किया, जहाँ इस यूनिवर्सिटी को केंद्रीय यूनिवर्सिटी माना गया था। सरकार ने कहा था कि ये केंद्रीय यूनिवर्सिटी है क्योंकि इसे फंड सरकार से मिलता है। इसके बाद इस मामले पर 7 जजों की पीठ ने सुनवाई की जिसकी अध्यक्षता चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने की।