वैसे तो ये बात ठीक नहीं पर चाहे-अनचाहे भारत में लोकतंत्र का मतलब बहुत हद तक चुनाव और उससे तय होने वाला जीत-हार हो गया है जबकि लोकतंत्र इससे परे काफी कुछ है. आप पूछेंगे – क्या है वो काफी कुछ, जवाब है – फिर कभी. आज बात ये कि जो चुनाव लोकतंत्र को परिभाषित कर रहा है, उसको कराने वाला आयोग, उसके आयुक्तों की नियुक्ति कितनी पारदर्शी और स्वायत्त है? ऐसे ही कुछ सवालों को लेकर सुप्रीम कोर्ट में आज सुनवाई होनी है.
संविधान का अनुच्छेद 324 चुनाव आयोग की मौजूदगी और उसकी स्वायत्तता की बात करता है पर विपक्ष और चुनावी पारदर्शिता को लेकर काम करने वाले कुछ संस्थान इन दिनों चुनाव आयोग के बारे में कुछ भी कहने से पहले एक चुटकी नमक लेने की बात कह रहे. खासकर, विवादित सीईसी कानून लागू होने के बाद जिसके तहत दो चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति गुरूवार, 14 मार्च को हो गई.
EC की नियुक्ति में क्या हुआ बदलाव?
गुरूवार को दो चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति सरकार को इसलिए करनी पड़ी क्योंकि पिछले महीने एक चुनाव आयुक्त (अनूप चंद्र पांडेय) रिटायर हो गए और इस महीने दूसरे चुनाव चुनाव आयुक्त (अरुण गोयल) ने अपना कार्यकाल पूरा होने से बहुत पहले औचक इस्तीफा दे दिया. नतीजा ये हुआ कि तीन आयुक्तों में केवल राजीव कुमार बतौर मुख्य चुनाव आयुक्त, चुनाव आयोग में रह गए थे.
ऐसे में, भारत सरकार ने खाली पड़े आयुक्त के दो पदों पर ज्ञानेश कुमार और सुखबीर सिंह संधू की नियुक्ति की, नियुक्ति तो कर दी गई पर जिस प्रक्रिया के तहत ये नियुक्ति हुई, वह अगले ही दिन, आज (15 मार्च) को सुप्रीम कोर्ट में सुनी जानी है. चुनाव और राजनीतिक दलों की पारदर्शिता को लेकर काम करने वाली संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) और कांग्रेस नेता जया ठाकुर ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति वाले कानून को चुनौती दी है.
दरअसल पिछले साल अगस्त के महीने में मुख्य चुनाव आयुक्त और दूसरे चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए मोदी सरकार एक विधेयक सदन में लेकर लाई जिसने अब कानून की शक्ल ले ली है. इस कानून के अमल में आने के बाद चुनाव आयुक्त की नियुक्ति वाली प्रक्रिया से देश के चीफ जस्टिस को हटा दिया गया और उनकी जगह एक कैबिनेट मंत्री कमेटी में जगह दे दी गई. नए कानून ने सीईसी और ईसी की नियुक्ति, उनकी सर्विसेज से जुड़े शर्तों में जो बदलाव किया, उसके मुताबिक नियु्क्ति को दा चरण में रखा गया.
पहला – कानून मंत्री की अध्यक्षता में एक सर्च कमिटी का गठन होगा जिसमें दो केंद्रीय सचिव शामिल होंगे और ये कमिटी पांच नाम शॉर्टलिस्ट कर सलेक्शन कमिटी को भेजेगी.
दूसरा – सलेक्शन कमिटी में प्रधानमंत्री के अलावा लोकसभा में विपक्ष के नेता और प्रधानमंत्री की ओर से नॉमिनेट किए गए एक केंद्रीय मंत्री होंगे. नए कानून में व्यवस्था यह भी की गई कि अगर लोकसभा में संख्या बल की कमी के कारण कोई पार्टी विपक्ष के नेता का पद नहीं हासिल कर पाई तो सदन की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नेता को लीडर ऑफ ऑपोजिशन मानते हुए पीएम की अगुवाई वाले पैनल में शामिल किया जाएगा.
सबसे दिलचस्प प्रावधान तो नए कानून में यह था कि जिन नामों को सर्च कमिटी ने शॉर्टलिस्ट नहीं किया है, प्रधानमंत्री की अगुवाई वाली पैनल चाहे तो वैसे नामों पर भी विचार कर सकती थी.
सुप्रीम कोर्ट क्यों पहुंचा मामला?
भारत सरकार के इस फैसले के बाद खूब विवाद हुआ. इसकी दो वजहें थी.
पहला – विपक्ष को नए कानून की ढ़ेर सारी बातों पर आपत्ति थी. जिनमें सबसे अहम ऐसे पैनल का गठन था जिसमें दो लोग सरकार ही से थे. लोकसभा में विपक्ष के नेता को पैनल में शामिल करने की बात को विपक्षी पार्टियों ने महज दिखावा और औपचारिकता कहा क्योंकि उसके पास फैसले को पर किसी भी तरह के असर डालने की ताकत नहीं थी.
दूसरा – इस कानून को सुप्रीम कोर्ट के पिछले साल के एक फैसले की अनदेखी कहा गया और कानून को सर्वोच्च अदालत के फैसले को पलटने से जोड़ कर देखा गया. 2023 के मार्च महीने में देश की सर्वोच्च अदालत ने फैसला सुनाया कि सीईसी और ईसी के चयन के लिए जो पैनल फैसला लेगी – उसमें प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता के अलावा देश के मुख्य न्यायधीश (सीजेआई) शामिल होंगे.
हालांकि अदालत ने साथ में ये भी नत्थी कर दिया कि कोर्ट का आदेश तब तक ही प्रभावी रहेगा जब तक संसद इस पर कोई कानून नहीं बना देती.
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से पहले तक सीईसी और ईसी की नियुक्ति भारत सरकार की सिफारिशों के आधार पर राष्ट्रपति की ओर से की जाती थी.
विपक्षी दलों ने नए कानून की खूब आलोचना की और कहा नए पैनल को जिस तरह की ताकत दे दी गई है, उससे सत्ताधारी पार्टी ऐसे सीईसी और ईसी का चयन करेगी जो उसको फायदा पहुंचाए. आखिरकार ये मामला इस साल 2 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट पहुंचा.
याचिकाकर्ताओं की मुख्य दलीलें
कांग्रेस नेता जया ठाकुर ने नियुक्ति की प्रक्रिया से सीजेआई को हटाने के खिलाफ अर्जी लगाई.जया ठाकुर ने अपनी याचिका में दलील दी थी कि कानून के प्रावधान स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के सिद्धांतों की अनदेखी करते हैं और ये कानून चुनाव आयोग के सदस्यों की नियुक्ति के लिए कोई इंडिपेंडेट मैकेनिज्म नहीं मुहैया कराता.
उनका तर्क था कि ये कानून ‘अनूप बरनवाल बनाम भारत सरकार और अन्य’ मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लंघन है, क्योंकि ये सलेक्शन प्रोसेस से भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) की नियुक्ति प्रक्रिया को ही बाहर कर देती है.
अदालत ने 12 जनवरी को कानून को चुनौती देने वाली याचिका पर भारत सरकार और चुनाव आयोग को नोटिस जारी किया लेकिन नए कानून पर अंतरिम रोक लगाने की दरख्वास्त को ठुकरा दिया.
एक महीने के बाद 13 फरवरी को ये देखते हुए कि चुनाव आयुक्त अनूप चंद्र पांडेय के कार्यकाल पूरा होने के बाद भारत सरकार इस कानून के जरिये नए आयुक्त की नियुक्ति करेगी. याचिकाकर्ताओं ने दोबारा से सुनवाई और कानून पर रोक लगाने की मांग की. पर इस दफा भी जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस दीपांकर दत्ता की बेंच ने नए कानून पर रोक लगाने से इनकार कर दिया.
हालांकि बेंच ने कानून को चुनौती देने वाली जनहित याचिका (पीआईएल) पर केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया. इस मामले को सुप्रीम कोर्ट ने अप्रैल तक के लिए स्थगित कर दिया. मगर जब याचिकाकर्ताओं ने यह देखा कि नए आयुक्त की नियुक्ति के लिए पीएम की अगुवाई वाली पैनल बैठने वाली है तो सुप्रीम कोर्ट से जल्द से जल्द सुनवाई की अर्जी लगाई गई. 13 मार्च को सुप्रीम कोर्ट सुनवाई के लिए तैयार हो गया और आज, 15 मार्च से यह मामला अदालत के सामने है.
एडीआर की ओर से पिछली सुनवाई में वकील प्रशांत भूषण पेश हुए थे. तब भूषण ने दलील थी कि चूंकि एक इलेक्शन कमिश्नर बहुत जल्द रिटायर हो रहे हैं और लोकसभा चुनाव भी नजदीक है, इस कानून पर रोक लगनी चाहिए क्योंकि अगर अभी ये रोक नहीं लगती तो फिर इस पूरे केस का ही कोई मतलब ही नहीं रह जाएगा.
हालांकि इस पर जस्टिस संजीव खन्ना की टिप्पणी थी कि हम इस तरह अंतरिम रोक जारी नहीं लगा सकते और संवैधानिक सवालों से जुडें मामले कभी निरर्थक नहीं हो जाते.
अब सुप्रीम कोर्ट जब आज से सुनवाई के लिए बैठ रहा है तो वह इस कानून को किस नजर देखता है, संवैधानिक नजरिये से कितना दुरुस्त पाता है. इस पर सबकी नजर रहेगी.