स्थिति में बदलाव के लिए लेने होंगे कडवे फैसले: जाने- माने अर्थशास्त्रियों की राय
डा. गिरीश
लोकसभा चुनावों के कोलाहल और सत्ता के शीर्ष पर बैठे महानुभावों के मुद्दाविहीन प्रलाप की आँधी में विश्व के जाने माने अर्थशास्त्रियों की वह रिपोर्ट पूरी तरह गुम हो कर रह गयी है, जो भारत के 25 करोड़ लोगों को गरीबी से उबारने के सत्ता- प्रतिष्ठान के दावों को तार- तार करती है।
यदि इस रिपोर्ट के जांच- परिणामों को एजेंडा बना दिया जाये तो शासक दल भाजपा और उसका डैमोगाग नेत्रत्व अपने राजनैतिक स्वार्थों के लिये मध्य और उच्च वर्ग को पुनः बरगलाएगा और उनमें उनकी संपत्तियों को छीने जाने का भय उत्पन्न करेगा। वह मंगल सूत्र जैसे भावनात्मक प्रतीकों को फिर से अपना औज़ार बनाने की भरसक कोशिश करेगा।
पहले हम रिपोर्ट के उस हिस्से पर चर्चा करते हैं जो सत्ता प्रतिष्ठान के गरीबी को समाप्त कर देने के दावों को सिरे से खारिज कर देती है। पेरिस स्कूल आफ इकोनॉमिक्स के अर्थशास्त्री थामस पिकैटी की टीम द्वारा 20 मार्च को जारी रिपोर्ट में कहा है कि 2000 के दशक की शुरूआत से भारत में असमानता आसमान छू रही है।
रिपोर्ट के अनुसार 2022- 23 में शीर्ष एक प्रतिशत आबादी की आय और संपत्ति हिस्सेदारी क्रमशः 22. 6 प्रतिशत और 40. 1 प्रतिशत तक बड़ी है। यह अपने उच्चतम ऐतिहासिक स्तर पर है। भारत की शीर्ष एक प्रतिशत लोगों की आय और हिस्सेदारी दुनियाँ में सबसे अधिक है। 2014- 15 और 2022- 23 के बीच शीर्ष स्तर की असमानता की यह वृद्धि विशेष रूप से धन जमाव के संदर्भ में स्पष्ट हुयी है।
रेखांकित किया जाना चाहिए कि यह कालखंड भारत में कथित विश्वगुरु की सत्ता का काल है।
अर्थशास्त्रियों की टीम ने यह भी नोटिस लिया है कि भारत में आय और धन असमानता पर हाल में जोरदार बहस हुयी है। लेख में कहा गया है कि भारत में लंबे समय से असमानता ऐतिहासिक ऊंचाई पर पहुँच गयी है और इन चरम असमानताओं और सामाजिक अन्याय के साथ उनके घनिष्ठ संबंध को अब इस समय नजरंदाज नहीं किया जा सकता है।
जिस किस्म की असमानता का खुलासा हुआ है, निश्चय ही वह सामाजिक तनाव और जनाक्रोश पनपने की ओर इशारा करती है। अतएव थॉमस पिकैटी और उनकी टीम की इस रिपोर्ट में अमीर गरीब की खाई कम करने के लिये अमीरों पर ज्यादा टैक्स लगाने की सलाह दी गयी है।
यह शोधपत्र खुले तौर पर कहता है कि भारत को 10 करोड़ से अधिक की शुध्द संपत्ति पर 2 प्रतिशत व इसी मूल्य की संपत्ति पर 33 प्रतिशत विरासत कर लगाना चाहिए।
पिकैटी और उनके सहयोगियों की टीम का यह शोधपत्र आगे कहता है कि अमीरों और गरीबों के बीछ में बड़े अंतर से निपटने और महत्वपूर्ण सामाजिक क्षेत्र में निवेश के लिये ज्यादा अमीरों पर टैक्स लगाना चाहिये। 99. 96 प्रतिशत बयस्कों को कर से अप्रभावित रखते हुये असाधारन रूप से बड़े कर राजस्व में वृद्धि की जानी चाहिये। अगर यह संभव होता है तो देश के सकल घरेलू उत्पाद ( जीडीपी ) के राजस्व में 2. 33 प्रतिशत का योगदान हो सकता है।
यह भी सुझाव दिया गया है कि कराधान प्रस्ताव के साथ गरीबों, निचली जातियों और मध्यम वर्ग को समर्थन देने के लिये धन के सुस्पष्ट पुनर्वितरण नीतियों की जरूरत है। आधारभूत परिस्थिति में शिक्षा पर वर्तमान सार्वजनिक खर्च को दो गुना करने की संभावना बनेगी। यह खर्च गत लगभग 15 वर्षों से जीडीपी के 2. 9 प्रतिशत पर अटका हुआ है, जो तय लक्ष्य 6 प्रतिशत से काफी कम है।
पिकैटी की यह रिपोर्ट नये विश्वविद्यालय, विद्यालय और मेडिकल कालेज खोलने के सत्ता प्रतिष्ठान के दावों को स्पष्टतः खारिज करती है। आबादी में अप्रत्याशित बढ़ोत्तरी के बावजूद शिक्षा पर व्यय वहीं पर अटका हुआ है और यह बड़े पैमाने पर युवाओं को देश के बाहर शिक्षा ग्रहण करने के लिये मजबूर करता है।
अतएव कराधान प्रस्ताव पर बड़े पैमाने पर बहस की जरूरत है, पिकैटी की रिपोर्ट ज़ोर देती है। इससे भारत में कर न्याय और धन के पुनर्वितरण पर व्यापक लोकतान्त्रिक बहस से उभरने वाले विवरण पर आम सहमति बनेगी।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि थामस पिकैटी कोई मार्क्सवादी अर्थशास्त्री नहीं जो आर्थिक शोषण को जड़ से उखाड़ने की बात करे। वे एक उदारवादी सुधारवादी हैं जो मौजूदा आर्थिक ढांचे को बरकरार रखते हुये धरातल के लोगों को राहत दिये जाने की बात करते हैं। लेकिन भारत की मौजूदा सरकार को इतना भी स्वीकार नहीं।
ये जानते हुये भी कि अभी समाजवाद की मंजिल हासिल करना तो दूर उस ओर बड़ना भी अति कठिन है, थामस पिकेटी की रिपोर्ट के जांच- परिणामों और संस्तुतियों को जनहित में लागू कराया जाना चाहिए।
यदि विपक्षी दलों की सरकार बनती है तो उसे इसे न्यूनतम साझा कार्यक्रम का हिस्सा बनाना चाहिए। और यदि किसी तरह पुनः यही सरकार दोहराई जाती है तो “धन और धरती बंट के रहेगी, भूखी जनता चुप न रहेगी” जैसे नारे को बुलंद करते हुये सड़कों पर उतरना होगा।