अधिकांश लोग इतिहास का हिस्सा होते हैं तो कुछ सहयोगी की भूमिका निभाते हैं। उनमें से अत्यल्प ही इतिहास का निर्माण करते हैं। कल्याण सिंह इतिहास बनाने वालों में से थे। निष्ठावान स्वयंसेवक, आदर्श कार्यकर्ता, कर्मठ नेता, समर्पित संगठनकर्ता, आदर्श मुख्यमंत्री और राज्यपाल के रूप में कल्याण सिंह ने जो सोचा, वह कहा और उसे कर दिखाया। राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन में उन्होंने हरावल का नायक होने की भूमिका को चरितार्थ कर दिखाया।
लिब्राहन आयोग ने उनसे पूछा कि 6 दिसम्बर, 1992 को गोली नहीं चलाने के आदेश क्या आपने दिए थे? उन्होंने कहा, हां। मैंने यह भी सदैव कहा है कि 6 दिसम्बर, 1992 को अयोध्या में हुई घटना की संपूर्ण जिम्मेदारी मैं अपने ऊपर लेता हूं। मैंने आदेश दिए थे कि कारसेवकों पर गोली नहीं चलानी है। यह कहने वाले कल्याण सिंह अयोध्या में बाबरी ढांचा ध्वस्त होने के समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। ढांचे ध्वस्त होने पर कल्याण सिंह ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। केन्द्र सरकार ने इस्तीफे को स्वीकार नहीं करते हुए उन्हें बर्खास्त कर दिया। वे उस समय देश के सबसे चर्चित नेता थे।
मंदिर के लिए सरकार की बलि
राम मंदिर के मुद्दे पर 1991 में उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी थी और कल्याण सिंह मुख्यमंत्री ही नहीं, बल्कि देश के एक कद्दावर नेता के रूप में उभरे थे। उन्होंने उत्तर प्रदेश को अपराध मुक्त बनाने के साथ यह प्रमुख वादा किया कि वे अतिशीघ्र राम जन्मभूमि क्षेत्र में खड़ी की गई अतिरिक्त बाधाओं को दूर करेंगे, जिनके कारण रामभक्तों को रामलला के दर्शन करने में कठिनाई हो रही है। इसलिए उनकी पहली कोशिश यह थी कि गैर विवादित भूमि रामजन्मभूमि न्यास को सौंप दी जाए। इसके अंतर्गत उन्होंने राम जन्मभूमि न्यास को 42 एकड़ भूमि शाश्वत पट्टे पर दी और 2.77 एकड़ भूमि का अधिग्रहण करवाया। दूसरी ओर, सत्तासीन होते ही केन्द्र्र सरकार ने कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त करने की चुनौती देनी शुरू कर दी। विवादित भूमि के समतलीकरण और राम जन्मभूमि न्यास को 42 एकड़ भूमि दिए जाने पर तत्कालीन गृह मंत्री शंकरराव चव्हाण ने रिपोर्ट मांगी।
कथनी-करनी में भेद नहीं का मंत्र
कल्याण सिंह पर दोहरी जिम्मेदारी थी। एक ओर, उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में केन्द्र सरकार और न्यायपालिका के आदेशों का पालन करते हुए ढांचे को बचाना था, दूसरी ओर, राष्ट्रीय स्वाभिमान और जनास्था का सम्मान भी करना था। सबसे पहले कल्याण सिंह ने उत्तर प्रदेश जैसे सबसे ज्यादा जनसंख्या वाले राज्य में कानून-व्यवस्था का शासन स्थापित किया। इससे माफिया और अपराधियों में भय व्याप्त हो गया और अपराध नियंत्रित हो गए। राज्य के 20 करोड़ लोगों को पहली बार महसूस हुआ कि कानून व्यवस्था नाम की भी कोई चीज होती है। तब तक आर्थिक विकास जैसे शब्द उत्तर प्रदेश में प्रचलित नहीं थे। कल्याण सिंह ने उत्तर प्रदेश को विकास के मार्ग पर प्रशस्त करके दिखाया। उन्हें एक ईमानदार, सिद्धांतवादी, स्वच्छ छवि वाला मुख्यमंत्री माना गया और इस रूप में उन्हें देशभर में लोकप्रियता मिली। उनकी प्रशासकीय क्षमता का मंत्र था— कथनी-करनी में भेद नहीं और इसे उन्होंने करके दिखाया।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में कल्याण सिंह को जंगलराज मिला था लेकिन वर्षभर में ही कानून का राज स्थापित हो गया। उन्होंने दंगाग्रस्त प्रदेश को दंगारहित प्रदेश बनाया। प्रदेश का वातावरण विषाक्त हो चला था लेकिन उस वर्ष सभी त्योहार शांति से संपन्न हुए। 30 वर्ष बाद पहली बार उत्तर प्रदेश में त्योहारों पर दंगे नहीं हुए। भयमुक्त समाज बनाने के लिए सरकार ने यह तय किया कि ‘गुनहगार को छोड़ो मत और बेगुनाह को छेड़ो मत।’ बड़े-बड़े माफियाओं को जेल में डाल दिया गया। कल्याण सरकार ने घोषणा संस्कृति की अपेक्षा कार्य संस्कृति को अपनाया। कल्याण सिंह सरकार से पहले उत्तर प्रदेश आतंकवाद का गढ़ बन गया था। आतंकवादियों द्वारा हत्या, लूट, अपहरण की घटनाएं इतनी बढ़ चुकी थीं कि शाम होते ही लोग अपने-अपने घरों में कैद हो जाते थे। रुद्र्रपुर, जो उत्तराखंड बनने से पहले उत्तर प्रदेश में था, 1991 में हुए 2 आईईडी धमाकों से दहल गया था। धमाकों में 40 लोग मारे गए थे और सैकड़ों घायल हुए। कल्याण सरकार ने आतंकवाद को रोकने के लिए उनकी भाषा में एकतरफा कार्रवाई यानी आतंकवादियों की ओर से वनवे ट्रैफिक बंद किया। आतंकी कोई कार्रवाई करते तो उन्हें पूरा जवाब मिलता। कई कुख्यात आतंकी मौत के घाट उतार दिए गए।
उसी दौरान एक साक्षात्कार में उनसे यह पूछने पर कि वे अपनी भूमिका से कितने संतुष्ट हैं, उन्होंने कहा, ‘मैं पूरे प्राणप्रण से जुटा हुआ हूं। पूरी प्रामाणिकता और नेकनीयती से काम कर रहा हूं और चाहता हूं कि इतने बड़े प्रदेश की जनता की अच्छी सेवा कर सकूं। एक किसान के घर से निकलकर अपने दामन को बेदाग रखते हुए यहां तक आ पाया हूं, यह बात मेरे ध्यान में है।’ उनकी आंखों में सदैव दो भाव रहे थे— गोबर थापकर घर चलाने वाली उनकी बूढ़ी मां के आंसू और स्वयंसेवक के रूप में राष्ट्र को परम वैभव पर पहुंचाने की प्रतिज्ञा।
दिसम्बर, 1992 के पहले सप्ताह की शुरुआत में ही अयोध्या कारसेवकों की छावनी में तब्दील हो गई। 3 दिसम्बर को गृह मंत्री शंकरराव चव्हाण ने लोकसभा में कहा कि किसी भी स्थिति से निबटने के लिए कार्ययोजना बना ली गई है। 4 दिसम्बर को मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह ने कहा, ‘केन्द्र सरकार अयोध्या की गतिविधियों पर नजर रखे हुए है तथा संविधान- न्यायालय की गरिमा को बरकरार रखने के लिए हर जरूरी कदम उठाने को तैयार है।’ लेकिन अयोध्या के हालात अलग थे। चारों तरफ कारसेवक ही कारसेवक थे। कोई राममंदिर निर्माण विरोधी व्यक्ति-संगठन जिला मुख्यालय फैजाबाद में भी निकलने की स्थिति में नहीं था। 6 दिसम्बर को ढांचे को ध्वस्त करने में सैकड़ों कारसेवक लगे थे। करीब पांच हजार कारसेवक उन्हें जोश दिला रहे थे और, लगभग दो लाख कारसेवक ध्वस्त होते ढांचे को चुपचाप खड़े होकर देख रहे थे। सशस्त्र पुलिसकर्मी बिना कुछ किए ही बाबरी ढांचा छोड़कर चले गए। न्यायिक पर्यवेक्षक हालात देखकर लौट गए। अफसर खड़े देखते रहे। कल्याण सिंह के किसी भी सूरत में गोली नहीं चलाने के आदेश ने आयोध्या को भीषण खूनखराबे से बचा लिया। लेकिन ढांचा ध्वस्त हो गया। इसके बाद कल्याण सिंह ने कहा, ‘मैं इस घटना की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेता हूं।’
संकल्पित नेता
ऐसे माहौल में कल्याण सिंह ने प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बनते ही भारतीय जनसंघ के ‘हर हाथ को काम, हर खेत को पानी’ नारे को पुनर्जीवित करने का संकल्प लिया और उसके कुछ ही समय बाद वाराणसी के कार्यकर्ता सम्मेलन में बोलते हुए भविष्य में उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार बनाने की स्पष्ट घोषणा की। दोपहर के उस गर्म माहौल में सफेद धोती और आधी बांह मुड़ा कुर्ता पहने, चेचक के पुराने पड़ चुके गहरे निशान वाले कल्याण सिंह की इस घोषणा से सनसनी फैल गई, लेकिन तब उत्तर प्रदेश की प्रमुख माने वाली अन्य पार्टियों के नेताओं ने उनके एक-एक शब्द पर ताकत लगाकर नीरवता भंग करती दृढ़तापूर्ण आवाज को महसूस नहीं किया और उन बातों को मजाक के रूप में ही लिया था। यहां तक कि लखनऊ भाजपा मुख्यालय में कल्याण सिंह कोने के कक्ष में दरी और सफेद जाजम पर छोटी टेबिल लगाकर जमीन पर बैठकर अन्य पार्टियों के नेताओं को जोड़ने और राज्य में भाजपा की सरकार बनाने की रणनीति में जुटे रहते तो भी भविष्य की भाजपा और कल्याण सिंह के कद का एहसास नहीं होता था। उस समय राम जन्मभूमि आंदोलन शुरू नहीं हुआ था और न अन्य किसी तरह का माहौल भाजपा के पक्ष में दिखाई देता था। हां, यह संयोग रहा कि कल्याण सिंह के प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बनने के कुछ ही समय बाद रामजन्मभूमि आंदोलन शुरू हो गया और उत्तर प्रदेश उसका प्रमुख केन्द्र्र बना। उस दौर ने उन्हें उत्तर प्रदेश के कद्दावर नेता के रूप में स्थापित कर दिया। एक स्थिति तो यह भी रही कि तब उत्तर प्रदेश में उनका मुकाबला करने वाला कोई नेता नहीं था।
राज्यपाल की भूमिका में कल्याण
राजस्थान के राज्यपाल के रूप में कल्याण सिंह ने नए प्रतिमान स्थापित किए। स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा, हर समय लहराता राष्ट्रीय ध्वज, कुलगीतों और अनुसंधान पीठों की स्थापना से विश्वविद्यालयों में राष्ट्रप्रेम और देशभक्ति का नया माहौल बना। विश्वविद्यालयों के इतिहास, उद्देश्यों, विशेषताओं और राज्य की शौर्य गाथा पर आधारित कुलगीतों से परिसरों में गौरव गान होने लगा। दीक्षांत समारोहों में भारतीय पोशाक में पदक और उपाधि ले रहे छात्र-छात्राओं के दमकते चेहरों पर उल्लास देखते ही बनता था। कल्याण सिंह के क्रांतिकारी फैसलों ने राज्यपाल पद की गरिमा को बढ़ाया और आमजन की पहुंच भी राजभवन में करा दी। परिसरों का वातावरण राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत कर दिया। नौजवानों से कल्याण सिंह सदैव यही कहते थे, ‘अच्छा काम करो। यदि जज्बा है तो जीवन में अवश्य सफलता मिलेगी। सफलता प्राप्त करने के लिए आत्मविश्वास जरूरी है। आत्मविश्वास की अति नहीं होनी चाहिए। लगन होनी चाहिए, जो हमारी मंजिल तक हमें पहुंचा सके। काम को करने के लिए मन में आग लग जानी चाहिए।’
उन्होंने गार्ड ऑफ ऑनर से स्वयं को अलग करने का ऐतिहासिक निर्णय लेकर प्रोटोकॉल की परिपाटी की लकीर से हटकर एक नजीर पेश की। राजस्थान में जनजाति उपयोजना क्षेत्र के ग्रामीणों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए राज्यपाल कल्याण सिंह ने न्यू बेस्ट प्रैक्टिस मॉडल तैयार कराया। इसके तहत के राज्य विश्वविद्यालय जनजाति उपयोजना क्षेत्र ग्रामीण युवाओं और युवतियों को कौशल प्रशिक्षण, रोजगार और स्वरोजगार की व्यवस्था मुहैया करा रहे हैं। कुलाधिपति की परिकल्पना और निरंतर माइक्रो समीक्षा से विश्वविद्यालयों की कार्य संस्कृति में परिवर्तन दिखाई देने लगा। महापुरुषों, स्थानीय लोक देवताओं पर शोध पीठों के गठन से अनुसंधान में गुणवत्ता लाने के विशेष प्रयास विश्वविद्यालयों में फलीभूत होने लगे। छात्र-छात्राओं को गांवों से जोड़कर मानव सेवा का पाठ पढ़ाया जाने लगा। कल्याण सिंह ने पदभार ग्रहण करने के बाद कुलपतियों को पहली बैठक में गांवों को गोद लेने के निर्देश दिए। देश के अन्य राज्यों में भी राजस्थान की उच्च शिक्षा में किए गए नवाचारों को अपनाया गया।
नब्बे के दशक में एक रैली में कल्याण सिंह
कल्याण सिंह ने विश्वविद्यालयों के शैक्षणिक और अशैक्षणिक स्टाफ की उपस्थिति के बायोमैट्रिक प्रणाली से ही दर्ज होने की जरूरत महसूस की। राज्यपाल ने इसे सभी विश्वविद्यालयों में लागू करवाया। जोधपुर के जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय से संबंद्ध एक निजी कॉलेज में हो रही परीक्षा में नकल का मामला कल्याण सिंह के संज्ञान में आया। उन्होंने विश्वविद्यालय के कुलपति से बायतु (बाड़मेर) स्थित कॉलेज में हो रही नकल के मामले की शीघ्र तथ्यात्मक रिपोर्ट मांग कर एक ही दिन में कॉलेज के विरुद्ध सख्त कार्रवाई करा कर राज्य में चलने वाली नकल पर नकेल कस दी। शैक्षणिक माहौल बनाने और विभिन्न शैक्षणिक एवं इतर शैक्षणिक व्यवस्थाओं के सुचारु संचालन के लिए कल्याण सिंह ने ‘प’ को केन्द्र्र बिन्दु निर्धारित करते हुए आठ सूत्रीय कार्ययोजना बनवाई। उनका मानना था कि नवां ‘प’ कुलपतियों के जिम्मे है और वे इससे किस प्रकार परिसरों में अपनी ‘पकड़’ करते हैं, यह उनकी इच्छाशक्ति और कार्यशैली को दर्शाएगा। कल्याण सिंह द्वारा तैयार की गई इस कार्ययोजना में 1. प्रवेश, 2. पढ़ाई, 3. परिसर, 4. परीक्षा, 5. परीक्षण, 6. परिणाम, 7. पुनर्मूल्यांकन और 8. पदक जैसी विश्वविद्यालयों की समस्त गतिविधियों को इन बिन्दुओं में समाहित किया गया। प्रत्येक गतिविधि की समीक्षा एवं समाधान का पैना मार्गदर्शन इस योजना में किया गया।
कल्याण सिंह ने गांवों को स्मार्ट बनाने के लिए ग्रामवासियों को पांच सूत्रीय विकास का फार्मूला दिया। उनका कहना था कि गांवों को नशा मुक्त, जुआ मुक्त, मुकदमा मुक्त, गंदगी मुक्त और निरक्षरता मुक्त बनाना है। इन कार्यों के लिए गांवों के प्रत्येक व्यक्ति को सक्रिय भागीदारी निभानी होगी। इससे गांवों में परिवर्तन आएगा। गांवों के सभी घर खुशहाल हो सकेंगे। कल्याण सिंह ने युवाओं को तीन सीख दी- जीवन में कभी निराश एवं हताश नहीं हों, जीवन का लक्ष्य तय करें और गुरुजन, माता-पिता, समाज, देश का योगदान कभी नहीं भूलें। कल्याण सिंह ने राज्य के राजकीय विश्वविद्यालयों में डिग्रियों के वितरण का ऐतिहासिक कार्य करवाया। उन्होंने 26 वर्ष की पेंडिंग डिग्रियां बनवाकर वितरित कराई। दीक्षांत समारोह भी ऐतिहासिक थे। राज्यपाल ने कई दीक्षांत समारोहों में तीन-तीन पीढ़ियों को एक साथ डिग्री वितरित की।
सोच में सदैव स्पष्ट
कल्याण सिंह की छवि धरती से जुड़े होने के साथ शीघ्र निर्णय करने वाले स्पष्ट वक्ता के रूप में भी रही। उनके बेबाक कथन राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुए, लेकिन वे अपनी सोच के प्रति सदैव स्पष्ट रहे। मुख्यमंत्री रहने के दौरान उन्होंने 2 अक्तूबर को लखनऊ में महात्मा गांधी की जयंती पर उन्हें श्रद्धांपूर्वक स्मरण करते हुए भारत माता का महान सपूत बताया, लेकिन साथ ही, इस बात पर जोर दिया कि महात्मा गांधी इस राष्ट्र के महान पुत्र तो हो सकते हैं लेकिन उन्हें इस राष्ट्र का पिता कहा जाना उचित नहीं है। कल्याण सिंह के उस कथन की राजनीतिक हलकों में काफी आलोचना हुई लेकिन वे अपने कथन पर अडिग रहे। यह भी सामने आया कि महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता मोह की वजह से कहा जाने लगा। इसके पीछे न तो कोई संवैधानिक कारण रहा और न सरकार ने कभी इस तरह का फैसला किया। कल्याण सिंह का कहना था कि महात्मा गांधी जिंदा होते तो वे भी अपने को राष्ट्रपिता कहलवाना पसंद नहीं करते। इस संबोधन को शायद वे इस महान राष्ट्र के लिए अपमानजनक मानते जिसकी भौगोलिक सीमा को आजाद करवाने के लिए उन्होंने सर्वस्व न्योछावर कर दिया।
राजस्थान के राज्यपाल रहने के दौरान उन्होंने राजस्थान विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में देश का ध्यान आकर्षित किया, जो राष्ट्रगान को लेकर था। उन्होंने एक महत्वपूर्ण विषय उठाया कि राष्ट्रगान में से ‘अधिनायक’ शब्द की जगह अगर ‘मंगलदायक’ कर दिया जाए तो वह ज्यादा उचित होगा। उनका कहना था कि अधिनायक से तात्पर्य ब्रिटिश साम्राज्य के अधिनायक से है और स्वतंत्र भारत में मंगलदायक किए जाने से देशवासियों की भावना का उचित प्रकटीकरण होगा। उन्होंने यह भी जोड़ा कि ऐसा किए जाने के लिए जो भी कानूनी पक्ष है उसका न केवल अध्ययन किया जाना जरूरी है बल्कि इसके लिए सर्वदलीय बैठक भी बुलाई जा सकती है। कल्याण सिंह का मानना था कि यह कहना भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की अभिव्यक्ति को स्वर देना था.. जो कल्पना देश के शहीदों, स्वतंत्रता सेनानियों और देशभक्तों ने की थी। उन्होंने उदाहरण दिया कि 25 अगस्त, 1948 को संविधान सभा में एक प्रश्न के उत्तर में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, ‘वंदे मातरम स्पष्ट और निर्विवाद रूप से भारत का प्रधान राष्ट्रीय गीत है, इसकी महान ऐतिहासिक परंपरा है और यह हमारे स्वतंत्रता के इतिहास के साथ घनिष्ठ रूप से संबंद्ध है। यह स्थान इसे सदा प्राप्त रहेगा और कोई दूसरा गीत उसकी जगह नहीं ले सकता।’