सर्वेश तिवारी श्रीमुख
मुझे मेरे एक मित्र ने कहा कि ‘सेक्युलरिज्म’ को परिभाषित कीजिये। मैं हमेशा मानता रहा हूँ कि भारत के परिपेक्ष्य में सेक्युलरिज्म एक निरर्थक शब्द है। यहाँ कोई व्यक्ति निरपेक्ष नहीं होता! न धन से, न धर्म से… जब लगातार दस वर्ष तक देश के उपराष्ट्रपति रह चुके हामिद अंसारी धर्मनिरपेक्ष न हो सके, तो आम जनता कैसे होगी? भारत प्रारम्भ से ही धर्म के सापेक्ष चलता रहा है, वह धर्मनिरपेक्ष हो ही नहीं सकता।
आज कल धर्मनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग जिन अर्थों में किया जाता है, वह और भी भ्रामक है। धर्मनिरपेक्ष कहलाने के लिए हिन्दुओं के सामने जो मानक रखे हैं, वह वस्तुतः धार्मिक गुलामी के प्रतीक हैं। एक हिन्दू तब सेक्युलर कहलायेगा यदि वह रोज मार डाली जा रही अपनी बेटियों की पीड़ा पर न बोले, वह प्रेम के जाल में फंसा कर अरब के शेखों के हाथों बेंच डाली जाती अपनी बेटियों पर न बोले, वह तिलक भले न लगाये पर टोपी अवश्य पहने। एक दूसरे सम्प्रदाय का धर्मगुरु मंच पर चढ़ कर सरेआम हिन्दू मान्यताओं की आलोचना करे, उसे झूठा बताए और हिन्दू सेक्युलर कहलाने के लिए यह सब चुपचाप सुनता रहे। एक सेक्युलर हिन्दू से उम्मीद की जाती है कि वह अपनी धार्मिक मान्यताओं के लिए सारे सम्प्रदायों की गलियां सुनें, विदेशी चंदे के लोभ में बिक चुके स्वघोषित बौद्धिकों की गाली सुने, सिनेमा जगत की गाली सुने, धंधेवालों की गाली सुने और यह सब चुपचाप सहन करे।
अगर यह सेक्युलरिज्म है, तो आप समझ सकते हैं कि सेक्युलरिज्म एक प्रकार की गुलामी है।
सेक्युलरिज्म के दुकानदार कहते हैं कि एक साथ सभी सम्प्रदाय के लोगों को साथ ले कर चलने के लिए यह सेक्युलरिज्म आवश्यक है। यह विशुद्ध बकवास है। दो सम्प्रदाय के लोग एक साथ तभी सुखी रह सकते हैं जब वे एक दूसरे के आंतरिक मामलों में दखल देना छोड़ दें। हिन्दू मुश्लिम सिख बौद्ध जैन पारसी क्रिस्तान सभी साथ तभी सुखी रह सकते हैं जब हिन्दू हिन्दू रहे, बौद्ध बौद्ध रहे और क्रिस्तान क्रिस्तान। जब वे एक दूसरे के मामलों में दखल देंगे, विवाद बढ़ेगा।
यह एक सहज भाव है कि किसी एक सम्प्रदाय को मानने वाला व्यक्ति जब भी दूसरे सम्प्रदाय के सम्बंध में टिप्पणी करता है, तो वह पूर्वग्रह से मुक्त नहीं हो पाता। उसकी कुंठा निकल ही आती है। जावेद अख्तर जैसा बुद्धिजीवी लेखक भी जब कहानी लिखता है तो उसे अपने सम्प्रदाय की परम्पराए ठीक लगती हैं और हिन्दू परम्पराएं बकवास लगती हैं। उसका नायक मन्दिर के भगवान की आलोचना करता है, पर किसी फर्जी फकीर का ताबीज पर विश्वास करता है। ऐसा सिर्फ जावेद के साथ नहीं है, सबके साथ है। यदि मैं दूसरे सम्प्रदाय के सम्बंध में लिखूं तो मैं भी मुक्त नहीं हो सकूंगा। तो जब आप अपनी कुंठा से मुक्त नहीं हो सकते, तो आपको दूसरे सम्प्रदाय के सम्बंध में बोलना ही क्यों है? आप अपनी ऊर्जा केवल अपने सम्प्रदाय में क्यों नहीं लगाते?
आज से पच्चीस तीस वर्ष पूर्व तक जब सारे सम्प्रदाय अपने स्वतंत्र अस्तित्व के साथ अलग अलग जीते थे तो कहीं कोई सामाजिक विवाद नहीं होता था। आपने सीमाएं तोड़ीं, तो रोज-रोज सूटकेस में लड़कियों की लाशें मिलने लगीं। असहिष्णुता बढ़ने लगी, दुराव बढ़ने लगा, विवाद बढ़ने लगे। सेक्युलरिज्म की इस फर्जी अवधारणा ने समाज को तोड़ा ही है, जोड़ा बिल्कुल भी नहीं।
किसी भी समाज में अमन चैन तब ही रह सकता है जब सारे लोग अपनी सीमा के अंदर रहें। जब जब कोई अपनी सीमा को लांघ कर दूसरे के क्षेत्र का अतिक्रमण करेगा, विवाद बढ़ेंगे। इसे कोई रोक नहीं सकता।