सुप्रीम कोर्ट ने पूजा स्थल कानून 1991 को चुनौती देने वाली याचिकाओं के मामले में केंद्र सराकर को 31 अक्टूबर तक अपना जवाब दाखिल करने को कहा है। केंद्र सरकार की तरफ से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि यह मामला सरकार के ध्यान में है और जवाब दाखिल करने के लिए थोड़ा और समय चाहिए। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने तीन महीने से ज्यादा का वक्त दिया है। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि यह कानून नागरिकों के साथ भेदभाव करता है और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है।
इस कानून के मुताबिक 15 अगस्त 1947 से पहले अस्तित्व में आया कोई भी धार्मिक पूजा स्थल यथा स्थिति में रहेगा। इसमें बदलाव नहीं किया जा सकता है। अगर ऐसा करने का प्रयास किया जाता है तो उसे दंड देने का प्रावधाना है। हालांकि अयोध्या के मामले को इससे अलग रखा गया था। कानून बनने से पहले ही अयोध्या का केस कोर्ट में था।
क्यों पड़ी थी इस कानून की जरूरत
1990 राम मंदिर आंदोलन चल रहा था। 25 सितंबर 1990 को भाजपा नेता एलके आडवाणी ने रथयात्रा शुरू की। 29 अक्टूबर को अयोध्या पहुंचने से पहले ही इसे समस्तीपुर में रोक लिया गया। तत्कालीन सीएम लालू प्रसाद यादव ने एलके आडवाणी को गिरफ्तार करने का आदेश दे दिया। इसके बाद भाजपा के समर्थन से चलने वाली वीपी सिंह की सरकार गिर गई। 1991 में पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने तो मंदिर और मस्जिद के कई मामले उठने लगे। इन मामलो पर रोक लगाने के मकसद से सरकार ने पूजा स्थल कानून बनाया।
ज्ञानवापी मामले में हुआ विरोध
भाजपा हमेशा से ही इस कानून का विरोध करती रही है। देश में कई जगहों पर हिंदू अपने पूजा स्थलों का द्वा कर रहे हैं। इसी तरह के दावे को लेकर ज्ञानवापी और मथुरा का मामला कोर्ट में है। हालांकि यह कानून रोड़ा अटकाता है। अब इस कानून की वैधता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। अब याचिकाकर्ताओं का कहना है कि जिन स्थलों को आक्रांताओं ने विध्वंस कर दिया था उनको भी यह कानून मान्यता दे रहा है। यह कानून सभी धर्मों को अपने मूल स्थान पाने से वंचित कर देता है।