पहली साझा रैली के लिए मायावती-अखिलेश ने देवबंद को ही क्यों चुना?

लखनऊ। 2019 के सियासी रण में भगवा पार्टी को परास्त करने के मिशन के साथ पश्चिम यूपी के देवबंद की धरती लाल, नीले और हरे झंडों से सजाई गई है. नवरात्र के मौसम में मायावती, अखिलेश यादव और अजित सिंह ने महागठबंधन की पहली साझा रैली के लिए दुनिया के सबसे बड़े इस्लामिक सेंटर में शुमार देवबंद को चुना है, जो चुनावी लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण माना जा रहा है. इस रैली के लिए जरिए सपा-बसपा-आरएलडी गठबंधन का मकसद जहां अपनी एकजुटता दर्शाना है, वहीं पश्चिम यूपी में गठबंधन के लिए सबसे बड़े निर्णायक वोट बैंक दलित, मुस्लिम और जाटों को भी एक साथ लाना है.

पश्चिम की सीटों का केंद्र

पश्चिम यूपी की 8 लोकसभा सीटों के लिए 11 अप्रैल को वोट डाले जाएंगे. पहले चरण के लिए गठबंधन के तीनों नेताओं की एकलौती संयुक्त रैली है. ऐसे में तीनों नेताओं ने ऐसे जगह से रैली को संबोधित करने के लिए चुना है कि एक साथ पश्चिम की करीब 5 लोकसभा सीटों के मतदाताओं को साधा जा सके. देवबंद ऐसा केंद्र है, जिससे सहारनपुर के साथ-साथ कैराना, मुजफ्फरनगर, बागपत और बिजनौर लोकसभा सीट को एक साथ फोकस करने की रणनीति है.

मुसलमानों का सबसे बड़ा सेंटर

साल 1866 में दारुल-उलूम के रूप में देवबंद में एक मदरसा (इस्लामिक स्कूल) स्थापित किया गया, जो आज दुनिया के सबसे बड़े इस्लामिक शिक्षण केंद्र के रूप में अपनी पहचान रखता है. देश के मुसलमानों की सियासत का सबड़े बड़ा सेंटर भी देवबंद को माना जाता है. हालांकि, औपचारिक तौर पर दारुल-उलूम से किसी पार्टी के पक्ष में समर्थन देने का ऐलान नहीं किया जाता है, लेकिन वहां से निकलने वाले किसी भी संदेश के बड़े मायने होते हैं. ऐसे में भारतीय जनता पार्टी की सरकार को केंद्र से उखाड़ने के लिए पुरानी अदावत भुलाकर साथ आए सपा-बसपा देवबंद के मंच से बड़ा संदेश देना चाहते हैं.

मुस्लिम बेल्ट

पश्चिम उत्तर प्रदेश को सूबे की सबसे बड़ी मुस्लिम बेल्ट के रूप में भी जाना जाता है. यहां के सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ, बिजनौर, अमरोहा, बुलंदशहर और मुरादाबाद वो जिले हैं, जहां मुसलमान मतदाताओं की संख्या निर्णायक भूमिका में है. पहले चरण के तहत जिन आठ सीटों पर मतदान हो रहा है, उन लोकसभा क्षेत्रों में मुस्लिम मतदाताओं की संख्या औसतन 25 फीसदी से ज्यादा है.

कैराना सीट पर 26, मेरठ सीट पर 31, बागपत सीट पर 20, मुजफ्फरनगर सीट पर 31, सहारनपुर सीट पर 38, गाजियाबाद सीट पर 19 और बिजनौर सीट पर करीब 38 फीसदी मुसलमान हैं. जबकि गौतमबुद्धनगर सीट पर 14 फीसदी मुस्लिम मतदाता हैं. अकेले देवबंद तहसील में ही करीब 40 फीसदी मुसलमान हैं, जबकि यहां 25 फीसदी दलित आबादी है. यानी पहले चरण की सभी सीटों पर मुसलमान वोट अहम भूमिका में है, जहां सहारनपुर में सबसे ज्यादा मुस्लिम वोटर हैं. पहले चरण का मुस्लिम वोटर खासकर सुन्नी मुसलमान हैं, जिनका इस्लामिक सेंटर भी देवबंद है.

गठबंधन दलों के कार्यकर्ताओं को एकजुट करना

कांग्रेस को गठबंधन से बाहर रखकर नरेंद्र मोदी के खिलाफ मायावती-अखिलेश यादव और अजित सिंह हुंकार भर रहे हैं. बीजेपी इन दलों के गठबंधन को महामिलावट बता रही है. एक सत्य ये भी है कि तीनों दलों का वोट बैंक अब तक एक-दूसरे का धुर विरोधी रहा है. जाट, गुर्जर, मुस्लिम और दलित वोटरों वाले पश्चिम उत्तर प्रदेश में मुसलमानों का बड़ा समर्थन सपा को मिलता रहा है, जबकि दलित-मुसलमान गठजोड़ से बसपा को भी जीत मिलती रही है, वहीं आरएलडी का आधार जाट वोट रहा है.

सामाजिक तौर पर जाट और दलितों के बीच बड़ा टकराव देखने को मिलता रहा है. 2013 के मुजफ्फरनगर दंगे ने मुसलमानों और जाटों के बीच बड़ी खाई पैदा की है. ऐसे में इन तीनों दलों के लिए अपने-अपने वोटबैंक के साथ पार्टी कार्यकर्ताओं को भी गिले-शिकवे भुलाकर एक साथ लाना बड़ी चुनौती है. सहारनपुर में दलित मुसलमान बड़ी तादाद में है, जिसे देवबंद की साझा रैली के जरिए साधने का प्रयास माना जा रहा है.

दलितों पर मायावती की नजर

2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जब बीजेपी को प्रचंड बहुमत मिला और यूपी की 71 सीटों पर उसने फतह पाई. नतीजों के आकलन में यह तथ्य सामने आए कि बीजेपी को दलितों ने उम्मीद से ज्यादा वोट किया, जिसके चलते बीएसपी एक भी सीट नहीं जीत पाई. विधानसभा चुनाव में भी बीएसपी को बड़ा झटका लगा. इसके बाद मई 2017 में शब्बीरपुर में दलितों और राजपूतों के बीच पनपी हिंसा देशव्यापी चर्चा का विषय बनी. इस हिंसा से भीम आर्मी नेता चंद्रशेखर एक बड़ा चेहरा बनकर उभरे हैं, हालांकि मायावती सार्वनजनिक तौर पर उन्हें नकारती रही हैं.

साझा रैली से ठीक पहले भी चंद्रशेखर ने चमार रेजिमेंट के बहाने अखिलेश यादव पर सवाल दागे हैं. दिलचस्प बात ये है कि शब्बीरपुर देवबंद विधानसभा क्षेत्र में ही आता है. हिंसा के बाद मायावती यहां पहुंची थीं, हालांकि उन्हें शब्बीरपुर नहीं जाने दिया गया था. ऐसे में एक बार फिर मायावती देवबंद के मंच से शब्बीरपुर में दलितों पर हुए अत्याचार को मुद्दा बनाकर बीजेपी को आसानी से घेर सकती हैं.

लोकसभा व विधानसभा में जीती बीजेपी

लोकसभा सीटों की फेहरिस्त में सबसे पहले नंबर पर सहारानपुर का ही नाम है. मुसलमानों और दलितों की बड़ी आबादी होने के बावजूद सहारनपुर लोकसभा सीट पर 2014 में बीजेपी के राघव लखनपाल ने जीत दर्ज की थी. हालांकि, उनकी जीत का अंतर काफी कम रहा था. लखनपाल ने कांग्रेस प्रत्याशी इमरान मसूद को करीब 65 हजार मतों से हराया था. जबकि बीएसपी के जगदीश सिंह राणा को करीब 2 लाख 35 हजार वोट मिले थे. चौथे नंबर सपा के टिकट पर लड़े इमरान मसूद के चचेरे भाई शाजान मसूद को 52 हजार वोट मिले थे. अब सपा बसपा तो साथ हैं, लेकिन इमरान मसूद फिर एक बार कांग्रेस के टिकट पर दम दिखा रहे हैं.

इसी तरह 2017 के विधानसभा चुनाव में देवबंद विधानसभा सीट पर बसपा-सपा उम्मीदवार की टक्कर में बीजेपी के बृजेश ने बाजी मारी थी. सहारनपुर में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी व प्रियंका गांधी भी रैली कर सकते हैं. ऐसे में इस सीट पर मुस्लिम मतदाताओं को कांग्रेस के बजाय गठबंधन की ओर पूरी तरह आकर्षित करने के मकसद भी देवबंद से चुनाव प्रचार का आगाज करना बड़ी वजह माना जा रहा है.

इस तरह देवबंद के जरिए गठबंधन सिर्फ सहारनपुर सीट पर ही दलितों व मुसलमानों को साथ लाकर बड़ा संदेश नहीं देना चाहता, बल्कि वह पूरे राज्य में यहां से एक बड़ा मैसेज देना चाहता है. खासकर, पहले तीन चरणों में पश्चिम यूपी की सीटों पर जहां मुस्लिम वोट निर्णायक भूमिका हैं, वहां इस रैली का व्यापक असर देखने को मिल सकता है.

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