अब तक हुए 14 प्रधानमंत्रियों में से 9 यूपी से हुए हैं
राजेश श्रीवास्तव
लखनऊ । सियासत में हमेशा ही कहा जाता है कि दिल्ली की सरकार यूपी तय करता है। लोकसभा चुनाव के बाद आए एग्जिट पोल के अनुमानों के मुताबिक सपा-बसपा-रालोद के महागठबंधन के बाद भी यूपी में भाजपा शानदार प्रदर्शन कर रही है। अकेले भाजपा को 3०० या उससे ऊपर सीटों की भविष्यवाणी करने वाले चैनलों के मुताबिक उत्तर प्रदेश में गठबंधन बीजेपी को रोकने में नाकाम है। सर्वे के मुताबिक यूपी की 8० सीटों में एनडीए को 62-68 सीटें मिल सकती हैं। इसमें अकेले भाजपा 6०-66 और सहयोगी अपना दल को 2 सीटें मिल सकती हैं।
6 एग्जिट पोल्स के नतीजों का औसत निकालें तो बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए को 52 सीटें मिलने का अनुमान है। वहीं, महागठबंधन को 26 और कांग्रेस को महज 2 सीटें मिलने की संभावना जताई जा रही है। अगर यह अनुमान रिजल्ट में तब्दील होते हैं तो एसपी-बीएसपी-आरएलडी गठबंधन के लिए बड़ा झटका होगा।
सिर्फ दो एग्जिट पोल में महागठबंधन को 4० से ज्यादा सीटें मिलने का अनुमान है। एबीपी-नील्सन ने महागठबंधन को 45 सीटें दी हैं जबकि सी-वोटर के सर्वे में एसपी-बीएसपी-आरएलडी के खाते में 4० सीटें मिलती नजर आ रही हैं। एबीपी-नील्सन ने बीजेपी को 33 और सी-वोटर ने 38 सीटें दी हैं। इन दो एग्जिट पोल की मानें तो एसपी-बीएसपी के बीच काफी हद तक यूपी में वोट ट्रांसफर हुआ है। 2०14 के चुनाव में एसपी को 22.2० फीसदी और बीएसपी को 19.6० प्रतिशत वोट हासिल हुए थे। इन दोनों को मिला दिया जाए तो करीब 42 प्रतिशत वोट होता है।
विपक्षी दलों को उम्मीद है कि 23 मई आने वाला चुनाव परिणाम अलग रहेगा। इसी के मद्देनजर वह रणनीति बनाने में जुटे हैं। विपक्षी नेताओं की कोशिश है कि अगर करीबी स्थिति बनती है तो उसमें यूपीए समेत तीसरे मोर्चे की संभावना पर भी विचार किया जाए। इस तीसरे मोर्चे में मायावती और अखिलेश की भूमिका अहम हो सकती है। मायावती के लिए यह चुनाव बहुत अहम है। अखिलेश यादव कई बार मायावती के पीएम की रेस में होने के संकेत दे चुके हैं।
सबसे ज्यादा 8० सीटों वाला राज्य उत्तर प्रदेश दिल्ली की गद्दी के लिए हमेशा से ही महत्वपूर्ण रहा है। इसी पर कब्जे के लिए इस बार बीजेपी, महागठबंधन और कांग्रेस ने अपनी पूरी ताकत लगा दी। पीएम मोदी ने सबसे ज्यादा फोकस यूपी पर ही किया। वहीं मायावती और अखिलेश पूरे प्रदेश में धुआंधार रैलियां कीं। राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने रैलियों और रोड शो के जरिए अपनी पार्टी को यूपी में संजीवनी देने की कोशिश की।
गौरतलब है कि अब तक हुए 14 प्रधानमंत्रियों में से 9 उत्तर प्रदेश से हुए हैं। यही नहीं नरसिह राव और मनमोहन सिह को छोड़कर अपना कार्यकाल पूरा करने वाले सभी प्रधानमंत्री यूपी से हैं। यूपी के महत्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पीएम मोदी गुजरात छोड़कर यूपी के वाराणसी से दूसरी बार मैदान में हैं। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी अमेठी से चुनावी मैदान में हैं। आजादी के बाद शुरुआती तीन दशक को छोड़ दें तो बाद के वर्षों में ऐसा कई बार हुआ है कि उत्तर प्रदेश में ज्यादा सीटें जीतने वाली पार्टी ने या तो केंद्र में सरकार बनाई या फिर केंद्र सरकार में उसकी अहम भूमिका रही। वर्ष 1971 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 85 से 71 सीटें मिली थीं और उसने सरकार बनाई। इसी तरह से 1977 के चुनाव में इंदिरा गांधी के विरोध में सात पार्टियों के विलय से बने भारतीय लोकदल ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया और चौधरी चरण सिह के नेतृत्व में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी।
वर्ष 198० और 1984 के लोकसभा चुनाव में फिर से कांग्रेस को यूपी में ज्यादा सीटें मिलीं और केंद्र में उसकी सरकार बनी। 1989 के लोकसभा चुनाव में जनता दल को यूपी में 54 सीटें मिलीं और बोफोर्स घोटाले में फंसे राजीव गांधी को हार का सामना करना पड़ा। जनता दल के नेता वीपी सिह देश के आठवें प्रधानमंत्री बने। वर्ष 1991 में मंडल और मंदिर आंदोलन के बीच बीजेपी को 51 सीटें और जनता दल को 22 सीटें मिलीं। हालांकि सरकार कांग्रेस की बनी। 1996 के लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी को यूपी में 52 सीटें मिलीं और अटल बिहारी वाजपेयी कुछ समय के लिए पीएम बने। बाद में वाजपेयी सरकार गिर गई और एचडी देवगौड़ा तथा उसके बाद इंद्र कुमार गुजराल देश के प्रधानमंत्री बने। इन सरकारों में भी यूपी में 16 सीटें जीतने वाली सपा का दबदबा रहा। मुलायम रक्षा मंत्री बनाए गए। इसके बाद 1998 और 1999 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने यूपी में अच्छा प्रदर्शन किया और उसकी सरकार बनी। वर्ष 2००4 में कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए की केंद्र में सरकार बनी जिसे यूपी में क्रमश: 35 और 15 सीटें जीतने वाली एसपी और बीएसपी का समर्थन हासिल था। यही स्थिति 2००9 के लोकसभा चुनाव में भी रही। वर्ष 2०14 में मोदी लहर में बीजेपी ने यूपी में 8० में से 71 सीटें जीतकर केंद्र में सरकार बनाई।
15० सीटें मिली तो कांग्रेस खुद बनायेगी सरकार
कांग्रेस खुद को सत्ता की दौड़ में मान कर चल रही है। इसके लिए अंदरखाने दो प्लान भी तैयार कर लिए गए हैं। हालांकि ये प्लान ए और प्लान बी तभी सफल होंगे, जब कांग्रेस की सीटें 15० से ज्यादा आएंगी। कांग्रेस नेता के मुताबिक, अगर हमें 15० से ज्यादा सीटें मिलती हैं तो केंद्र में यूपीए के नेतृत्व वाली सरकार बन सकती है। इस स्थिति में कांग्रेस का प्रयास रहेगा कि पीएम उनकी पसंद का हो। हालांकि यह प्लान भी तभी सार्थक होगा, जब यूपीए के दूसरे सहयोगियों और मित्रों को कम से कम 14० सीटें मिलें। कांग्रेस मानकर चल रही है कि मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और बिहार सहित कई दूसरे राज्यों के बारे में जो एग्जिट पोल दिखाए जा रहे हैं, वे सच्चाई से दूर हैं। यहां पर कांग्रेस पार्टी और सहयोगी दल बहुत अच्छा परिणाम लाएंगे। कांग्रेस नेता का दावा है कि प्लान ए के बारे में हमने अपने सभी सहयोगियों और मित्रों के साथ बातचीत कर ली है। प्लान बी में कांग्रेस होगी, मगर सरकार का गठन सहयोगी या मित्र करेंगे। कांग्रेस पार्टी ने जो प्लान बी तैयार किया है, उसमें सहयोगी या मित्र सामने होंगे। यानी केंद्र में सरकार बनाने की कवायद कांग्रेस नहीं करेगी, बल्कि वह दूसरे दलों को समर्थन देगी। यह स्थिति तभी संभव होगी, जब कांग्रेस की सीटों का ग्राफ 15० से कम रहता है। कांग्रेस का पहला प्रयास यह होगा कि दक्षिण भारत के किसी नेता को समर्थन दिया जाए। दूसरा, जब सरकार के गठन या पीएम पद को लेकर कोई भी सहमति नहीं बनती है तो उस स्थिति में सपा-बसपा गठबंधन के नेताओं का साथ दिया जा सकता है। प्लान बी में यह बात स्पष्ट कर दी गई है, सपा-बसपा का समर्थन केवल उसी स्थिति में किया जाएगा, जब इन दोनों दलों को यूपी में 6० से ज्यादा सीटें मिलें। कांग्रेस पार्टी की ओर से यूपीए के दो नेताओं ने केरल और तेलंगाना के मुख्यमंत्री, जो कि तीसरा मोर्चा खड़ा करने का प्रयास कर रहे हैं, उनसे बातचीत की है।
गलत भी साबित हो सकते हैं चुनाव के एग्जिट पोल
कई बार ऐसा हुआ है जब एग्जिट पोल गलत साबित हुए हैं। वाजपेयी सरकार की 2००4 में वापसी की उम्मीद लगभग सभी एग्जिट पोल्स ने जताई थी लेकिन जीत की बाजी यूपीए के हाथ लगी। बिहार चुनाव में भी एग्जिट पोल बुरी तरह फ़ेल हुए थे। अभी एग्जिट पोल्स के मुताबिक एनडीए की सरकार एक बार फिर से बनने वाली है। भले ही एग्जिट पोल्स में बीजेपी और एनडीए को बढ़त दिखाई गई है, लेकिन इनके इतिहास पर नजर डालें तो रोमांच अभी बाकी है। ऐसा कई बार हुआ है, जब एग्जिट पोल्स के मुकाबले नतीजे खासे विपरीत रहे या फिर काफी अंतर रहा। विपक्षी दलों का भी दावा है कि परिणाम एग्जिप पोल से अलग होंगे।
अटल बिहारी वाजपेयी सरकार की 2००4 में वापसी की उम्मीद लगभग सभी एग्जिट पोल्स ने जताई थी। एग्जिट पोल्स में एनडीए के सबसे बड़े गठबंधन के तौर पर उभरने की संभावना जताई गई थी, लेकिन जीत की बाजी यूपीए के हाथ लगी। इसी तरह 2००9 में ज्यादा सर्वे में यूपीए की जीत के अंतर को बहुत कम आंका गया था। एग्जिट पोल सर्वे में काफी कम वोटरों की राय ली जाती है, जो पूरी जनसंख्या का प्रतिनिधित्व नहीं कहा जा सकता। छोटा सैंपल साइड होने की वजह से यदि कोई एक चूक भी होती है तो फिर इसका नतीजा पर बड़ा असर होता है। इसके अलावा बड़ी बात यह है कि इन पोल्स को पार्टियों के वोट प्रतिशत को जानने के लिहाज से डिजाइन किया जाता है। इसमें सीट शेयरिग की बात नहीं होती। वोट शेयर कितना सीट शेयर में कन्वर्ट होता है, इसका अनुमान लगाना मुश्किल होता है। खासतौर पर जब बहुकोणीय मुकाबला हो जाए तो फिर वोट शेयर के आधार पर सीट शेयर का अंदाजा खासा मुश्किल हो जाता है।
यदि एग्जिट पोल्स की ओर से लगाए गए अनुमान गलत साबित होते हैं तो फिर छोटे-छोटे बहाने सुनने को तैयार रहिए। जैसे भ्रमित वोटर को प्रिफरेंस मिलना, प्रतिभागियों की ओर से गलत जवाब, सैम्पलिग एरर या फिर आम लोगों की अपेक्षाओं के मुताबिक राय दिखाने के लिए किया गया रैशनलाइजेशन। ऐसी कई खामियां या चूक होती हैं, जिनके चलते एग्जिट पोल्स और वास्तविक नतीजों में खासा फर्क होता है।