हौसला टूटने से लेकर राहुल गांधी की विदाई तक, पढ़ें 40 दिन की ‘कांग्रेस कथा’

नई दिल्ली। देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस पिछले 40 दिन से जो उम्मीद लगाए बैठी थी, वो उम्मीद ही टूट गई. राहुल गांधी नहीं माने और आखिरकार बुधवार को उन्होंने पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे ही दिया. साथ ही साथ उन्होंने ये भी कह दिया कि पार्टी को अपना नया अध्यक्ष जल्द से जल्द चुन लेना चाहिए. जिस तरह से चार पन्ने की चिट्ठी लिखकर उन्होंने इसकी घोषणा की है उससे कांग्रेस के सामने संकट खड़ा हो गया है और लोग कह रहे हैं ‘एक थी कांग्रेस’.

23 मई 2019 को जब दिल्ली के बीजेपी मुख्यालय से जश्न की तस्वीरें आ रही थीं तो वहां से केवल डेढ़ किलोमीटर दूर 12 तुगलक लेन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) का सबसे बड़ा नेता निर्विकार भाव से अपने नेपथ्य की भूमिका लिख रहा था. 23 मई को नतीजे के दिन राहुल गांधी निराश थे, इतना निराश कि नतीजों के सामने आने से पहले ही उन्होंने अमेठी में हार मान ली थी.

वो भी तब, जब अमेठी में तीन लाख वोटों की गिनती बाकी थी. लेकिन ऐसा लग रहा था जैसे नतीजे में उनकी दिलचस्पी ही खत्म हो गई हो. क्योंकि अमेठी केवल एक सीट नहीं थी, राहुल गांधी के सम्मान की भी लड़ाई थी. उनकी मां सोनिया और पिता राजीव दोनों ने इस सीट का प्रतिनिधित्व किया था, वो खुद पंद्रह सालों से यहां के सांसद थे. अमेठी की शर्मनाक हार ने राहुल गांधी के भीतर नेतृत्व की इच्छा को भी हरा दिया था.

बाहरी आलोचनाओं, फेसबुक-ट्विटर और दूसरे माध्यमों पर उड़े मजाक और पार्टी की अंदरुनी उठा पटक ने राहुल गांधी को उस मोड़ पर पहुंचा दिया था जहां वो अपने आप को नाकाम मान चुके थे. नतीजों के चालीस दिन बाद उन्होंने जो चिट्ठी लिखी है वो इस बात का कबूलनामा है. इस चिट्ठी से कांग्रेस के नेताओं को झटका लगा ही, उससे ज्यादा विरोधी दलों के नेताओं, ट्विटर ट्रोलर्स और फेसबुक के स्वयंभू राजनीतिक विश्लेषकों को लगा जो उनके इस्तीफे को बीते 40 दिन से नाटक बता रहे थे.

अपने फैसले पर अडिग राहुल ने उनसे अगले मजाक की भूमिका छीन ली थी. राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत मनाने पहुंचे थे. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ मनाने पहुंचे थे. मल्लिकार्जुन खड़गे भी मनाने पहुंचे थे. खुद मां सोनिया गांधी और बहन प्रियंका गांधी गईं. लेकिन राहुल टस से मस नहीं हुए. हजारों कार्यकर्ताओं ने भी मनाने की कोशिश की. नेता धरने पर बैठ गए थे, जान देने के अभिनय से लेकर इस्तीफों की कतार तक. ये आवाजें राहुल तक पहुंचीं तो जरूर लेकिन उन्हें डिगा नहीं सकीं.

क्या राहुल गांधी का इस्तीफा एक स्वाभाविक फैसला है? क्या राहुल गांधी की पकड़ संगठन पर कमजोर हो गई थी? राहुल ने बहुत बेमन से ये बात कही थी. ना तो खुद राहुल को, नहीं कांग्रेस को और न ही देश को ये उम्मीद थी कि कांग्रेस लोकसभा चुनावों में मोदी को हरा देगी. लेकिन ये सबको लग रहा था कि वो पहले से बेहतर करेगी.

लेकिन जब राहुल स्मृति ईरानी के हाथों अमेठी तक गंवा बैठे तो उनकी साख और साहस दोनों ने जवाब दे दिया. तो आप कह सकते हैं कि कांग्रेस में गैर गांधी युग का पहला अध्याय लिखा जा चुका है लेकिन इसकी नौबत आई कैसे.

राहुल गांधी को परिस्थितियों ने परास्त कर दिया या तजुर्बे की कमी ने, ये सवाल बार-बार उठ रहा है. एक साल सात महीने और 17 दिन, बस इतनी ही रही राहुल गांधी की अध्यक्षता की उम्र. उन्होंने लिखा है कि कई बार पार्टी के नेताओं ने उन्हें अकेला छोड़ दिया.

अब कांग्रेस पार्टी के सामने एक बार चुनौती है खुद को खड़ा करने की, एक नया अध्यक्ष चुनने की. लेकिन इस चुनौती में भी सबसे बड़ी चुनौती ये है कि ये काम उन्हें बिना गांधी परिवार के करना है. क्योंकि पद छोड़ते वक्त राहुल गांधी कह चुके हैं कि ना तो वो अध्यक्ष चुनेंगे और ना ही इस प्रक्रिया में शामिल होंगे.

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