18 फरवरी फिर यूँ ही निकल गई। बिना किसी हलचल के। जबकि इसी दिन वर्ष 1946 में नौसैनिकों का वह गौरवशाली विद्रोह शुरू हुआ था जिसने भारत की आजादी में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। लेकिन इसे इतिहास की किताबों में वह जगह नहीं मिल सकी, जिसका यह अधिकारी था।
1976 में एक इंटरव्यू में तब के ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने एक सवाल के जवाब में कहा था कि भारत छोड़ने के पीछे रॉयल नौसेना के नौसैनिकों का विद्रोह एक प्रमुख वजह थी। जब उनसे पूछा गया कि भारत की आजादी में 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन की क्या भूमिका थी, एटली ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, “बहुत मामूली।”
लेकिन अफ़सोस कि रॉयल नौसेना का यह विद्रोह आम जनमानस की स्मृति में 1857 के विद्रोह जैसा स्थान नहीं बना सका। न ही इसको 1942 के आंदोलन की तरह प्रमुखता मिली। 1857 विद्रोह की तरह एक छोटी सी घटना से इस विद्रोह की शुरुआत हुई पर खुद के साथ होते भेदभाव के कारण नौसैनिकों में गुस्सा काफी समय से घर कर रहा था।
Taking a look at The Naval Ratings Mutiny begins in Mumbai, on February 18, 1946, one of the main reasons for the British to quit India. Unfortunately it has become a Forgotten Mutiny, not getting it’s due in our history books, inspite of it’s significant impact.
नौसैनिकों के इस विद्रोह की शुरुआत 16 जनवरी 1946 को मुंबई में उस वक़्त हुई जब नौसैनिकों की एक टुकड़ी ने बासी और बेस्वाद खाने के खिलाफ अपना विरोध दर्ज करवाया। यह टुकड़ी HMIS तलवार नामक ट्रेनिंग शिप पर तैनात थे।
यह अपने आप में एकलौती घटना नहीं थी। इस तरह के भेदभाव आम थे और इससे भी ज्यादा निराशाजनक नौसेना अधिकारियों की इन शिकायतों पर जरा भी ध्यान न देना था। अंततः इंडियन नेशनल आर्मी के लीडर्स पर चले रहे ट्रायल और नेताजी सुभाष चंद्र बोस की वीरता के किस्सों ने आग में घी का काम करते हुए नौसैनिकों को विद्रोह करने के लिए प्रेरित किया। उन्हें विश्वास हो चला था कि ब्रिटिश साम्राज्य अपराजेय नहीं है।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद आर्थिक और सैन्य रूप से कमजोर हो चुके ब्रिटिश राज्य को अब यह भलीभाँति समझ आ चुका था कि वे अब भारत पर शासन करने के लिए भारतीय फौजों पर विश्वास नहीं कर सकते और बिना फ़ौज भारत को गुलाम बनाए रखना मुमकिन नहीं था। पहले इंडियन नेशनल आर्मी का विद्रोह और फिर नौसैनिकों का यह विद्रोह इस बात की तरफ साफ़ इशारा था कि अंग्रेजों का समय भारत में पूरा हो चुका है। उनकी भलाई इसी में है कि जल्द से जल्द अपना बोरिया-बिस्तर समेट लौट जाएँ।
18 फरवरी 1946 को एमएस खान नामक नौसेनिक की अगुवाई में HMIS तलवार में विद्रोह शुरू हो गया जो जल्दी ही कराची के HMIS हिन्दुस्तान से होता हुआ कोच्चि, विशाखापत्तनम और कोलकाता तक फ़ैल गया। 19 फरवरी को मुंबई में विद्रोही नौसैनिकों ने ट्रकों में भर-भर पूरे मुम्बई का चक्कर लगाया। वे अपने प्रेरणा स्रोत सुभाष चंद्र बोस की तस्वीरें उठाए हुए थे। यह दृश्य ही काफी था इस बात की गवाही के लिए कि अब वे ब्रिटिश राज्य के सिपाही न होकर स्वतंत्र भारत के लिए लड़ने वाले सिपाहियों को रिप्रेजेंट करने वाले हैं।
सभी जहाजों से ब्रिटिश झंडे को नीचे कर दिया गया, ब्रिटिश अधिकारियों को अलग कर उन पर हमले हुए। नौसैनिकों के इस विद्रोह के समर्थन में न सिर्फ रॉयल इंडियन एयर फोर्स भी उतर आई, बल्कि ब्रिटिश राज्य की सबसे वफादार तलवार गोरखा रेजिमेंट ने भी कराची में विद्रोहियों पर गोली चलाने से मना कर दिया। जंगल की आग की तरह फैलते इस विद्रोह में आईएनए के 11,000 सिपाहियों को छोड़ने और जय हिन्द के लगते नारों ने आसमान गूँजा दिया।
पर अफ़सोस इस विद्रोह को पॉलिटिकल लीडरशिप ने कोई समर्थन नहीं दिया। कॉन्ग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों ने उनके इस कदम की आलोचना की। महात्मा गाँधी, जिन्ना सभी ने इस “असमय के विद्रोह” की आलोचना की थी। शायद इसका कारण राजनैतिक नेतृत्व के बीच इस प्रकार के विद्रोहों से पैदा असुरक्षा का भाव था जो ब्रिटिश नेतृत्व के समक्ष उनकी भूमिका को कमजोर करने वाला होता।
4 दिन तक चलने वाले इस विद्रोह को आसानी से दबा ले जाने में ब्रिटिश राज्य कामयाब तो हो गया, पर उसके मन में अब यह साफ़ हो चुका था कि उनके दिन अब लद चुके हैं। लेकिन इन नौसैनिकों के साथ आजाद भारत और पाकिस्तान दोनों ने इंसाफ नहीं किया। ब्रिटिश राज में इन्हें कोर्ट मार्शल और जेलें हुईं तो आजादी के बाद भी भारत और पकिस्तान सरकारों ने इन्हें हाशिए पर छोड़ दिया।