अयोध्या उन दिनों: मंदिर आन्दोलन और शहर की गलियाँ

दिनेश पाठक

अयोध्या में भगवान श्रीराम की जन्मस्थली पर भव्य मंदिर बनने के सभी रास्ते साफ़ हो चुके हैं| प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के हाथों 5 अगस्त, 2020 को शिलान्यास के बाद यह तारीख इतिहास में दर्ज हो जाएगी| मंदिर आने वाले कुछ वर्षों में तैयार हो जाएगा| तय है कि अब अयोध्या में देशी-विदेशी पर्यटकों की संख्या में तेजी से इजाफा होगा और हमारे सामने आने वाले कुछ वर्षों में एक नई अयोध्या होगी|
इस सबके बीच मेरी आँखों के सामने वह सब मंजर नुमाया हो रहा है जो मेरे कॉलेज के अंतिम दिनों में अयोध्या में चल रहा था| मैं आँखों देखी चीजों को संजोना चाहता हूँ| अपनों से साझा करना चाहता हूँ| अयोध्या की गलियों में अशोक सिंघल जी, विनय कटियार जी, पुरुषोत्तम नारायण सिंह जी, महंथ अवैद्यनाथ जी, उमा भारती जी समेत अनेक संत, महंथ और हिंदूवादी नेताओं का घूमना-टहलना हो या फिर लोगों से मेल-मुलाकात| सुरक्षा बालों को चकमा देना हो या गुपचुप मीटिंगें| सब इस कड़ी का हिस्सा बनाने का इरादा है|
कम लोगों को पता है कि मेरा पत्रकारिता में प्रवेश प्रभु श्रीराम जन्मस्थल आन्दोलन की वजह से ही हुआ| मुझे याद आता है वर्ष 1989-90 का आन्दोलन, जब उस जमाने में फैजाबाद का एक मात्र ठीक-ठाक होटल शाने-अवध पत्रकारों से भरा रहता| कमरों के अंदर से लेकर कई बार गलियारों में भी धमा-चौकड़ी देखी जाती| फैजाबाद के स्थापित पत्रकार श्री शीतला सिंह, श्री वीएन अरोरा, श्री वीएन दास, श्री त्रियुगी नरायण तिवारी समेत अनेक लोगों के घरों में भी टाइप राइटर की खटपट चलती रहती| तब टेक्नालोजी इतनी एडवांस नहीं थी| देशी-विदेशी पत्रकार या तो अपनी खबरें हाथ से लिखते या टाइप राइटर से| फिर सबके सब भागते पोस्ट ऑफिस की ओर| लाइन लगी रहती थी वहाँ शाम को| लोग वहीँ से या तो फैक्स करते या फिर टेलीप्रिंटर से भेजते|
मैं उन दिनों कामता प्रसाद सुंदर लाल साकेत महाविद्यालय कानून का विद्यार्थी था| बीए में मेरा एक विषय था मिलिट्री साइंस और विभाग के मेरे प्रिय शिक्षक थे डॉ वीएन अरोरा जी| वे मुझे बहुत मानते भी हैं आज भी लेकिन उस जमाने की बात कुछ और थी| मैं गुरु जी कहकर बुलाता और उनका प्यार यह था कि कॉलेज ख़त्म होने के बाद भी मैं उनके घर बराबर आता-जाता रहता| एक तरह से मेरा दूसरा घर था अमानीगंज स्थित कालोनी में गुरु जी का घर| अयोध्या के घर से मैं साइकल का पैडल कभी भी मारता तो गुरूजी के घर ही आकर रुकता| यहाँ पत्रकारों का मजमा लगा रहता| गुरूजी उस समय उसी हिंदुस्तान के लिए फैजाबाद से संवाददाता थे, जिसमें 1996 में स्टाफ रिपोर्टर भर्ती होकर महज 11 वर्ष की यात्रा में सम्पादक हुआ| सबसे ज्यादा खुश अगर कोई था उस शहर में तो गुरूजी ही थे| वे मेरी हर तरक्की का हिसाब रखते|
खैर, मैं पत्रकारों के मजमे की बात कर रहा था|गुरूजी का घर यूँ तो है सिर्फ दो कमरों का लेकिन उनका दिल बहुत बड़ा है| आगे के छोटे से कमरे में एक समय पर देशी-विदेशी पांच-छह पत्रकारों की बैठकी होती| वहीँ कॉपी लिखी जाती| गुरुजी से हिंदी-अंग्रेजी दोनों ही पत्रकार बात करना चाहते थे इनपुट के लिए, कारण यह था कि उनके पास सूचना तो होती ही थी, पेश करने का अंदाज बेहद रोचक होता|
भाषा के मामले में भी वे धनी हैं| हिंदी वाला हो या अंग्रेजी, सबको उन्हीं की भाषा में सूचना देते थे| उसे देखते, सुनते, समझते मेरा झुकाव कब पत्रकारिता की ओर चला गया, मुझे भी पता नहीं चला| देखते ही देखते ये देशी-विदेशी पत्रकार मुझे भी नाम से बुलाने लगे| गुरूजी के घर से पोस्ट ऑफिस की दूरी कोई तीन-चार किलोमीटर है|
कई बार फैक्स या टेलीप्रिंटर से कॉपी भेजने की जिम्मेदारी मेरी होती| मैं पोस्ट ऑफिस जाता और दूसरी ओर बैठक में सभी सीनियर जर्नलिस्ट थकान उतारने लगते| चूँकि, पोस्ट ऑफिस में लाइन लगती तो जितनी खबरें मेरे हाथ में होतीं, उन्हें पढ़ना, बार-बार पढ़ना आदत में शुमार था| बहुत ज्यादा आनंद तब आता, जब मेरी पढ़ी हुई खबर अगले दिन अक्षरशः अखबार में छपी हुई दिखती|