सर्वेश तिवारी श्रीमुख
नववर्ष की तमाम खबरों के बीच एक छोटी सी खबर यह भी थी कि पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा में भीड़ ने कुछ ही पलों में एक मंदिर को तोड़ दिया, जला दिया। इसके पीछे कोई बड़ा कारण नहीं था, बस काजी साहब ने ललकार दिया, लोगों का मूड बन गया सो मन्दिर तोड़ दिया गया। देश उनका है, कौन रोक सकता है उन्हें? पाकिस्तान के लिए यह कोई नई बात नहीं है, आजादी से बाद से आज तक वहाँ मन्दिर तोड़े ही गए हैं। एक दो नहीं, हजारों… अब तो गिनती के बीस-पच्चीस मन्दिर भी नहीं होंगे वहाँ। यह दशा केवल पाकिस्तान की नहीं है, बंग्लादेश की भी यही स्थिति है।
पाकिस्तानी हिन्दुओं की दुर्दशा का कारण समझना हो तो तनिक इतिहास की ओर नजर घुमा लीजिये। अंग्रेजों द्वारा किये गए बटवारे का स्पष्ट आधार धर्म था, और स्पष्ट रूप से हिन्दुओं के लिए हिन्दुस्तान और मुश्लिमों के लिए पाकिस्तान बना। आजादी के बाद जब पाकिस्तानियों के अत्याचार से त्रस्त हिन्दू लगातार भारत आते रहे तो तात्कालिक शासकों ने उन्हें रोकने के लिए एक झूठा खेल खेला जिसे लियाकत अली समझौता कहते हैं। तब दिल्ली में भारत के तात्कालिक प्रधानमंत्री पण्डित नेहरू और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री लियाकत अली के बीच 8 अप्रैल 1950 को एक समझौता हुआ जिसमें दोनों देशों ने वचन दिया कि वे अपने-अपने देश के अल्पसंख्यको के हितों की रक्षा करेंगे। उन्हें कोई परेशानी नहीं होने देंगे, उन्हें धर्म परिवर्तन करने पर विवश नहीं करेंगे। पाकिस्तान ने यह भी कहा कि जिन हिन्दुओं की स्त्रियों को अगवा किया गया है, हम उन्हें भी वापस कर देंगे। पर क्या आपको लगता है कि पाकिस्तान ने वहाँ के हिन्दुओं के हितों की रक्षा की?
नहीं। पाकिस्तान ने एक दिन भी अपना वादा नहीं निभाया। पाकिस्तान के लगभग सारे मन्दिर तोड़ दिए गए। हिन्दुओं के सारे अधिकार छीन लिए गए। 28% हिन्दू घट कर 1% हो गए, और जो बचे हैं वे दूसरे दर्जे के नागरिक हैं। पाकिस्तान लियाकत अली समझौते के वादे पर रोज ही थूक देता है।
वस्तुतः लियाकत अली समझौता बीसवीं सदी में हिन्दुओं के साथ हुए सबसे बड़े छल का नाम है, जिसमें पाकिस्तानियों के साथ साथ पण्डित नेहरू भी शामिल थे। 1947 से लगातार होते नरसंहार को देखने के बाद भी क्या पण्डित नेहरू यह विश्वास कर सकते थे कि पाकिस्तान में हिन्दुओं की रक्षा होगी? नहीं! सभी लोग यह समझ रहे थे कि भविष्य में पाकिस्तानी हिन्दुओं के साथ क्या व्यवहार होगा। पर उन्हें पाकिस्तान से रोज आ रहे हिन्दू शरणार्थियों को किसी भी कीमत पर रोकना था, और उन्होंने इस समझौते के बल पर उन्हें रोक दिया। नेहरू खुश हो गए कि चलो जान छूटी।
तनिक सोच कर देखिये उन लाखों लोगों के बारे में, आखिर क्या दोष है उनका? पूरे विश्व के सामने हुए बटवारे में उन्हें जो देश मिला उसने उन्हें नहीं अपनाया, और उस देश में मरने के लिए छोड़ दिया जो उन्हें अपना नहीं काफिर समझता है। पिछले सत्तर वर्षों से शोषण और प्रताड़ना झेल रहे उन लाखों लोगों का अपराधी कौन है? क्या केवल पाकिस्तान और पण्डित नेहरू?
नहीं। अपराधी हैं भारत की अबतक की वे सारी सरकारें भी, जिनमें उस क्रूर बटवारे के बाद भी भारत को हिन्दू होमलैंड कहने की हिम्मत नहीं थी। जो सत्तर वर्षों में कभी भी बाहें पसार कर अपने उन पीड़ित भाइयों से यह नहीं कह सके कि आओ मैं तुम्हें तुम्हारा अधिकार दिलाऊंगा। इन सत्तर वर्षों में भारत में करोड़ों बंग्लादेशी अवैध रूप से घुस कर स्थापित हो गए, पर उन कुछ लाख हिन्दुओं के लिए जगह नहीं बन सकी। और आज की स्थिति यह है कि कोई सरकार उन्हें उनका अधिकार दिलाने की दिशा में एक छोटा सा डेग बढ़ाती भी है तो तमाम कोशिशों के बाद भी वह कुछ कर नहीं पाती…
पाकिस्तानी हिन्दुओं की पीड़ा केवल कुछ लोगों की पीड़ा नहीं, बल्कि सभ्यता की पीड़ा है।… वहाँ किसी मंदिर पर किया गया प्रहार वस्तुतः भारत के स्वाभिमान पर किया गया प्रहार है। मूर्ख लोग देखें न देखें, समय देख रहा है।