अनुपम कुमार सिंह
खेती करने की आधुनिक प्रक्रिया, ज्यादा उत्पादन देने वाले बीज, नई तकनीक, नए उपकरण और कृषि क्षेत्र के साथ उद्योग का मिश्रण – क्या आप सोच सकते हैं कि अगर कोई सरकार किसी गरीब देश में घाटे में जाते किसानों के लिए ऐसा कुछ करना चाहे तो उसका विरोध होगा? जी हाँ, भारत में ‘हरित क्रांति’ का भी जम कर विरोध हुआ था। ठीक उसी तरह, जैसे आज ‘किसान आंदोलन’ चल रहा है, कृषि सुधार कानूनों के खिलाफ।
लाल बहादुर शास्त्री के रहते ही एक तरह से इस अभियान की शुरुआत हो गई थी, लेकिन उनके असामयिक निधन के पश्चात इंदिरा गाँधी कुर्सी पर बैठीं और ये उनके खाते में गया। ताज़ा कृषि सुधार कानूनों में दो कदम और आगे बढ़ कर किसानों को सीधा इंडस्ट्री से जोड़ा जा रहा है, कोल्ड स्टोरेज जैसे इंफ़्रास्ट्रक्चर पर ज्यादा निवेश होगा और कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में शर्तों को तय करने का अधिकार भी किसानों को ही दिया गया है।
हरित क्रांति के खिलाफ भी ‘किसान आंदोलन’: पढ़िए क्या कहा PM ने
राज्यसभा में बोलते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इसे याद किया। उन्होंने सोमवार (फरवरी 8, 2021) को कहा कि जब भी कोई नई चीज आती है तो असमंजस का माहौल रहता है। साथ ही उन्होंने हरित क्रांति के विरोध को भी याद किया। तब भी कई आशंकाएँ थीं, कई आंदोलन हुए – ये चीजें दस्तावेजों में वर्णित हैं। प्रधानमंत्री ने याद किया कि कैसे कृषि सुधारों में सख्त फैसले लेने के लिए शास्त्री कैबिनेट में कोई कृषि मंत्रालय लेना ही नहीं चाहता था। पीएम मोदी ने कहा:
“नेताओं को लगता था कि हाथ जल जाएँगे और किसान नाराज हो जाएँगे तो उनकी राजनीति ही समाप्त हो जाएगी। अंत में शास्त्री जी को, सुब्रमण्यम जी को कृषि मंत्री बनाना पड़ा था और उन्होंने सुधारों की बाते की, योजना आयोग तक ने भी उसका विरोध किया था। वित्त मंत्रालय सहित पूरी कैबिनेट के अंदर भी विरोध का स्वर उठा था। लेकिन, देश की भलाई के लिए शास्त्री जी आगे बढ़े। ये वामपंथी दल आज जो भाषा बोलते हैं, वही उस समय भी बोलते थे। वे यही कहते थे कि अमेरिका के इशारे पर शास्त्री जी ये सब कर रहे हैं।”
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने याद दिलाया कि कैसे वामपंथी हमेशा कहते रहते कि अमेरिका के इशारे पर कॉन्ग्रेस ये कर रही हैं, वो कर रही है। उन्होंने दशकों तक भारत में राज करने वाली कॉन्ग्रेस के नेताओं को याद दिलाया कि आज मेरे खाते में जमा है, वो सब वो पहले आपके बैक अकाउंट में था। उन्होंने याद किया कि कैसे अमेरिका का एजेंट कह दिया जाता था कॉन्ग्रेस के नेताओं को। कृषि सुधारों को छोटे किसानों को बरबाद करने वाला बताया गया था।
There was a huge cry in the country, to recall the Green revolution. No one was ready to become Agriculture minister in Shastriji’s time. Thousand protests were organized then, but Lal Bahadur Shastri moved forward and today we have surplus production.#PMinRajyaSabha pic.twitter.com/CK4EpuyFuc
— Prakash Javadekar (@PrakashJavdekar) February 8, 2021
फिर पीएम मोदी ने ध्यान दिलाया कि कैसे देश भर में तब हजारों प्रदर्शन आयोजित हुए थे। बड़ा अभियान चला था। इस माहौल में भी लाल बहादुर शास्त्री और उसके बाद की सरकार इस दिशा में आगे बढ़ती रही, उसी का परिणाम है कि जो हम कभी PL-480 मँगवा कर खाते थे, आज देश के किसानों के अपनी मिट्टी से पैदा की हुई चीजें खाते हैं। उन्होंने माना कि रिकार्ड उत्पादन के बावजूद भी हमारे कृषि क्षेत्र में समस्याएँ हैं।
जब हरित क्रांति को बता दिया गया था ‘रेड रेवोलुशन’
तब भी ‘किसान आंदोलन’ के पीछे यही वामपंथी पार्टियाँ ही थीं और उन्होंने तो हरित क्रांति की आलोचना करते-करते ये तक कह दिया था कि इसका ग्रीन आगे चल कर ‘रेड’ हो जाएगा। उन्होंने हरित क्रांति को खून से जोड़ दिया था। आइए, अब इसका बैकग्राउंड देखते हैं। 1957 के लोकसभा चुनावों में कॉन्ग्रेस को बहुमत तो मिला था, लेकिन CPI केंद्र से लेकर कई राज्यों में मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभर चुकी थी।
केरल में संयुक्त मोर्चे की वामपंथियों की सरकार बन चुकी थी और वो लैंड रिफॉर्म्स के मुद्दे पर आगे बढ़ रहे थे, जिसे कॉन्ग्रेस छूना ही नहीं चाहती थी। मौसम बिगड़ने और उत्पादन कम होने के साथ-साथ किसानों को अनाज का भाव न मिलने के बाद नेहरू ने कृषि समस्याओं पर अध्ययन के लिए एक अमेरिकी टीम का गठन किया। टीम ने पाया कि किसानों को उन्नत बीज, खाद, उपकरण, वैज्ञानिक सलाह और समर्थन मूल्य की ज़रूरत है।
सिंचाई के लिए आधुनिक तरीके अपनाने पर भी जोर था। इसे ‘जॉनसन रिपोर्ट’ के नाम से जाना गया, जिसमें कहा गया कि भारत में जिस हिसाब से जनसंख्या बढ़ रही है, उससे फ़ूड सप्लाई पर एक बहुत बड़ा दबाव आकर बैठ गया है। इतने लोगों का पेट भरना भविष्य में मुश्किल होगा। इसके बाद ‘एग्रीकल्चर डिस्ट्रिक्ट प्रोग्राम’ बना, जिसने ‘हरित क्रांति’ के आधार के रूप में काम किया। कुछ जिलों में रिपोर्ट के आधार पर कार्यवाही की योजना बनाई गई।
रिपोर्ट को तैयार करने के पीछे रही संस्था ‘फोर्ड फाउंडेशन’ ने माना था कि IDAP को लागू करने में लोगों ने उतनी सक्रियता नहीं दिखाई। इसके लिए जिन लोगों को जिम्मेदारी दी गई थी, वही सक्रिय नहीं रहे। अब समय आया लाल बहादुर शास्त्री का, जिन्होंने आते ही नेहरू प्रशासन से अपनी जगह बनानी शुरू की और अपने अनुभवों के आधार पर कृषि सुधारों को आगे बढ़ाया और कई नई योजनाएँ तैयार की।
लाल बहादुर शास्त्री ने योजना आयोग की शक्तियाँ कम की और निर्णय लेने की क्षमता अपने मंत्रियों को देकर प्लानिंग कमीशन को कैबिनेट की अडवाइजरी बना दी। इसके बाद सी सुब्रमण्यन को देश का कृषि मंत्री बनाया गया। उन्होंने ओपन मार्किट में सरकार द्वारा मार्किट प्राइस से अधिक पर अनाज खरीद कर स्टोर किए जाने का प्रस्ताव दिया। 1964 में ‘फ़ूड ग्रेन्स प्राइसेज कमिटी’ की रिपोर्ट के आधार पर ‘परमानेंट एग्रीकल्चर प्राइसेज कमिशन’ बनाया गया।
आगे की नीतियों में इस कमिशन की बड़ी भूमिका रही। इसका परिणाम ये हुआ कि न सिर्फ अनाज के दाम बढ़े और किसानों को अधिक भाव मिलने लगा, बल्कि उत्पादन भी बढ़ गया। कम्युनिस्ट शास्त्री से चिढ़ते थे। एक वामपंथी नेता हीरेन मुखर्जी ने तो उन्हें ‘स्प्लिट पर्सनालिटी’ तक कह दिया था, जिसके जवाब में शास्त्री ने कहा था कि वो इतने मासूम नहीं हैं, जितने दिखते हैं। वो सख्त फैसले लेने में विश्वास रखते थे।
खुद जयराम रमेश ने लिखा है कि कैसे कृषि विशेषज्ञ स्वामीनाथन ने सी सुब्रमण्यम को ज्यादा उत्पादन देने वाले बीजों के बारे में बताया था। गेहूँ की इन वराइटिज की खेती के खिलाफ जम कर विरोध प्रदर्शन हुआ। 1965 में 250 टन गेहूँ के बीज की इम्पोर्ट के लिए प्रयास किया गया। अगले ही वर्ष 1800 टन बीज आयात हुआ। 1965 में मानसून की खराब स्थिति ने कृषि क्षेत्र को और भी हाशिए पर धकेल दिया था।
तभी निर्णय लिया गया कि 1971 के बाद खाद्यान्न इम्पोर्ट नहीं किए जाएँगे और खेती को आधुनिक बनाया जाएगा। वैज्ञानिक पद्धतियों को जोड़ा गया कृषि में। लेकिन, वामपंथियों को इन मशीनों से भी नफरत थी और वो इन सबको विदेशी चाल बताते थे। आज की तरह ही कई आर्थिक विशेषज्ञों ने भी इसका विरोध किया था। वामपंथी दल कहते थे कि छोटे किसान बर्बाद हो जाएँगे। कैबिनेट तक में विरोध के बावजूद ये हुआ और सफल रहा, जिससे कृषि में बड़ा बदलाव आया।
इसीलिए, आंदोलनजीवियों को समझना चाहिए कि कृषि में सुधार के लिए और किसानों को और ज्यादा स्वतंत्रता देने के लिए जो कानून लाए गए हैं, उन्हें लेकर लोगों को न बरगलाएँ। अगर सच में इनमें कुछ गड़बड़ी होती तो 11 राउंड की वार्ता के बाद भी स्थिति जस की तस नहीं होती। ये उसी तरह राजनीतिक रूप से प्रेरित आंदोलन है, जैसे तब हुआ था। हरित क्रांति का विरोध करने वाले ही आज किसान आंदोलन के नाम पर अराजकता फैला रहे हैं।