धर्मनिरपेक्षता केवल कुछ समुदायों के लिये, हिन्दुओं पर थोपे गये कई कानून।
शाहिद राईन
किसी देश के संविधान के कुछ शब्दों की प्रस्तावना मात्र ही देश की समस्त विधाओं ( यथा राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि ) की संक्षिप्त जानकारी एक क्षण में ही दे देती है। भारतीय संविधान की शान उसके लोकतांत्रिक, समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष गुणों के कारण है। किंतु व्यवहारिक रूप से ये कितना लोकतांत्रिक? कितना समाजवादी? व कितना धर्मनिरपेक्ष है?
इस लोकतंत्र से अच्छा तो कुंभकर्ण था जो छह महीने में एक बार जग तो जाता था पर यहाँ लोकतंत्र साठ महीने में एक बार ही जगता है बाकी अधिकारियों और नेताओं के आगे प्रजा हाथ फैलाये खड़ी रहती है अपने अधिकारों के लिये मिन्नतें करती रहती है। इसी प्रकार समाजवाद व्यवहारिक रूप से बहुत ही परे है। समाजवाद के नाम पर कुछ राजनीतिक दल यहाँ पले और पोसे हैं , भले ही शुरुआती दिनों में वो कुछ समाजवाद के सिद्धांतों का अनुकरण कर बढ़े हों किंतु वास्तव में वो दल परिवारवाद तक सीमित होकर वंशवाद के बड़े अनुयायियों में से एक हो जाते हैं।
धर्मनिरपेक्ष शब्द भी सुनने में बहुत ही शुकुन देने वाला है। आप अपने-अपने धर्मों के अनुरूप चलने के लिये व उसके प्रचार-प्रसार के लिये स्वतंत्र है, कोई राज्य किसी भी व्यक्ति पर धर्म से संबंधित कोई चीज किसी भारतीय पर थोपेगा नहीं। धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार संविधान के भाग तीन, मूल अधिकार के तहत अनुच्छेद 25-28 में दिये है। लगभग सभी तरह के कानून के नियमन व उसकी रक्षा के लिये न्यायपालिका ही अभिभावक की तरह देश को अपना सहयोग देगी। विधायिका संविधान के आधार पर विधान का निर्माण व संशोधन करेगी। मूल अधिकारों के लिये तो संसद से भी बढ़कर अधिकार हैं उच्चतम और उच्च न्यायालय के पास।
एक ऐसा अभिभावक जो अपने ही पुत्रों के बीच भारी विभेद करता हो, उसे न्याय का प्रतिष्ठाता बना देना या मान लेना , यह बात कहाँ तक जायज है ? यह बातें निरक्षर भी बता देंगे। जहाँ अभिभावक एक पुत्र पर अपने नियम कानून थोप कर उसे संकुचित कर दे तथा दूसरे पुत्र की सारी इच्छाओं को वरद् स्वरूप प्रदान कर दे। इस तरह का यह द्वि बर्ताव क्यों??
ऐसी स्थिति में क्या वह परिवार खुशियों से ओत-प्रोत रहेगा या फिर कलह और विषादों से घिरा रहेगा? इस प्रश्न का उत्तर तो साधारणतः कोई भी दे सकता है। 68 सालों से ऐसी ही विकट स्थिति का सामना यह हिंद देश कर रहा है। कथित रूप में इस सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में अभिभावक की तरह भूमिका निभाने वाले इस सर्वोच्च न्यायालय और इसकी पूरक विधायिका ने भी देश के साथ कुछ ऐसा ही बर्ताव किया है व किया जा रहा है। लिखित रूप में दिखता धर्मनिरपेक्ष स्वरूप , देश की आजादी से लेकर अब तक व्यवहारिक रूप से धर्मनिरपेक्ष न होकर कुछ और है। एक मजहब की ओर माननीयों का झुकाव सदा से रहा। संविधान के अंतर्गत आने वाले कई कानून बहुसंख्यकों पर बगैर उनकी मर्जी के उन पर थोपते आये हैं। माननीयों के ऐसे कई निर्णय उनकी संस्कृति-विचारों तथा धर्म से परे होते हैं। कभी तथ्य रखा जाता है सामाजिक सुधार का..तो कभी महिला सशक्तीकरण व बराबरी का। गुलाम भारत की अवधि से ही बहुसंख्यक भारतवासियों ने अपने धर्म व संस्कृतियों में मी लार्डों की हाँ में हाँ मिलाते हुए रूढ़वादिता, परम्पराओं और संस्कृति को संशोधन के लिये परोस कर रख दिया। तब से लेकर आज तक सैकड़ों परिवर्तन हुए, इनके परिवर्तनों से उपजे नये कानून उन बहुसंख्यकों में आसानी से रोप दिया जाता रहा। साथ ही विश्व पटल में कई विषयों में कमी न होते हुए भी कमी का प्रदर्शन करवाया जाता रहा, और जल रूपी कुटिल प्रशंसा मात्र से हिन्दुओं ने विरोध की चिंगारी को कभी पनपने ही न दिया। संस्कृति, रूढ़ियों और परम्पराओं में कुछ सुधार की जरूरत थी न कि ऐसे बदलाव की कि वह लार्ड मैकाले के विचारों को स्थायित्व रूप प्रदान कर दे। अर्थात भारत को सदा वैचारिक गुलाम बना दे, विकास, मानवता और समानता की दुहाई देकर हमें इतना आगे बढ़ा दिया गया जहां से हमारी संस्कृति व सभ्यता तो काफी पीछे रह गयीं किन्तु कुछ हाई-फाई सोसायटी को छोड़कर हम पश्चिमी सभ्यता के रंग में भी न रंग पायें।
कई ऐसे कानून जो हिंदुओं पर रोपे गये थोपे गये किन्तु मुस्लिमों के लिये खुलकर सपोर्ट किया गया। आखिर यह क्या प्रदर्शित करता है? आयरन लेडी का सख्ती से लागू किया गया नसबंदी कानून हो या भारतीय तलाक कानून या फिर एक विवाह कानून या बाल विवाह कानून और भी कई कानून जो हिंदुओं पर मढ़ दिये गये। जब सभी भारतीय एक हैं तो इस हवाले से सबके लिये समान कानून होना चाहिये। किंतु “2006 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी ने कहा कि देश के संसाधनों में पहला हक मुस्लिमों का है।” एक प्रधानमंत्री के द्वारा यह विवादित बयान। संविधान में उल्लेखित समान नागरिकता का सरासर अपमान था।
अभी हाल ही में एक उच्च न्यायालय ने एक 15 वर्षीय मुस्लिम लड़की की शादी को वैध माना, वह बालविवाह की श्रेणी में नहीं था। क्या वह अभी बच्ची नहीं थी, संविधान ही तो 18 के होने के पहले तक नाबालिग मानता है फिर मुस्लिमों की 14 वर्ष से 17 वर्ष की बच्चियां शादी के लिये बालिग क्यों? क्या यहां मानवता व सामाजिक सुधार की जरूरत महसूस नहीं हूई।
तीन तलाक को राजनीतिक मुद्दा बताते हुए कुछ राजनीतीक दलों को अपने अतीत का आईना देखते हुए उसी में डूब मरना चाहिये। क्या यह सामाजिक सुधार नहीं, अन्य मुस्लिम देशों में तीन तलाक में पाबंदी है तब वहां इस्लाम खतरे में नहीं, यहां भी नहीं है बस कुछ राजनीतिक दल अपना उल्लू सीधा करने के लिये इस बड़े सामाजिक सुधार का विरोध कर रहे हैं। और माननीय कोर्ट को यहां स्वतः संज्ञान नहीं होता कि मानवाधिकार, महिला सशक्तिकरण व समानता का अधिकार यहां दबा-कुचला हुआ है। यह कैसा भेद??
यदि धर्म निरपेक्षता को ज्यादा महत्व दिया जाना चाहिये तो हिंदुओं के धर्म व संस्कृति पर माननीयों को प्रहार करना कहाँ तक न्यायसंगत है। धारा 377 व 497 में संशोधन का फिर क्या औचित्य था। राम के आदर्श से ही एक विवाह का चलन आया और संविधान ने इसे हिंदुओं के लिये ग्रहण किया। इन्हीं राम का महान आदर्श “परनारि मात समान” को ताक पर रखते हुए दूसरे की पत्नी से संबंध बनाना वैध कर दिया गया। सुप्रीम वाकई में सुप्रीम है। किंतु हर एक देश की पहचान उसकी संस्कृति से होती है और संस्कृति की रक्षा करना राजा और सुप्रीम का कर्तव्य है। यह जल्दबाजी यह कानून का थोपना और रोपना बराबरी से समानता से होता तो शायद किसी के पास शिकायत का मौका न होता।
मस्जिदों पर मुस्लिम औरतों को नमाज पढ़ने का भी शायद माननीयों ने कभी जिक्र किया हो या इस पहलू को कभी छुआ हो। किंतु सबरीमाला मंदिर और शनि सिंगुणा मंदिर पर फैसला तपाक से आता है समानता और बराबरी की दुहाई लेकर। तो क्या हिंदु स्त्री को ही समान या बराबर होने का अधिकार है हिन्दू पुरुषों के सापेक्ष। या फिर मुस्लिम औरतों को भी बराबर होने का अधिकार है मुस्लिम पुरुषों के सापेक्ष। कई मातायें बहनें और बेटियां मजबूरीवश बुर्का पहनने को मजबूर होती हैं। यहां समानता व बराबरी का मसला नहीं दिखाई देता। यहाँ इस विषय पर धर्मनिरपेक्षता हावी हो जाती है।
न्याय की परिभाषा जब राजनीतिक गलियारे से तय होनी है तो न्यायपालिका के स्वतंत्र निकाय का क्या औचित्य? हर एक देश का संविधान सर्वोपरि होता है तो फिर इस देश के संविधान के रक्षक धर्म निरपेक्ष इस देश को अब तक मुस्लिम राष्ट्र सा क्यूं माने हुए रहे?? उत्तर जन-जन के पास है, वजह केवल और केवल राजनीति! हाँ! न्यायपालिका में राजनीति का अड़ंगा। दुनिया में ईसाई और मुस्लिम देशों की संख्या बहुतायत में है जबकि हिंदू देश कोई भी नहीं। विश्व परिप्रेक्ष्य में तो हिंदू अल्पसंख्यक ही हैं। उनकी संस्कृति, उनके धर्म व सभ्यता का संरक्षण तो उन्हें खुद के इकलौते देश में मिलना चाहिये। किन्तु पश्चिमी सभ्यता को कई माननीय विकास की सही परिभाषा माने हुए हैं। सरकारें बदली जरूर हैं, उम्मीदें बढ़ी जरूर हैं किन्तु अब न्यायपालिका और विधायिका में टकराव की स्थिति उत्पन्न होने लगी है। पहले न्यायपालिका के पश्चिमी प्रेम के चलते कांग्रेसी सरकार खुश रहती थी किन्तु अब भगवा सरकार को उसके फैसले कहीं धर्मविरोधी कहीं संस्कृति व सभ्यता विरोधी समझ में आ रहे हैं तो बहस का मुद्दा बन जाता है। ऐसे में न्यायपालिका महसूस करती है कि उस पर विधायिका संक्रमण कर रही है और दूसरी ओर विधायिका को कई मामलों पर लग रहा है की न्यायपालिका उस पर संक्रमण कर रही है।
इस विश्व में अध्यात्म प्रधान रहे इस देश को कई महापुरुषों, संतों व मुनियों ने अपने आचरण से सुशोभित किया है। इन सभी के आदर्शों पर कहीं न कहीं श्री राम की छाप विद्यमान रही। अपने चरम दौर पर विश्वगुरू यूं ही नहीं था भारत! उसके लिये राम के आदर्शों और अध्यात्म की बहुत बड़ी भूमिका थी। सिद्ध व ऐतिहासिक पुरुषों का राम-राम का जपना, साई बाबा जैसे देव आत्माओं द्वारा राम-राम का जपना राम के अस्तित्व को सदा बल प्रदान करता रहा है।
किन्तु राम की जन्मस्थली में राम का मंदिर केवल मुद्दा बनकर रह गया है। 1526 में आये मुगल आक्रांता बाबर के सेनापति मीर बाकी ने अयोध्या में उपस्थित रामकोट पहाड़ी पर स्थित राममंदिर को धरातल में मिलाकर बाबरी मस्जिद का निर्माण कराया। इतिहास में कई ऐसे तथ्य मौजूद हैं जो यह बताते हैं कि मुस्लिम आक्रांताओं ने कैसे और न जाने कितने मंदिरों को ध्वस्त कर के मस्जिदों का निर्माण कराया, क्या यह विश्व नहीं जानता? किन्तु कहीं और मंदिरों के पुनर्स्थापन की मांग यहाँ के हिन्दुओं ने नहीं की। उन्हें लगाव था अपने आराध्य के जन्मस्थली में निर्मित राम मंदिर का। किन्तु तब जब इसे विध्वंस किया गया तब और तब से 330 सालों से भारत पर इस्लामिक पताका लहरा रही थी, उन आक्रांताओं के डर से आमजनमानस विरोध नहीं कर पाया। किन्तु अंग्रेजों के आने से जैसे ही मुगल व्यवस्था चरमराने लगी तब 1853 में राममंदिर के निर्माण की परिकल्पना पुनः बलवती होने लगी। विवाद को देखते हुए तब के ब्रितानी हुकूमत ने 1859 में फैसला लेते हुए हिन्दुओं को भी पूजा करने की भी अनुमति दे दी। फिर 90 वर्षों पश्चात आजादी के बाद 1949 में यहाँ मूर्ति स्थापित कर दी गयी, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने बहुसंख्यकों के विरोध में फैसला लेकर मूर्ति हटवाने का आदेश दिया, किन्तु मौके की नजाकत को समझते हुए वहाँ के आला अधिकारियों ने गेट पर ताला लगाना ही ज्यादा उचित समझा। अब यह विवादित स्थल दोनों समुदायों के लिये बंद हो चुका था। 1985 में राजीव गांधी के सरकार के दौरान ताला पुनः खोला गया और हिन्दुओं को पूजा करने की अनुमति मिल गयी। जिसके विरोध में बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी बनाई गयी। 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद गिरा दी गयी। परिणामस्वरूप देश में कई जगह दंगे हुए और लगभग दो हजार लोगों ने अपनी जान गँवा दी। इसकी जाँच के लिये तीन महीने के लिये गठित लिब्रहान आयोग ने 700 पेज की रिपोर्ट तैयार की वो भी 17 साल में। इस महत्वपूर्ण मसले को 70 सालों से न कोर्ट हल कर पायी न संसद। यह केवल राजनीतिक दलों के लिये मुद्दा बनकर रह गया। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदलने का चलन मोदी सरकार ने कर दिखाया वो भी उस मामले पर जिस पर समस्त दल खामोश रहते। एससी-एसटी एक्ट! किन्तु राम मंदिर का भी मसला कोर्ट में जरूर है किन्तु बीजेपी के दिग्गज राज्यसभा में अपनी कमी का रोना रोने से नहीं चूकते। लोकसभा में बहुमत है आप वहां से तो शुरूआत कर ही सकते हैं। संविधान में बहुत से चोर दरवाजे हैं बहुत से छेद हैं आप विधेयक नहीं तो अध्यादेश तो ला ही सकते हैं किन्तु सबको हिन्दुओं की भावनाओं से खेलने का परमिट मिला हुआ है।
बाबर मुस्लिमों का खुदा नहीं किन्तु राम हिन्दुओं के आराध्य, ईश्वर जरूर हैं। शायद इस बात को विश्व पटल जानता है और मानता भी है किन्तु माननीयों के लिये यह एक मिथक है। भारतीय जनता आजादी के बाद भी 70 सालों से धैर्य का परिचय दे रही है यही आदर्श हैं राम के। किन्तु राम के आदर्श और भी हैं धैर्य के बाद शस्त्र उठाना। हाँ! माननीयों द्वारा उनके धैर्य का प्रतिफल दे दिया जाये अन्यथा की स्थिति में राम के ये अनुयायी कहीं पुनः शस्त्र न उठा लें। देश व उसके राज्यों में भगवा रंग का विस्तार हिन्दुओं की एकता को प्रदर्शित कर रहा है उसको अनदेखा करना देश में कलह की स्थिति उत्पन्न कर देगा। कुछ राजनीतिक दल और सेक्युलर लोगों को राम से इत्तेफाक इसलिये नहीं रह गया कि राममंदिर के लिये बोलने पर उनके साथ जुड़ा मुस्लिम वोट बैंक छिटक जायेगा। किन्तु कई मुस्लिम नेताओं का मानना है की राम मंदिर बन जाना चाहिये क्योंकि वो हिन्दुओं के आराध्य हैं, हमारे लिये बाबर आराध्य नहीं है। बहुत से मंदिरों को तोड़कर मस्जिदें बनी हैं बहुत से तथ्यात्मक साक्ष्य भी उपलब्ध हैं किन्तु केवल एक मंदिर के लिये ही एक शताब्दी से प्रयासरत है यह हिन्दू समुदाय। किन्तु उनके देश में वो व्यवहारिक रूप से खुद दोयम दर्जे में जी रहे थे। यह दोयम दर्जा सरकारों द्वारा व माननीयों द्वारा धीरे-धीरे जबरन मढ़ा गया। और कब बहुसंख्यक अपने ही देश में पराये हो गये पता ही न चला। लेकिन 2014 के बाद से मोदी सरकार आने के बाद थोड़ा सा ही उन हिन्दुओं का ही हक प्रदान करने की स्थिति अन्य दलों को रास नहीं आ रही। पश्चिम से ग्रस्त न्यायपालिका को भी यह रास नहीं आ रहा।
क्यों न राम मंदिर का निर्माण हो ही जाये जिससे राजनीतिक दलों के पास मुद्दे न रह जायें और फिर वो सही मायने में विकास की ओर अग्रसर हो। एक दल को वोट इसलिये मिलता है कि ये आयेगी तो राम मंदिर नहीं बनेगा और एक को इसलिये मिलता है कि यह आयेगी तो राम मंदिर बनेगा। अस्पताल, स्कूल तो बनाये ही जा रहे हैं जगह-जगह। पर रामजन्मभूमि में राम मंदिर बनने से न बीजेपी की जीत होगी न हिन्दुओं की बल्कि यह भारतियों की वास्तविक जीत होगी। इसके बाद तो विकास की वजह से राजनीति होगी। जिससे सभी को लाभ प्रदान होगा। क्योंकि सही मायने में भारत तभी विकास के पथ पर अग्रसर होगा।