रुपये का गिरना समस्या है तो वरदान भी

मैं सोचता हूं कि इस बात को कितने लोग समझते होंगे कि जापान और चीन ने कैसे जानबूझकर अपनी मुद्राओं की कीमत कम रखी- सिर्फ इसलिए ताकि निर्यात बाजार में उनके उत्पाद धूम मचा सकें। अब यह तो सभी लोग जानते होंगे कि इन दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाओं ने पिछले 5० सालों में चामत्कारिक रूप से आसमान छुआ है। चीन और जापान ने जानबूझकर अपनी करंसियों को कमजोर क्यों किया? क्योंकि शुरुआती दौर में सस्ती करंसी ने उनके अपने टेक, अप्रतिस्पर्धी अर्थव्यवस्थाओं की हिफाजत की। इस बीच उन्हें अपने औद्योगिक आधार को आधुनिक और उत्पादक बनाने के लिए पर्याप्त समय मिल गया । लेकिन यहां हम

राजेश श्रीवास्तव
देश के लिए इस सप्ताह बुधवार को एक बड़ी खबर आयी जो बड़े संकट की ओर इशारा कर रही है तो कुछ अच्छे संकेतों को भी दिखा रही है। शायद यह पहली बार हुआ है कि भारत की करेंसी रुपये की कीमत में गिरावट सर्वोच्च स्तर पर पहुंच गयी। रुपये की कीमत डालर के मुकाबले तकरीबन 8० रुपये के आसपास पहुंच गयी। इस गिरावट का असर निकट भविष्य में देखने को मिलेगा। देश में आयात और महंगा हो जायेगा। महंगाई भी बढ़ेगी। खुद इस बात की आशंका वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भी जाहिर की है।
वित्त मंत्री ने स्वीकार किया कि रुपये की कीमत गिरने से आयात पर तात्कालिक असर पड़ेगा और आयात अधिक महंगा हो जाएगा। रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद पिछले कुछ महीनों में रुपये की कीमत में लगातार गिरावट आती रही है। रिजर्व बैंक की बृहस्पतिवार को जारी वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट में भी कहा गया था कि अन्य मुद्राओं की तुलना में रुपये ने डॉलर के मुकाबले में कहीं बेहतर प्रदर्शन दिखाया है।
वैसे रुपये को समर्थन देने से विदेशी मुद्रा भंडार में पिछले चार महीनों में 4०.94 अरब डॉलर की कमी हो चुकी है। लेकिन रुपये में गिरावट के चलते विदेशी निवेशकों ने इस कैलेंडर वर्ष में 3० बिलियन डॉलर वापस खींच लिए हैं। भारत को चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में 7० बिलियन डॉलर का व्यापार घाटा हुआ है। हमारा विदेशी मुद्रा भंडार 5० बिलियन डॉलर गिरकर 6०० बिलियन डॉलर हो गया है। करीब 27० बिलियन डॉलर के विदेशी कर्ज का बोझ हमारे कंधों पर है जिसे नौ महीने के भीतर चुकाना है। ऐसे में सोचिए कि डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत 8० के इस पार होगी या उस पार?
यह आने वाले समय में ही पता चलेगा कि हमें कैसा नुकसान हुआ है। वैसे देखा जाए, तो ईंधन की कीमतों में बढ़ोतरी का सरकार पर ज्यादा असर नहीं पड़ा है; रुपये में गिरावट का भी सरकार पर कोई असर पड़ने की संभावना नहीं है। आम आदमी के लिए पहले ही जीवन कठिन है और आने वाले समय में उसकी मुश्किल बढ़ने ही वाली है। शेयर बाजारों में भी गिरावट है, लेकिन उसे गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है, क्योंकि विदेशी निवेशक कमजोर रुपये के कारण यहां से जा रहे हैं। इसके अलावा शेयर बाजारों से सिर्फ तीन करोड़ लोगों का ताल्लुक है, बाकी बचे भारतीय हैं, जिन्हें कमजोर रुपये और उच्च मुद्रास्फीति की दोहरी चुनौती से जूझना होगा। विदेशों में पढ़ने वाले लाखों भारतीय छात्रों को देखते हुए साफ है कि इसका विदेशी शिक्षा पर भी असर पड़ेगा।
अलबत्ता अप्रवासी भारतीयों (एनआईआई) के लिए यह अच्छी खबर है। कमजोर रुपये का मतलब है कि स्वदेश भेजने वाले प्रत्येक डॉलर पर उन्हें अब अधिक रुपये मिलेंगे। सिर्फ भारतीय रुपया अकेली मुद्रा नहीं जिसमें गिरावट आई है। यहां तक कि येन (जापान), युआन (चीन), पाकिस्तानी रुपया के साथ ही बांग्लादेश तथा श्रीलंका की मुद्राएं नीचे गिर रही हैं। यह चिता का विषय है और हालांकि सरकार सीधे तौर पर कुछ नहीं कर सकती है, वह नुकसान को नियंत्रित करने के लिए कदम उठा सकती है। यह तो नुकसान हुआ ही है, लेकिन तस्वीर का दूसरा रुख भी है।
अब यह भी है कि कमजोर रुपये के कारण भारत के निर्यात में वृद्धि के लिए यह एक अच्छा समय है, लेकिन मुश्किल यह है कि हम वैसे भी वैश्विक व्यापार में उस स्तर का निर्यात नहीं करते हैं, जो अन्य देशों को भारत से आयात करने के लिए आकर्षित करे।
ईंधन की लागत और मुद्रास्फीति पहले ऐसे संकेतक हैं, जिसका सीधा असर आम आदमी पर पड़ रहा है और पड़ेगा। इसका असर अर्थव्यवस्था के दूसरे हिस्सों पर भी पड़ेगा। युद्ध ने तेल के निर्यात को अनिश्चित काल तक के लिए कठिन बना दिया है और यह कोई नहीं जानता कि हालात कब बेहतर होंगे। भारत के पास डॉलर का पर्याप्त भंडार है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि चीजें बहुत अच्छी हैं। भारतीय रिजर्व बैंक रुपये की मजबूती के लिए कुछ कदम उठा सकता है, मगर ब्याज दरों में वृद्धि करने से मुद्रास्फीति में आई तेजी से वह पहले ही जूझ रहा है। सरकार गिरते रुपये को उठाने के लिए कुछ झटके दे सकती है, लेकिन इस समय वह ऐसा कुछ करेगी लगता नहीं, क्योंकि इसका प्रभाव व्यापार पर पड़ेगा।
मैं सोचता हूं कि इस बात को कितने लोग समझते होंगे कि जापान और चीन ने कैसे जानबूझकर अपनी मुद्राओं की कीमत कम रखी- सिर्फ इसलिए ताकि निर्यात बाजार में उनके उत्पाद धूम मचा सकें। अब यह तो सभी लोग जानते होंगे कि इन दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाओं ने पिछले 5० सालों में चामत्कारिक रूप से आसमान छुआ है। चीन और जापान ने जानबूझकर अपनी करंसियों को कमजोर क्यों किया? क्योंकि शुरुआती दौर में सस्ती करंसी ने उनके अपने टेक, अप्रतिस्पर्धी अर्थव्यवस्थाओं की हिफाजत की। इस बीच उन्हें अपने औद्योगिक आधार को आधुनिक और उत्पादक बनाने के लिए पर्याप्त समय मिल गया । लेकिन यहां हम अपने आधे-अधूरे ज्ञान का इस्तेमाल रुपये में गिरावट पर अफसोस जताने के लिए कर रहे हैं। इस दौरान हम यह भूल रहे हैं कि चीन ने किस तरह हमें शिकस्त दी है। सोचिए, सिर्फ तीन दशक पहले, हमारी जीडीपी चीन के बराबर थी।
हमारी प्रति व्यक्ति आय भी उससे ज्यादा थी। लेकिन आज चीन की अर्थव्यवस्था 2० ट्रिलियन डॉलर की है और हम हर मंच पर अपने 3 ट्रिलियन डॉलर के आसपास की अर्थव्यवस्था का ढिढोरा पीटने की वजह ढूंढ रहे हैं । सच कहूं तो अगर अर्थव्यवस्था का विकास ही हमारे लिए राष्ट्रीय गौरव है तो हमें प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने पर जोर देना चाहिए, न कि रुपए को ‘मजबूत’ रखने पर। क्योंकि हम चाहें भी तो इसको नियंत्रित नहीं कर सकते हैं। प्रतिकूल प्रभाव तो सार्वभौमिक और निर्विवाद है कि रुपये में गिरावट से आयातित वस्तुएं कुछ समय के लिए महंगी हो जाएंगी।
तेल की कीमतें, उर्वरक, पूंजीगत वस्तुओं का निवेश सब महंगा हो जाएगा- आयात के लिए ज्यादा कीमत चुकानी पड़ेगी। तो, कोई शक नहीं कि कमजोर रुपये का एक भयानक नतीजा आयातित मुद्रास्फीति है। विडंबना यह है कि एक डॉलर को खरीदने के लिए जैसे-जैसे ज्यादा से ज्यादा रुपये की जरूरत होती है, तो धीरे-धीरे यह पहिया उलटने लगता है। भारतीय एसेट्स और निवेश, जिन्हें पहले महंगा होने के लिए छोड़ दिया गया था, अब आकर्षक लगने लगते हैं। रुपए में गिरावट के कारण माल एवं तेलों के महँगे होने के अलावा विदेशों में भ्रमण अधिक महँगा हो जाता है क्योंकि भारतीय पर्यटकों को डॉलर के मुकाबले अधिक रुपए अदा करने पड़ते हैं। इसके विपरीत घरेलू पर्यटन में वृद्धि हो सकती क्योंकि अधिकतर पर्यटक इस दौरान भारत आते हैं क्योंकि उनकी मुद्रा अब और अधिक खरीद कर सकती है।
(लेखक सरिता प्रवाह के संपादक हैं। )