नई दिल्ली। अशोक गहलोत का नाम हटने के बाद कांग्रेस अध्यक्ष पद के दावेदारों में दिग्विजय सिंह और शशि थरूर ही मैदान में बचे थे. दिग्विजय ने केरल से दिल्ली आकर नामांकन पत्र भी ले लिया था और उनके प्रस्तावों की लिस्ट भी तैयार थी. ऐसे में कांग्रेस अध्यक्ष के लिए पूर्व मंत्री मल्लिकार्जुन खड़गे ने सोनिया गांधी से मिलने के बाद चुनावी मैदान में उतरने के लिए ताल ठोका, जिसके बाद दिग्विजय ने अपने कदम पीछे खींच लिए हैं. इस तरह से खड़गे भले ही छुपे रुस्तम साबित हुए, लेकिन सवाल उठता है कि क्या दिग्विजय के चुनाव लड़ने के ऐलान से गांधी परिवार ‘डर’ गया था.
दिग्विजय सिंह कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ने के लिए भारत जोड़ो यात्रा छोड़कर दिल्ली आ गए थे. चुनाव लड़ने के लिए बकायदा नामांकन पत्र भी ले लिया था और चुनाव लड़ने का दम भर रहे थे. मध्य प्रदेश में उनके करीबी नेताओं की लिस्ट भी सामने आ गई थी, जो नामांकन के लिए उनके प्रस्तावक बनने को तैयार थे. ऐसे में आखिर क्या वजह रही कि दिग्विजय सिंह खड़गे के खिलाफ चुनाव लड़ने से पीछे हट गए.
राजस्थान के सियासी घटनाक्रम और गहलोत से कांग्रेस हाईकमान का विश्वास टूटने के बाद खड़गे पार्टी अध्यक्ष पद के लिए पहली पसंद बनकर उभरे. गहलोत के मैदान छोड़ते ही मल्लिकार्जुन खड़गे ने ताल ठोक दी है. खड़गे कर्नाटक से आते हैं और दलित समुदाय से हैं. वो जमीनी नेता रहे हैं और लंबा सियासी अनुभव है. छात्र राजनीति से आए खड़गे ने मजदूरों के हक लंबी लड़ाई लड़ी और 8 बार विधायक और तीन बार सांसद बने.
खड़गे राज्य से लेकर केंद्र तक में मंत्री रहे और नेता प्रतिपक्ष के तौर पर संसद में भूमिका निभाई है. कांग्रेस के लिए सियासी और क्षेत्रीय समीकरण के लिहाज से भी खड़गे फिट बैठते हैं. माना जा रहा है कि कांग्रेस उनके जरिए दलित कार्ड खेलने की कवायद में हैं. दलित समाज से आने वाले खड़गे को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाकर देश भर में सियासी संदेश देने की रणनीति है तो दक्षिण से लेकर उत्तर तक को साधने का दांव.
मुकुल वासनिक दलित समुदाय से आते हैं और पार्टी के दिग्गज नेता है. वो कांग्रेस के उस जी-23 के नेताओं में शामिल रहे हैं, जिन्होंने 2020 में कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी को पत्र लिखा था. पत्र में जी-23 नेताओं ने पार्टी में आमूल-चूल बदलाव लाने की वकालत की गई थी. मुकुल वासनिक भी उस खत पर हस्ताक्षर करने वालों में शामिल थे. इसके अलावा गहलोत के साथ भी उनके रिश्ते हैं. माना जा रहा है कि इसीलिए मुकुल वासनिक का नाम बाहर हो गया है जबकि कुमारी शैलजा हरियाणा के प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर सफल नहीं रही.
बता दें कि मल्लिकार्जुन खड़गे का जन्म कर्नाटक के बीदर जिले में एक दलित परिवार में हुआ था. छात्र राजनीति से अपनी सियासी पारी शुरू करने आए खड़गे ने 1969 में कांग्रेस में कदम रखा और मजदूरों की हक की लड़ाई को धार दिया. हिंदी पट्टी से दूर कर्नाटक में आठ बार विधायक, दो बार लोकसभा और फिलहाल राज्यसभा सदस्य हैं. कर्नाटक की सियासत में उन्हें 2013 में मुख्यमंत्री का चेहरा माना जा रहा था, लेकिन सिद्धारमैया के चलते नहीं बन सके. हालांकि, यूपीए सरकार के दौरान केंद्र में रेलमंत्री और श्रम विभाग के मंत्री रहे.
गहलोत के सियासी उत्तराधिकारी चुनने के लिए कांग्रेस हाईकमान ने मल्लिकार्जुन खड़गे को अजय माकन के साथ जयपुर पर्यवेक्षक बनाकर भेजा था. जयपुर में हुए सियासी घटनाक्रम में गहलोत खेमे के विधायकों ने अजय माकन को जिम्मेदारा ठहराया, लेकिन खड़गे की तारीफ करते नजर आए. शांति धारीवाल से लेकर महेश जोशी तक ने कहा कि माकन सडयंत्र कर रहे थे पर खड़गे ने हमारी बातें गंभारती से सुनी. गहलोत के चुनावी मैदान में बाहर निकलने के बाद खड़गे की इंट्री हुई और दिग्विजय ने मैदान छोड़ दिया.
खड़गे के जरिए दलितों को संदेश
SC-ST संसदीय सीटों का समीकरण
देश की कुल जनसंख्या में 20.14 करोड़ दलित हैं. कुल 543 लोकसभा सीट हैं, जिनमें से 131 सीटें रिजर्व है. 84 लोकसभा सीटें अनुसूचित जाति और 47 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं. दलित और आदिवासी बहुल इन सीटों पर कभी कांग्रेस अपना एकाधिकार समझती थी, लेकिन यह वर्चस्व टूट गया है. बीजेपी का सियासी ग्राफ बढ़ा है और 2014-2019 के लोकसभा में चुनाव नतीजे से साफ जाहिर होता है. अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लिए सुरक्षित 131 लोकसभा सीटों में से 77 सीटें बीजेपी के पास हैं जबकि 2014 में 67 सीटें उसे मिली थी.