जो आईटी कंपनियां पहले भर-भरकर पैसे और ल्गजरी जिंदगी देने के लिए जानी जाती थीं, वे अपने कर्मचारियों को बेरहमी से निकाल रही हैं. 50 फीसदी लोगों को निकालने वाले ट्विटर की चर्चा खूब है, लेकिन मेटा यानी फेसबुक, सिस्को, अमेजन और नेटफ्लिक्स से भी ले-ऑफ हो चुका. आमतौर पर ऐसा तभी होता है, जब कंपनी घाटे में जा रही हो. मंदी की आहट भी एक वजह होती है, जो आम लोगों से बहुत पहले कंपनियों को सुनाई पड़ जाती है.
क्या है मंदी और कब आती है?
जैसा कि नाम से जाहिर है, मंदी यानी मंद पड़ जाना. इकनॉमी की बात करें तो जब किसी देश की अर्थव्यवस्था एकदम से धीमी पड़ जाए. जीडीपी गिरने लगे और ये हालात लगातार दो क्वार्टर तक बने रहे तो माना जाता है कि देश में आर्थिक मंदी आ चुकी है. युद्ध, गृह युद्ध, बीमारी जैसे कई हालात इसके लिए जिम्मेदार होते हैं. मिसाल के तौर पर हाल ही में दुनिया ने कोविड महामारी झेली. सालभर से ज्यादा वक्त से यूक्रेन-रूस लड़ाई चल रही है. अरब देशों में लगातार गृह युद्ध जैसे हालात बने रहते हैं. इस सबका मिला-जुला असर बाकी देशों की अर्थव्यवस्था पर भी दिख रहा है.
क्या होता है मंदी आने पर?
इस दौरान लोगों की नौकरी जाने लगती है, महंगाई बढ़ जाती है, यहां तक कि खरीद-फरोख्त भी कम हो जाती है. इसके साथ ही लोगों का खर्च बढ़ जाता है. ये इसलिए नहीं कि मंदी के बाद भी लोग घर-दुकान खरीदते हों, बल्कि बेसिक जरूरतें ही इतनी महंगी हो जाती हैं कि खर्च अपने-आप बढ़ जाता है.
कौन बताता है कि मंदी आ चुकी?
हम-आप जैसे लोग महंगाई ही समझते रहते हैं, जब तक कि अर्थशास्त्री न बता दें कि भई, अब चेत जाओ, मंदी आ चुकी. वैसे तो हर देश में इसका अलग पैमाना होता है, लेकिन अगर दुनिया के सबसे ताकतवर देश का उदाहरण लें तो अमेरिका में नेशनल ब्यूरो ऑफ इकनॉमिक रिसर्च ये पक्का करता है. ये 8 लोगों की टीम है, जो लगातार देश की इकनॉमी पर नजर रखती है, और तभी मंदी या तेजी बताती है.
क्या बच रहा है अमेरिका?
वैसे दिलचस्प बात है कि अमेरिकी जीडीपी पिछले दो क्वार्टर में कुछ कमाल नहीं कर पाई, बल्कि निगेटिव में ही है. हाल में अमेजन के फाउंटर और पूर्व सीईओ जेफ बेजोस ने भी लोगों को बड़ी खरीदी से चेताया. ये एक तरह से मंदी का सीधा इशारा है, लेकिन अमेरिकी टीम ने अब तक इसका एलान नहीं किया है.
बीच-बीच में दुनिया स्टेगफ्लेशन से भी जूझती है
वो दौर, जब इकनॉमी स्थिर हो जाए. इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि जैसे लंबे समय तक एक संस्थान में रहने के बाद कई लोग शिकायत करते हैं कि वे कुछ नया नहीं सीख पा रहे, स्थिरता आ गई है. कुछ इसी तरह का हाल देशों का हो जाता है. उनकी जीडीपी कम तो नहीं होती, लेकिन बढ़ती भी नहीं है. ये भी खराब स्थिति है, लेकिन इससे उबरना आसान है.
एक और स्थिति है, जिसे डिफ्लेशन कहते हैं
इस दौरान महंगाई पर कंट्रोल के लिए बैंक ब्याज दर बढ़ा देते हैं. अब ब्याज दर बढ़ेगी तो लोग खरीदी कम कर देंगे. खरीदी कम होगी, तो चीजों की कीमत धड़ाम हो जाएगी. हालांकि लोग तब भी बाजार पर पैसे नहीं लगाएंगे, फिर चाहे वे आम लोग हों, या बड़े व्यापारी. इसके बाद भी मंदी आ जाती है. यही वजह है कि ब्याज दरें बढ़ाते हुए किसी भी देश का बैंक बहुत गणित लगाता है.
मंदी के साथ सबसे खतरनाक बात ये है कि एक देश में इसका आना बहुत से देशों पर असर डालता है. जैसे चीन में कोविड के कारण मंदी आ जाए, तो वहां से भेजा जाने वाला सामान दूसरे देशों तक नहीं पहुंच सकेगा. इससे सप्लाई चेन प्रभावित होगी. वे चीजें ज्यादा कीमत पर दूसरे देशों से खरीदी जाएंगी, जिसका बोझ देश की जीडीपी और आम आदमी की जेब पर भी पड़ेगा. यानी मंदी कोविड जैसा ही वायरस है, जो कहीं ज्यादा-कहीं कम असर डालता है.
वो दौर जिसने सबको हिलाकर रख दिया
दुनिया की सबसे बड़ी मंदी 1925 के आसपास आई, जिसे ग्रेट डिप्रेशन भी कहा जाता है. इसकी शुरुआत अमेरिका से हुई. हुआ ये कि पहले वर्ल्ड वॉर के बाद अमेरिका में इंडस्ट्रिअलाइजेशन बढ़ा. लोगों के पास पैसे आने लगे और वे उसे मार्केट में लगाने लगे. खूब घर खरीदे गए. महंगी से महंगी गाड़ियां आईं. लोगो वेकेशन्स के लिए बाहर जाने लगे. ठीक तभी, बाजार क्रैश हो गया. तिसपर अकाल भी आ गया. लोगों के सारे पैसे बाहर लग चुके थे. नौकरियां चली गईं. इस दौर को कई जगहों पर खुदकुशी का वक्त भी कहा गया. बेगार लोगों ने आत्महत्याएं कर लीं.
कैसे जाती है मंदी?
हर मंदी के बाद यही होता है. सरकारें खुद भी निवेश करती हैं, और अपने यहां के बड़े उद्योगपतियों को भी कहती हैं कि वे बाजार पर इनवेस्ट करें. इससे पैदा होती है नौकरी, यानी पैसे. आम लोग भी खरीद-फरोख्त करने लगते हैं और दुनिया दोबारा चल निकलती है.
फिलहाल राहत की बात ये है कि भारत को लेकर लगातार अर्थशास्त्रियों समेत हर कोई कह रहा है कि हमपर मंदी का खतरा नहीं. हाल ही में आरबीआई गर्वनर शक्तिकांत दास ने भी यही बात की. हालांकि अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों की सुस्त पड़ती इकनॉमी के बीच पूरी तरह से बेफिक्र नहीं रहा जा सकता.