पिछले दिनों सीतापुर जिले में शराब और जुए का अड्डा हटाने की कार्रवाई से बिफरे वकीलों ने जिला न्यायाधीश के कक्ष में घुस कर पुलिस अधिकारियों को पीटा और पुलिस अधीक्षक के साथ बदसलूकी की. ऐसे अराजक वकीलों के समर्थन में राजधानी लखनऊ के वकील भी सड़क पर उतर आए. कानून की वर्दी में गुंडागर्दी देख कर आम लोग बहुत शर्मिंदा हुए, पर उन्हें शर्म नहीं आई. वकीलों की अभद्रता लखनऊ के पुलिस अधीक्षक को इतनी भाई कि वे भी अपने मातहत अफसरों को सरेआम बेइज्जत करने सड़क पर उतर आए. आप भी विस्तार से पढ़ें-देखें कानून की दो वर्दियों का गैरकानूनी ‘शो’…
ये देश के संभ्रांत नागरिक हैं. काला कोट पहनते हैं. खुद को बुद्धिजीवी मानते हैं और न्याय का वाहक कहते हैं. ये सरकारी जमीन पर कब्जा करके क्लब चलवाते हैं. क्लब-अड्डे पर दारू पीते और पिलाते हैं, जुआ खेलते और खेलवाते हैं. पकड़े जाने पर पुलिस के साथ मारपीट करते हैं. कानून व्यवस्था बिगाड़ते हैं और बिगड़ती कानून व्यवस्था के लिए शासन और प्रशासन को जिम्मेदार ठहराते हैं.
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के बिल्कुल पड़ोस का जिला है सीतापुर. सीतापुर के वकीलों का एक तबका खुद को लोकतंत्र के ऊपर समझता है और शासन-प्रशासन को ठोकर पर रखता है. कानून की कोट पहनता है, लेकिन कानून को ठेंगे पर रखता है. बीते कुछ दिनों से सीतापुर के इन कुछ कानून-नापसंद वकीलों ने माहौल खराब कर रखा है. सीतापुर के जिला न्यायाधीश राजेंद्र कुमार और मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी विमल त्रिपाठी के समक्ष ही जिले के पुलिस अधीक्षक प्रभाकर चौधरी और दो अन्य पुलिस अधिकारियों पर हमला करने वाले सीतापुर के वकीलों के समर्थन में अब राजधानी लखनऊ के वकीलों ने भी सड़क पर उतरने का ऐलान किया है. वकीलों को ऐतराज है कि हमलावर वकीलों के खिलाफ एफआईआर क्यों दर्ज की गई और कुछ वकीलों को गिरफ्तार क्यों किया गया. वकील समुदाय के ही कुछ वरिष्ठों का स्पष्ट कहना है कि काले कोट की आड़ में काले धंधे चलाए जा रहे हैं और यदि किसी ने उसे रोकने की कोशिश की तो वे न्यायिक प्रक्रिया में बाधा पहुंचाते हैं और कानून व्यवस्था की समस्या पैदा करते हैं. यह समस्या केवल सीतापुर की नहीं, बल्कि लखनऊ समेत प्रदेश के कई अन्य जिलों की भी है, जहां वकील समुदाय के नाम पर गिरोहबंदी कायम है.
सीतापुर नगर पालिका परिषद की जमीन पर अवैध कब्जा कर कुछ वकील वहां शराब और जुए का अड्डा चला रहे थे. शराब-जुए का अड्डा सीतापुर क्लब के नाम से चल रहा था और उससे स्थानीय नागरिक आजिज थे. इसके खिलाफ आम लोगों की शिकायतें लगातार प्रशासन के पास पहुंच रही थीं. प्रशासन की छानबीन में पता चला कि क्लब चलाने के लिए न तो प्रशासन की तरफ से कोई औपचारिक मंजूरी है और न क्लब का कोई पंजीयन है. जिस जमीन पर क्लब चल रहा था, वह जमीन भी नगर पालिका परिषद की नजूल भूमि है. पुलिस ने जब क्लब की तलाशी ली तो वहां शराब की बोतलें, ताश की गड्डियां, जुआ खेलने (कसीनो) के टोकन, नगदी और जेवर वगैरह बरामद किए गए. पुलिस ने क्लब चलाने वाले ओमप्रकाश गुप्त, रामपाल सिंह और विजय कुमार गुप्त के खिलाफ जुआ निषेध अधिनियम, उत्पाद शुल्क एवं आबकारी अधिनियम के तहत एफआईआर दर्ज कर तथाकथित क्लब के अध्यक्ष और वकील ओम प्रकाश गुप्त और सचिव रामपाल सिंह को हिरासत में ले लिया. पुलिस ने अतिक्रमण विरोधी अभियान चला कर क्लब के ढांचे को भी हटा दिया और उसे नगर पालिका प्रशासन के सुपुर्द कर दिया.
जिला प्रशासन और पुलिस की इस कार्रवाई से कुछ वकील बिफर पड़े. उनके धंधे पर हाथ डालने की आखिर हिम्मत किसने कर दी! बस आव न देखा ताव और जिला न्यायाधीश राजेंद्र कुमार की अध्यक्षता में उन्हीं के कक्ष में चल रही समीक्षा बैठक में ही घुस पड़े. वहां मौजूद सब इंसपेक्टर प्रदीप पांडेय और विनोद कुमार मिश्र पर हमला कर दिया और उन्हें लातों, घूसों और चप्पलों से पीटा. गिरोहबंद वकील उसके बाद जिला न्यायाधीश राजेंद्र कुमार, प्रभारी मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी विमल त्रिपाठी एवं अन्य अधिकारियों की मौजूदगी में ही वहां बैठे सीतापुर के एसपी प्रभाकर चौधरी पर पिल पड़े, उनका मोबाइल फोन छीन लिया और उनके साथ भी हाथापाई की कोशिश की. एसपी के सुरक्षा अधिकारी विनोद कुमार मिश्र और प्रदीप पांडेय ने किसी तरह बीच में कूद कर उन्हें बचाया. वकील गंदी गालियों पर भी उतर आए थे. वकीलों की इस आपराधिक हरकत से क्षुब्ध जिला न्यायाधीश कक्ष से बाहर चले गए. वकील शराबबाजी और जुएबाजी के अड्डे के खिलाफ जिला प्रशासन और पुलिस द्वारा की गई कार्रवाई से भीषण नाराज थे. उग्र वकीलों ने हिरासत में लिए गए दो वकीलों को पहले ही छुड़ा भी लिया था. हिंसा पर उतारू वकीलों के बीच से किसी तरह एसपी को वहां से सुरक्षित बाहर निकाला जा सका. पुलिस ने इस मारपीट और आपराधिक कृत्य के दोषी दीपक राठौर, चंद्रभाल गुप्ता, चंद्रगुप्त श्रीवास्तव, हरीश त्रिपाठी, अरुण मिश्रा, सुनील सिंह और करीब एक दर्जन अज्ञात वकीलों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर दीपक राठौर और चंद्रभाल गुप्त को गिरफ्तार कर लिया. अन्य अभियुक्त फरार हैं और बाहर-बाहर से वकील समुदाय को आंदोलन के लिए भड़का रहे हैं. फरार वकीलों की गिरफ्तारी के लिए उन पर प्रशासन ने नकद इनाम की भी घोषणा की है.
उधर, वकीलों ने कानून अपने हाथ में भी लिया और पुलिस ‘उत्पीड़न’ के खिलाफ सड़क पर भी उतर आए. धरना प्रदर्शन किए गए और जब विरोध प्रदर्शनों का रुख उग्र होने की ओर बढ़ा तब जिला प्रशासन को निषेधाज्ञा लागू करनी पड़ी. निषेधाज्ञा लागू रहने और न्यायालय परिसरों में धरना-प्रदर्शनों पर प्रतिबंध के इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश के बावजूद सीतापुर कोर्ट परिसर में वकीलों का धरना प्रदर्शन जारी रहा. कुछ वकीलों को खुली पिस्तौल लेकर घूमते हुए भी देखा गया और इसे आधिकारिक तौर पर दर्ज भी किया गया. सीतापुर की जिलाधिकारी शीतल वर्मा और पुलिस अधीक्षक प्रभाकर चौधरी दोनों ही कानून व्यवस्था हाथ में लेने वाले तत्वों के साथ सख्ती से निपटने की बात कहते हैं तो वकीलों के नेता इसे पुलिस अधीक्षक की छोटी मानसिकता बताते हैं. अवैध क्लब पर की गई कार्रवाई को कुछ वकीलों ने वकील समुदाय से जोड़ दिया और इस पर लखनऊ के वकीलों ने भी सीतापुर पुलिस प्रशासन के खिलाफ ताबड़तोड़ नारेबाजी और पुतला फूंकने और समर्थन जताने का अपना पुराना चिर-परिचित हथकंडा अख्तियार कर लिया. लखनऊ के वकील तो और एक कदम आगे बढ़ कर सीतापुर के एसपी को बर्खास्त ही करने की मांग करने लगे. विरोध में उतरे लखनऊ के कुछ वकीलों ने सीतापुर कूच करने और आंदोलन को प्रदेशभर में फैलाने की भी चेतावनी दे डाली. मैनपुरी के वकीलों ने तो सीतापुर के एसपी के खिलाफ मैनपुरी कोर्ट में मुकदमा दर्ज करा दिया.
दूसरी तरफ सीतापुर की जिलाधिकारी शीतल वर्मा और पुलिस अधीक्षक प्रभाकर चौधरी ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल को पूरे घटनाक्रम की तथ्यवार जानकारी देते हुए घटना के दोषी वकीलों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने और उनका रजिस्ट्रेशन रद्द करने की अपील की है. मुख्य न्यायाधीश और रजिस्ट्रार जनरल को यह भी बताया गया है कि पुलिस अधिकारियों के साथ मारपीट की घटना सीतापुर के जिला न्यायाधीश राजेंद्र कुमार के कक्ष में उनके समक्ष की गई. पूरे घटना की जो वीडियो फुटेज थी, उसे भी मुख्य न्यायाधीश और रजिस्ट्रार जनरल के समक्ष प्रस्तुत किया गया है. जिला प्रशासन ने उत्तर प्रदेश बार काउंसिल के अध्यक्ष को भी घटनाक्रम की जानकारी भेज कर दोषी वकीलों के खिलाफ बार की तरफ से कार्रवाई करने की अपील की है. जिला प्रशासन और जिला पुलिस के प्रमुखों ने गृह विभाग के प्रमुख सचिव को भी पूरे प्रकरण की औपचारिक सूचना और वीडियो फुटेज भेजी है. पुलिस अधीक्षक प्रभाकर चौधरी ने मारपीट की घटना के चश्मदीद जिला न्यायाधीश राजेंद्र कुमार और प्रभारी मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी विमल त्रिपाठी से भी दोषी वकीलों के खिलाफ उचित कानूनी कार्रवाई करने का औपचारिक आग्रह किया है.
हाईकोर्ट ने दिए जांच के आदेश
सीतापुर पुलिस द्वारा नामजद अभियुक्त बनाए गए वकीलों हरीश त्रिपाठी, चंद्रगुप्त श्रीवास्तव और अरुण मिश्र की तरफ से इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ में दाखिल रिट याचिका पर सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट ने पूरे प्रकरण की जांच दूसरे सर्किल के सर्किल अफसर से कराने और लखनऊ जोन के आईजी को पूरी विवेचना की रोजाना मॉनिटरिंग करने का आदेश जारी किया. न्यायालय ने यह भी कहा कि गिरफ्तार वकीलों को जेल मैनुअल के मुताबिक सुविधाएं दी जाएं और इस पर सीजेएम और एडीएम स्तर के अधिकारी हफ्ते में दो बार इसकी तस्दीक करें. दूसरी तरफ सीतापुर के जिला एवं सत्र न्यायाधीश राजेंद्र कुमार ने गिरफ्तार वकीलों के स्वास्थ्य की जांच के लिए मेडिकल बोर्ड गठित करने का आदेश दिया. उल्लेखनीय है कि जिला एवं सत्र न्यायाधीश राजेंद्र के समक्ष उनके कक्ष में ही पुलिस अधिकारियों के साथ वकीलों ने मारपीट की वारदात की थी.
दोषी वकीलों पर रासुका और गुंडा एक्ट!
जिला प्रशासन ने दोषी वकीलों पर रासुका तामील करने की शासन से मांग की है. इसकी औपचारिक अनुशंसा शासन को भेजी गई है. दूसरी तरफ स्थानीय पुलिस ने कुछ वकीलों पर गुंडा एक्ट के तहत कार्रवाई करने की भी जिला प्रशासन के समक्ष अनुशंसा भेजी है. पुलिस का कहना है कि एक वकील विवेक शुक्ला पर डकैती और छेड़छाड़ करने के क्रमशः एक और दो मामले दर्ज हैं. दूसरे वकील विकास दीक्षित पर शांतिभंग का एक और छेड़छाड़ के दो मामले दर्ज हैं. जिला पुलिस के मुताबिक कुछ वकीलों की आपराधिक पृष्ठभूमि की भी गहराई से छानबीन शुरू कराई गई है.
लखनऊ में भी गुंडागर्दी पर उतारू वकील
सीतापुर में जिला जज के चैंबर में घुस कर पुलिस अधिकारियों से मारपीट करने का दुस्साहस करने वाले वकीलों से लखनऊ के वकील कोई कम थोड़े ही हैं! सीतापुर की घटना के अगले ही दिन लखनऊ के अलीगंज थाना इलाके के बड़ा-चांदगंज मुहल्ले में वकीलों ने कुछ लोगों के साथ मारपीट की. पीड़ित पक्ष के प्रदीप शर्मा और अभय प्रजापति जब थाने में शिकायत दर्ज करने पहुंचे तब वकीलों ने थाने में घुस कर उन्हें फिर पीटा. करीब दो दर्जन लोगों द्वारा थाने में घुस कर पीटे जाने से एक व्यक्ति बुरी तरह जख्मी हुआ, जिसे अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा. थाने में मारपीट रोकने की कोशिश करने वाले पुलिसकर्मियों को भी पीटा गया और जो पत्रकार अपने मोबाइल फोन से घटना की रिकॉर्डिंग कर रहे थे उनके साथ भी बदसलूकी की और भाग निकले. इस मामले में पुलिस कार्रवाई की बात तो कहती रही, लेकिन कुछ कर नहीं पाई. एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने कहा कि वकीलों द्वारा इस तरह की घटनाएं करना तो उनकी रुटीन आदतों में शुमार है. जब अदालतें ही उनके खिलाफ कोई एक्शन नहीं लेतीं तो पुलिस क्या करे!
अपराधी वकीलों पर अर्से से हो रही है चिंता, पर कार्रवाई सिफर
आपराधिक पृष्ठभूमि के वकीलों को लेकर अदालतों से लेकर सरकार तक चिंता तो जताई जाती रही है, लेकिन कार्रवाई कुछ नहीं हो रही. अर्सा पहले आपराधिक पृष्ठभूमि के वकीलों का पता लगाने के लिए सीबीआई को जिम्मा दिया गया था. उत्तर प्रदेश पुलिस की क्राइम ब्रांच से भी इस बारे में छानबीन के लिए कहा गया था. जांच के दौरान पता चला कि केवल लखनऊ में ढाई सौ से अधिक वकीलों पर हत्या, अपहरण, जमीन-मकान हड़पने से लेकर संज्ञेय अपराध के कई मामले दर्ज हैं. इनमें से करीब सौ वकीलों पर दो और दो से अधिक आपराधिक मामले हैं. आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में तो अनगिनत वकीलों के नाम आए जिनके खिलाफ आयकर विभाग ने जांच-पड़ताल की थी. इन पड़तालों के हुए वर्षों बीत गए, लेकिन कार्रवाई एक कदम भी आगे नहीं बढ़ी. कानून-पसंद वरिष्ठ वकीलों का कहना है कि कार्रवाई के नाम पर अदालत से लेकर सरकार तक चुप्पी साध लेती है. इतना अहम मसला केवल जुबानी-जुंबिश होकर रह गया है. नेता हों या जज, सब मंचों से चिंता जताते हैं कि आपराधिक पृष्ठभूमि के वकीलों या दागी वकीलों के कारण न्यायिक प्रक्रिया में बाधा पड़ती है और वकालत का पेशा भी बदनाम हो रहा है. लेकिन वे कार्रवाई के लिए कोई पहल नहीं करते. एक वरिष्ठ वकील ने कहा कि वकीलों के पंजीकरण की प्रक्रिया को दुरुस्त करने की जरूरत है. कोई भी व्यक्ति लॉ की डिग्री और साफ चरित्र का शपथ-पत्र लेकर आता है और बार काउंसिल में अपना पंजीकरण करवा कर वकील बन जाता है. पंजीकरण की लचर प्रक्रिया के कारण लाखों की संख्या में वकील रजिस्टर्ड हैं और उनमें अधिकतर ऐसे लोग हैं जो ठेकेदारी, दलाली, रियल इस्टेट जैसे धंधों में लगे हैं.
28 अक्तूबर, 2010 को ही इलाहाबाद हाइकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ के न्यायाधीश उमानाथ सिंह और वीरेंद्र कुमार दीक्षित ने सीबीआई को 11 अभियोगों में शामिल डेढ़ दर्जन से अधिक वकीलों की जांच सौंपी थी. इनमें कई मामले ऐसे थे जिनमें नामजद के अलावा करीब 80 अज्ञात वकीलों के खिलाफ भी मुकदमा दर्ज था. इनमें हत्या के प्रयास, लूट, डकैती, सरकारी कार्य में बाधा, मारपीट, अभिलेखों में हेर-फेर, भूमि विवाद के मुकदमे शामिल थे. सीबीआई ने मामले की जांच भी की, लेकिन मामला ढाक के तीन पात होकर रह गया. वकीलों के आचरण पर नजर रखने वाली बार काउंसिल की समिति भी बेमानी ही साबित हुई है. हर साल बार काउंसिल के पास वकीलों के खराब आचरण की तकरीबन हजार शिकायतें आती हैं. हर साल कई वकीलों को निलंबित भी किया जाता है, लेकिन वे सेंट्रल बार काउंसिल से यूपी बार काउंसिल का आदेश खारिज करवा लेते हैं. हालत यह है कि आपराधिक पृष्ठभूमि के वकील अच्छी-खासी संख्या में सरकारी वकील भी बने बैठे हैं, जबकि हाईकोर्ट ने सख्त आदेश दे रखा है कि ऐसे वकील सरकारी वकील न बन पाएं.
वरिष्ठ वकील की ‘आत्महत्या’ पर चुप रह गए हड़बोंग मचाने वाले
पूर्व मुख्य स्थायी अधिवक्ता रमेश पांडेय के लखनऊ हाईकोर्ट की चौथी मंजिल से कूदकर खुदकुशी किए जाने की रहस्यमय घटना पर वकील समुदाय ने चुप्पी साध रखी है. वकील समुदाय शराब और जुए के धंधे पर रोक के खिलाफ पूरी कानून व्यवस्था को आड़े हाथों ले सकता है, लेकिन अपने वरिष्ठ साथी की संदेहास्पद मौत पर दम साध लेता है. पूर्व मुख्य स्थायी अधिवक्ता रमेश पांडेय (55) ने पिछले दिनों हाईकोर्ट की चौथी मंजिल से कूदकर खुदकुशी कर ली थी. रमेश पांडेय पर इतना ‘दबाव’ था कि उन्हें मुख्य स्थायी अधिवक्ता के पद से इस्तीफा देना पड़ा था. रमेश पांडेय के चचेरे भाई प्रियांक पांडेय ने रमेश पांडेय की मौत को हत्या बताया और कहा उनके भाई किसी भी परिस्थिति में आत्महत्या नहीं कर सकते थे. रमेश पांडेय की मौत के संदेहास्पद होने की सारी स्थितियां सामने रहने के बावजूद हाईकोर्ट प्रशासन ने कोई भी समुचित कार्रवाई नहीं की और न उच्च स्तरीय जांच का आदेश दिया. बार एसोसिएशन ने भी इस मसले पर चतुर-मौन साध लिया. मरहूम रमेश पांडेय के परिवार की तरफ से भी कोई मुकदमा दर्ज नहीं कराया गया और हर बात पर हड़बोंग मचाने वाले वकील समुदाय ने भी अपने साथी वरिष्ठ वकील की संदेहास्पद मौत को मुद्दा नहीं बनाया.
पुलिस के अफसर ही तोड़ रहे हैं पुलिस का मनोबल
एक तरफ पुलिस पर हमले की घटनाएं बढ़ रही हैं तो दूसरी तरफ पुलिस अधिकारी ही पुलिसकर्मियों का मनोबल तोड़ने पर लगे हैं. प्रशासनिक अक्षमता के कारण भी उत्तर प्रदेश पुलिस संगठन में अराजकता और अनुशासनहीनता बढ़ती जा रही है. हाल की कुछ घटनाएं आला पुलिस अधिकारियों की प्रशासनिक क्षमता की कलई खोलती हैं. पिछले दिनों लखनऊ के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक कलानिधि नैथानी ने मीडिया वालों को बुला कर बीच चौराहे पर अलीगंज कोतवाली के एसएचओ आनंद शुक्ला को फटकार लगाई, अपमानित किया और उन्हें दिया गया सीयूजी मोबाइल फोन छीन लिया. एसएसपी ने एसएचओ की गाड़ी छीन ली और लाइन हाजिर करने का फरमान जारी करते हुए उन्हें पैदल ही पुलिस लाइन रवाना कर दिया. एसएसपी के निरीक्षण के दौरान तमाम पुलिस अधिकारी और अन्य पुलिसकर्मी मौजूद थे, उन सबके सामने कोतवाली प्रभारी को डांट-फटकार लगाई गई. पुलिस अधिकारियों का कहना है कि यह काम एसएसपी अपने कक्ष में भी सम्बन्धित अधिकारी को बुला कर कर सकते थे. कोतवाली प्रभारी को भी अपने अधीन अफसरों और कर्मचारियों से काम लेना होता है.
लखनऊ के एसएसपी की इस हरकत से मध्यम दर्जे के पुलिस अधिकारियों और कर्मचारियों में भीषण नाराजगी है. उनका कहना है कि अलीगंज कोतवाली के प्रभारी को एसएसपी अपने कक्ष में बुला कर उन्हें डांट-फटकार लगा सकते थे. सार्वजनिक रूप से अपमानित करने से पुलिस के मनोबल पर इसका बुरा असर पड़ता है. एसएसपी ने चौराहे पर ही ट्रांस गोमती के एएसपी हरेंद्र कुमार को भी कड़ी फटकार लगाई. जबकि अलीगंज कोतवाली जिस सर्किल अफसर के तहत आता है, उसे कुछ नहीं कहा. सर्किल अफसर दीपक कुमार वहीं खड़े रहे और ट्रांस गोमती के एएसपी हरेंद्र कुमार एसएसपी की फटकार सुनते रहे. लखनऊ के एसएसपी अलीगंज कोतवाल से इस बात के लिए नाराज थे कि अलीगंज के एक सिपाही ने नैथानी साहब के किसी परिचित से घूस मांग ली थी. महज शिकायत पर किसी आला पुलिस अफसर का यह रवैया संगठनात्मक मर्यादा के विपरीत है.
छोटी शिकायत पर आपा खोने वाले लखनऊ के एसएसपी कलानिधि नैथानी बड़े मामलों पर इतने शिथिल बने रहते हैं कि पुलिस संगठन में विद्रोह की स्थिति बन जाती है. पिछले दिनों जब लखनऊ पुलिस के सिपाही प्रशांत चौधरी की गोली से विवेक तिवारी के मारे जाने की घटना घटी थी तब भी लखनऊ पुलिस के आला अधिकारियों की प्रशासनिक अक्षमता उजागर हुई थी. एसएसपी को तब समझ में ही नहीं आया कि मामले को कैसे ‘हैंडल’ किया जाए. पहले मुजरिम को दूसरे थाने पर भेजा गया फिर उसे देर रात गोमती नगर थाने पर बुलाया गया. वहां मीडिया के सामने पंचायत होती रही. हत्यारोपी सिपाही वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों से बदतमीजी करता रहा और मीडिया पर अपना भाषण झाड़ता रहा, लेकिन एसएसपी ने उसे फौरन गिरफ्तार कर लॉकअप में डालने की जरूरत नहीं समझी. इस प्रकरण में यूपी पुलिस क्या, पूरी प्रदेश सरकार की छीछालेदर हो गई. इसके बाद पुलिस संगठन में खुला विद्रोह हो गया और काली पट्टी बांध कर विरोध जताने का सिलसिला लंबे समय तक चलता रहा. ऐसा उत्तर प्रदेश पुलिस के इतिहास में कभी नहीं हुआ, जिसका श्रेय लखनऊ पुलिस के अलमबरदारों को ही जाता है. गोमती नगर थाना इलाके में ही एक कैशियर की हत्या कर 10 लाख रुपए लूटे जाने की घटना में भी लखनऊ के एसएसपी की प्रशासनिक अक्षमता सामने आई. एसएसपी ने स्थानान्तरित दारोगा को निलंबित किया लेकिन थानेदार और सर्किल अफसर को कुछ नहीं कहा. राज्य सरकार को कुछ खास पुलिस अधिकारियों की अक्षमता में भी क्षमता दिखती है, लेकिन इसके लिए उन खास अधिकारियों का मुख्यमंत्री या गृह विभाग के प्रमुख सचिव का नजदीकी रहना जरूरी होता है.
चाटुकारों और भ्रष्टों को तरक्की देंगे तो पुलिस कैसे सुधरेगी!
पुलिस के आला अफसरों और सत्ता पर बैठे नेताओं को यह समझ में ही नहीं आता कि उत्तर प्रदेश के 20 करोड़ लोगों की सुरक्षा के लिए महज ढाई लाख पुलिसकर्मी हैं. यानि, 10 लाख लोगों पर मात्र 125 पुलिसकर्मी. प्रदेश के लगभग 45 प्रतिशत पुलिस पोस्ट अधिकारी-कर्मचारी के अभाव में बंद पड़े हैं. अधिकांश पुलिस अधिकारी और कर्मचारी नेताओं की तीमारदारी और वीआईपी ड्यूटी में लगे हैं. मझोले दर्जे के पुलिस अधिकारियों और अन्य पुलिसकर्मियों पर काम का भीषण बोझ है. ऐसे में उनका मनोबल बनाए रखना अत्यंत जरूरी है. लेकिन आला अफसरों की नासमझी के कारण पुलिस हतोत्साहित है और अपनी ड्यूटी के प्रति उनमें कोई लगाव नहीं रह गया है. इन्हीं वजहों से सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था का बुरा हाल है. एक अधिकारी ने ही कहा कि केवल इन्काउंटर करने से कानून व्यवस्था थोड़े ही सुदृढ़ हो जाती है! गिरे मनोबल के कारण ही पुलिस पर हमले की घटनाएं भी बढ़ रही हैं. कुछ ही अर्सा पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सत्ता पोषित दबंगों द्वारा पुलिस पर हमला करने की घटनाओं पर कड़ा रुख अपनाते हुए कहा था कि जब कानून का रक्षक ही सुरक्षित नहीं तो आम आदमी खुद को कैसे सुरक्षित महसूस कर सकता है. कोर्ट ने पुलिस को निर्देश दिया था कि अपराधियों के खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई की जाए चाहे वे किसी भी राजनीतिक दल से जुड़े हों. लेकिन अदालत की सुनता कौन है! पुलिस के आला अफसर चाटुकार और भ्रष्ट पुलिसकर्मियों को आउट ऑफ टर्न तरक्की देने की सिफारिश करते रहे और सरकारें आंख बंद कर उन बेजा सिफारिशों पर मुहर लगाती रहीं. साहस, शौर्य, पराक्रम दिखाने वाले कर्तव्यपरायण और ईमानदार मझोले पुलिस अफसरों और पुलिसकर्मियों को दुत्कार कर हाशिए पर रखा गया. आप आश्चर्य करेंगे कि 1980-81, 81-82 और 82-83 बैच के उप निरीक्षकों (दारोगाओं) की सालाना तरक्की के लिए आज तक केवल तीन बार डीपीसी हुई. पिछले 37 वर्षों में उप निरीक्षकों (दारोगाओं) के प्रमोशन के लिए महज तीन बार डिपार्टमेंटल प्रमोशन कमेटी (डीपीसी) की बैठक का होना, सरकारों की घनघोर अराजकता की सनद है. 1982 बैच के उप निरीक्षकों के रुटीन प्रमोशन के लिए 15 साल बाद 1997 में डीपीसी हुई. उसके आठ साल बाद वर्ष 2005 में डीपीसी बैठी और फिर आठ साल बाद वर्ष 2013 में डीपीसी हुई. सत्ता के शीर्ष आसनों पर बैठे नेता तरक्की की दुकान खोले बैठे रहे और घूस लेकर तरक्कियां बेचते रहे. विडंबना यह है कि 80-81 और 81-82 बैच के उप निरीक्षक-निरीक्षकों को वर्ष 2007 और 2008 से एडिशनल एसपी का वेतन मिल रहा है, लेकिन सरकार ने उन्हें उनका रुटीन प्रमोशन नहीं होने दिया. रुटीन प्रमोशन से वंचित ऐसे अधिकारियों की संख्या तकरीबन दो हजार है.
पूर्ववर्ती अखिलेश सरकार ने तो बड़े शातिराना तरीके से पुलिस में प्रमोशन का घोटाला किया. अंगरक्षकों का खास गुट बना कर उसमें शामिल पुलिसकर्मियों को अनाप-शनाप तरीके से आउट ऑफ टर्न तरक्की देने में समाजवादी पार्टी की सरकारों को विशेषज्ञता हासिल रही है. इसे देखते हुए ही इलाहाबाद हाईकोर्ट ने आउट ऑफ टर्न तरक्की की प्रक्रिया पर रोक लगा दी थी. लेकिन कानून को ठेंगे पर रख कर समाजवादी सरकार ने मुलायम सिंह के जमाने के 32 अंगरक्षकों और अखिलेश काल के 42 अंगरक्षकों को तरक्की दे दी. मुख्यमंत्री सचिवालय की तत्कालीन प्रमुख सचिव अनीता सिंह और गृह विभाग के तत्कालीन सचिव मणि प्रसाद मिश्र ने मिल कर कुल 990 पुलिसकर्मियों की लिस्ट तैयार की जिनमें कान्सटेबल से लेकर दारोगा और इन्सपेक्टर तक शामिल थे और 23 जुलाई 2015 को फरमान जारी कर तरक्की दे दी. इस सरकारी फरमान का कोई गजट-नोटिफिकेशन भी नहीं किया गया. तकरीबन एक वर्ष बाद ही 11 जुलाई 2016 को शासन ने फिर एक ‘विज्ञप्ति’ जारी कर 94 इन्सपेक्टरों को तरक्की देकर डीएसपी बनाए जाने की मुनादी कर दी. यह ‘विज्ञप्ति’ भी सरकारी गजट में प्रकाशित नहीं की गई. उक्त आदेश पूरी तरह गैर-कानूनी था. उस आदेश से पुलिस महकमे के सभी कर्मचारियों का वरिष्ठता-क्रम छिन्न-भिन्न हो गया. इन्सपेक्टरों (निरीक्षकों) की तरक्की के आदेश में राज्य सरकार ने बड़े शातिराना तरीके से निरीक्षकों की भर्ती के वर्ष का कॉलम गायब कर दिया और इसकी आड़ लेकर मनमाने तरीके से निरीक्षकों के नाम भर दिए. इससे वरीयता-क्रम गड्डमड्ड हो गया. किसी में ट्रेनिंग का वर्ष, बैच नंबर और प्रमोशन का वर्ष अंकित है तो कई में प्रमोशन का वर्ष ही गायब कर दिया गया है. सेवा नियमावली के प्रावधानों को दरकिनार कर वरिष्ठता सूची में बैकलॉग वाले 119 नाम भी ठूंस दिए गए. सीनियर जूनियर हो गए और जूनियर अपने सीनियर के माथे पर बैठ गया. पुलिस के कामकाज और अनुशासन पर इसका बहुत बुरा असर पड़ा. लेकिन बाद में सत्ता में आई भाजपा सरकार ने भी इसे दुरुस्त करने में कोई रुचि नहीं दिखाई.
ऑउट ऑफ टर्न तरक्की के बदले विशेष भत्ता की योजना विलुप्त हो गई
ऑउट ऑफ टर्न प्रमोशन पर पाबंदी लगाने के बाद उत्तर प्रदेश के जांबाज पुलिसकर्मियों को विशेष भत्ता देकर पुरस्कृत करने की योजना बनी थी, लेकिन सरकार के विवादास्पद फरमान से यूपी पुलिस की इस विशेष योजना पर ग्रहण लग गया. योजना बनी थी कि साहस और शौर्य दिखाने वाले जांबाज पुलिसकर्मियों को एक हजार रुपए प्रतिमाह का विशेष भत्ता सेवा की अवधि तक दिया जाता रहेगा. इसके साथ ही हर साल 10 पुलिसकर्मियों को विशेष सम्मान के लिए चुन कर उन्हें मुख्यमंत्री प्रशस्ति-पत्र से सम्मानित किए जाने की योजना बनी थी. सराहनीय काम करने वाले 25 पुलिसकर्मियों में से प्रत्येक को 25 हजार रुपए का इनाम दिए जाने की भी योजना बनी थी. लेकिन सारी योजनाएं प्रमोशन के विवादास्पद खेल की छाया में विलुप्त हो गईं.