पटना। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और आरजेडी के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ( Lalu Yadav ) में शह-मात का खेल चल रहा है। नीतीश कुमार ( Nitish Kumar ) अब लालू की हर बात मानने को तैयार हैं, लेकिन बिहार छोड़ने का उनका मन नहीं है। इसके लिए नीतीश जुगत भिड़ाते रहते हैं। दूसरी ओर लालू भी नीतीश की घेरेबंदी से बाज नहीं आ रहे। वे हर हाल में उन्हें बिहार छुड़ाना चाहते हैं। विपक्षी दलों के गठबंधन I.N.D.I.A की अगली प्रस्तावित बैठक में शायद लालू अपने मकसद में कामयाब हो जाएं। बुढ़ापे और बीमारी के बावजूद लालू की सियासी सक्रियता शायद इसी उम्मीद में बढ़ गई है कि नीतीश जितनी जल्दी हो सके बिहार की गद्दी छोड़ें।
मुंबई में इसी महीने के आखिर में विपक्षी गठबंधन की तीसरी बैठक होने वाली है। अगर सब कुछ ठीक रहा तो लोकसभा चुनाव के मद्देनजर बनने वाली 11 सदस्यों वाली कोआर्डिनेशन कमेटी में नीतीश को जगह मिल जाएगी। उन्हें गठबंधन का संयोजक भी मनोनीत कर दिया जाएगा। लालू से राहुल गांधी की मुलाकात के बाद सैद्धांतिक रूप से इस बात पर सहमति बन गई है कि नीतीश कुमार समन्वय समिति के संयोजक बनेंगे और सोनिया गांधी यूपीए की चेयरपर्सन की तरह I.N.D.I.A की भी चेयरपर्सन रहेंगी। इसका नतीजा यह होगा कि नीतीश संयोजक बन कर चुनाव के लफड़े सलटाते रहेंगे। जो मामला अनसुलझा रह जाएगा, उसे सोनिया गांधी बहैसियत चेयरपर्सन सुलझाएंगी। लालू को इसका फायदा यह मिलेगा कि नीतीश कुमार को फुल टाइम काम मिल जाएगा और उन्हें बाध्य होकर बिहार छोड़ना पड़ेगा।
लालू यादव की गांधी परिवार से निकटता उनको अपने मकसद में कामयाब बनाने में मददगार साबित हो रही है। यूपीए सरकार में लालू प्रसाद यादव रेल मंत्री रह चुके हैं। सोनिया गांधी से उनकी निकटता दुर्दिन में भी बरकरार रही। शायद यही वजह रही कि नीतीश की सोनिया से मुलाकात कराने में लालू उनके मददगार बने थे। उसके बाद दो ऐसे मौके आए, जब गांधी परिवार के प्रति अपनी निकटता और सहानुभूति का लालू ने सार्वजनिक इजहार किया। पहला मौका तब आया, जब पटना में 23 जून को विपक्षी दलों की पहली बैठक हुई। लालू ने न सिर्फ राहुल को शादी की सलाह दी, बल्कि उसी वक्त यह सांकेतिक तौर पर सार्वजनिक भी कर दिया कि राहुल की शादी में बाराती सभी विपक्षी दल बनेंगे। लालू ने यह बात तब कही थी, जब राहुल मानहानि मामले में सांसदी गंवा चुके थे और उनके चुनाव लड़ने पर लोग शंका जाहिर करने लगे थे। दूसरा मौका आया राहुल की सजा पर रोक लगने पर। सजा पर सुप्रीम कोर्ट से रोक लगते ही राहुल गांधी लालू के घर पहुंच गए। सियासी बातें तो हुईं ही, राहुल को मटन-भात का लालू ने भोज भी कराया। उसी दौरान नीतीश कुमार को समन्वय समिति का संयोजक बनाने की बात हुई। नीतीश की पलटी मार राजनीति पर राहुल ने आशंका जाहिर की तो लालू ने इसकी भी काट सुझा दी। नीतीश कुमार को संयोजक बनें तो बनाया जाएगा, लेकिन उनके ऊपर सोनिया गांधी चेयरपर्सन बन कर बैठी रहेंगी, ताकि नीतीश ने फिर पलटी मारी तो विपक्षी गठबंधन की सेहत पर कोई असर न पड़े।
लालू यादव का सपना है कि वे जितनी जल्दी हो, बेटे तेजस्वी यादव को सीएम की कुर्सी पर बैठा देखें। इसलिए उन्होंने सबसे पहले नीतीश को एनडीए से निकाल कर महागठबंधन के साथ जोड़ा। दोनों बेटों को एकोमोडेट कराया। साथ ही नीतीश को राष्ट्रीय राजनीति और पीएम का सपना दिखाया। इसी शर्त पर नीतीश महागठबंधन की ओर से सीएम भी बने। नीतीश के लिए यह तात्कालिक राहत थी। उन्हें भी इसका अनुमान नहीं था कि सच में उन्हें बिहार की गद्दी छोड़ने का यह लालू द्वारा बिछाया जा रहा जाल है। अब नीतीश उस जाल में फंस चुके हैं। हालांकि नीतीश भी कम खिलाड़ी नहीं हैं। उन्होंने 2025 में बिहार विधानसभा का चुनाव तेजस्वी के नेतृत्व में लड़ने की घोषणा कर अपनी कुर्सी सुरक्षित कर ली। पर, लालू को इतने से ही संतोष नहीं है। वे जल्दबाजी में हैं। उनकी हड़बड़ी का आलम यह है कि आठ महीने बाद होने जा रहे लोकसभा चुनाव से पहले ही बिहार से उन्हें विदा करना चाहते हैं।
बात जितनी आगे बढ़ चुकी है, उसमें नीतीश कुमार के सामने दो ही रास्ते दिखते हैं। पहला कि वे नफा-नुकसान की परवाह किए बगैर लालू की लिखी स्क्रिप्ट पर प्ले करते रहें। दूसरा कि वे पुराने अंदाज में पेश आएं। मसलन कुर्सी सुरक्षित रहने की गरंटी पर एनडीए के साथ चले जाएं। हालांकि एनडीए में लौटना अब उनके लिए भारी फजीहत की बात होगी। एनडीए भी सीधे तौर पर उनके लिए अब दरवाजे बंद कर चुका है। हालांकि एनडीए में नीतीश की कमी अभी तक महसूस की जाती है। केंद्रीय मंत्री रामदास अठावले ने हाल ही अपनी पटना यात्रा के दौरान यह बात कही भी थी। उन्होंने तो नीतीश को एनडीए में लौट आने का आग्रह भी किया था। राहुल गांधी की सजा पर रोक लगने से कांग्रेस जिस तरह उत्साहित है, उससे अब यह बात साफ हो गई है कि पीएम के सबसे बड़े दावेदार वही हैं। नीतीश की यह उम्मीद भी जाती रही। हालांकि नीतीश ने पहले ही साफ कर दिया था कि वे पीएम पद की रेस में नहीं हैं। मसलन नीतीश विपक्षी गठबंधन के साथ रहते हैं और राजनीति से संन्यास नहीं लेते तो उन्हें लोकसभा का चुनाव लड़ कर राष्ट्रीय राजनीति में फिर उतरना पड़ेगा। जीवन में एक बार विधायकी और एक बार सांसदी के अलावा नीतीश ने अब तक चुनाव नहीं लड़ा है। इसलिए यह स्थिति उनके अनुकूल नहीं होगी। खैर, अगले कुछ ही महीनों में स्थिति साफ हो जाएगी।
बिहार में विपक्ष में बैठी भाजपा और उसके सहयोगी दल बार-बार यह बात कहते हैं कि लोकसभा चुनाव तक जेडीयू टूट जाएगा। ज्यादातर उसके विधायक-सांसद एनडीए के किसी घटक दल के साथ होंगे। सच तो यही है कि लालू को भी इसका इंतजार रहेगा। इसलिए कि जेडीयू के टूटने पर 8 विधायकों ने भी साथ दे दिया तो आरजेडी की सरकार बन जाएगी। बिहार में सरकार बनाने के लिए 122 सदस्यों का समर्थन जरूरी है। बिहार में बने महागठबंधन में जेडीयू को छोड़ आरजेडी, कांग्रेस और वाम दलों के 114 विधायक हैं। यानी बहुमत से महज 8 विधायक कम हैं। तब तो नीतीश का नामलेवा भी शायद ही कोई बचेगा। यानी लाठी भी नहीं टूटेगी और सांप भी मर जाएगा।