MP: जिन्‍हें माना जाता था जीत के लिए ब्रह्मास्‍त्र, अबकी दांव पर लगा उनका करियर

भोपाल। इस बार के लोकसभा चुनाव (lok sabha elections 2019) मध्य प्रदेश में कई मायनों में दिलचस्प होते जा रहे हैं. दूर से सियासत देखने वालों के लिए ये जितने दिलचस्प हैं, उतने ही कठिन हैं सियासी दिग्गजों के लिए. दरअसल, मध्य प्रदेश के वो नेता जो अपनी पार्टी के लिए जीत के ब्रह्मास्‍त्र बने हुए थे, इन चुनावों में उनका ही पॉलीटिकल करियर दांव पर लग गया है. वे जीत गये तो सियासी फलक पर चमकते रहेंगे, लेकिन हार गए तो सियासत में कद घट जाएगा बल्कि पार्टी में वर्चस्व घटेगा और फैसले में हिस्सेदारी भी खत्म हो सकती है. कुल मिलाकर चुनावी हार हुई तो पॉलीटिकल करियर का खत्म हो सकता है.

दिग्विजय सिंह
कांग्रेस के कद्दावर नेता दिग्विजय सिंह जब दस साल मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री रहने के बाद हार गए तो दस साल तक राजनैतिक संन्यास ले लिया. इसके बावजूद सियासत में उनका वजन कम नहीं हुआ. बल्कि वे देश भर में सक्रिय हो गए. दस साल बाद वापसी हुई तो राज्यसभा सांसद बने. एमपी में कमलनाथ सरकार बनाने में उनकी भूमिका रही. सब कुछ ठीक हुआ तो भोपाल से चुनावी मैदान में कूदने के बाद दिग्विजय सिंह का करियर दांव पर आ गया है. यदि हार मिली तो सरकार के फैसले में हिस्सेदारी खत्म हो जाएगी. सियासी वजन के कम होने का मतलब है हाशिये पर आ जाना.

अजय सिंह (राहुल भैय्या)
अपनी परंपरागत सीट चुरहट से विधानसभा चुनाव पहले ही हार चुके हैं. चुनावी हार के बाद भी उम्मीद थी कि पार्टी प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाएगी. लोकसभा चुनाव के बाद इन उम्मीदों के धरातल पर उतरने वाली गुंजाइश बन सकती है. अजय चुनाव सतना से लड़ना चाहते हैं. पार्टी सीधी से चुनाव लड़वाना चाह रही है. हार हुई तो करियर खत्म होगा.

अरुण यादव
कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के प्रदेश की सियासत में सक्रिय होने के बाद अरुण यादव की प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी चली गई थी. सिंधिया, कमलनाथ की सक्रियता की वजह से पार्टी पर एकाधिकार खत्म हुआ है. लेकिन चुनावी हार मिली तो वजन और भी कम हो जाएगा. सामने नंदकुमार सिंह चौहान जैसे दिग्गज मैदान में है, जो पिछली दफा अरुण यादव को लोकसभा चुनाव हरा चुके हैं. चुनावी रणनीति में एक भी चूक सब बरबाद कर सकती है.

राजेंद्र सिंह
सतना से लोकसभा का टिकट मिलने से पार्टी में संभावनाएं बढ़ी हैं. वर्ना विधानसभा चुनाव में मिली हार ने विधानसभा उपाध्यक्ष पद से मिला सियासी ओहदा भी खत्म कर दिया था. लोकसभा में जीत के बाद फिर से सियासत में जिंदा रहने की संभावनाएं बन रही हैं. लेकिन हार हुई तो करियर खत्म.

सुरेश पचौरी
कमलनाथ के सरकार बनने के बाद अपनी ज़मीन तलाश रहे दिग्गजों में एक सुरेश पचौरी भी हैं. संगठन में भी कोई बडी़ जिम्मेदारी नहीं है. दो बार से लगातार विधानसभा चुनाव में मिली हार से पहले ही हौसला टूट चुका है. अब होशंगाबाद से टिकट की उम्मीद है. ये चुनावी जीत फिर से सियासी ओहदा दिला सकती है. वर्ना हाशिये पर ही बैठकर मौके की तलाश में इंतजार करना होगा.

रामनिवास रावत
15 साल विधानसभा में विपक्षी दल के दौरान पार्टी में बड़ी भूमिका निभाई. लेकिन सरकार जब आई तो रावत चुनाव हार चुके थे. सिंधिया कैंप के एक मज़बूत सिपहसालार रामनिवास रावत को अब केवल लोकसभा चुनाव की जीत ही सियासत में दोबारा जिंदा कर सकती है.

सुमित्रा महाजन
ताई-भाई की लड़ाई के बावजूद अपना सियासी वर्चस्व कायम रखने वाली सुमित्रा महाजन अब सियासत में करियर के मामले में मुहाने पर नजर आ रही है. टिकट में देरी धड़कनें बढ़ा रही हैं. विरोध बढ़ गया है. टिकट का नहीं मिलना और मिलने के बाद हार का रिजल्ट एक ही निकलेगा.

नरेंद्र सिंह तोमर
भोपाल से दिल्ली तक अपना खास रुतबा रखने वाले तोमर को इस बार सीट बदलनी पड़ी है. लेकिन मुरैना भी सुरक्षित सीट नहीं समझी जा रही है. एक केंद्रीय मंत्री रहते और ग्वालियर इलाके में पार्टी पर एकछत्र एकतरफा चलाने वाले तोमर के लिए ये चुनाव चुनौती की तरह है.

शिवराज सिंह चौहान
मध्य प्रदेश में बीजेपी की एकमात्र धुरी रहने वाले शिवराज अब पार्टी में फैसले लेने के मामले में संकट के दौर में है. पहले जहां एकतरफा फैसले लेते थे, अब हिस्सेदारी हो गई है. विदिशा या भोपाल से टिकट की बात चल रही है. यदि दिग्विजय सिंह के सामने मैदान में उतारे गए तो चुनाव हाईप्रोफाइल हो जाएगा. लेकिन नतीजों में हार मिली तो विधानसभा चुनाव की हार के बाद ये हार सियासी वजन कम कर देगी. ये चुनाव सबसे बड़ी चुनौती है.

नंदकुमार सिंह चौहान
प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष रहे चौहान को खंडवा से टिकट आसानी से मिल गया है. लेकिन अर्चना चिटनिस से बीते दिनों खुलकर विरोध का सामने आना चुनावी जीत में मुश्किलों का संकेत दे रहा है. चुनावी मैदान में सामने हैं अरुण यादव. जो पिछली हार के बाद अब संभलकर अपने तरकश में नए तीर भर चुके हैं. नंदकुमार को पार्टी के अंदर और बाहर दोनों जगह से चुनौती मिल रही है.

जयभान सिंह पवैया
बजरंग दल के अध्यक्ष रहकर देश की सियासत में चमकने वाले पवैया अब एमपी की सियासत तक सीमित रह गए हैं. तीसरी बार की सरकार में मंत्री बनाए गए थे. लेकिन चुनावी हार ने फिर से उभरते करियर को ठंडा कर दिया. अब बीजेपी के लिए गुना जैसी कठिन सीट से नाम चल रहा है. ये चुनाव बेहद चुनौतीपूर्ण हैं.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *