नई दिल्ली। कांग्रेस पार्टी को 11 दिसंबर को आए चुनाव नतीजों में आखिरकार वह जीत मिल गई जिसके लिए पार्टी लंबे समय से तरस रही थी. एक ऐसी जीत जिससे पार्टी की सूखती धान में पानी पड़ा. लेकिन जीत के साथ ही महत्वाकांक्षाएं भी मुंहजोर होने लगीं. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने लंबी मंत्रणा के बाद मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया को मुख्यमंत्री न बनने के लिए मना लिया, लेकिन वही बात राजस्थान में सचिन पायलट को समझानी कठिन हो रही है.
राजस्थान कांग्रेस के अध्यक्ष सचिन पायलट ने अंगद की तरह पांव जमा रखा है. राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का जादू खुलकर सामने नहीं आ पा रहा है. अगर पूरे मामले को गौर से देखें तो अब तक इतना साफ है कि विधायक दल ने फैसला करने का अधिकार कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को दे दिया है. लेकिन राहुल गांधी अपना फैसला गहलोत और पायलट को मनवा नहीं पा रहे हैं.
सूत्रों की मानें तो कांग्रेस के विधायक दल में पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को ज्यादा विधायकों का समर्थन हासिल है. राहुल गांधी के पास प्रदेश से जो फीडबैक आ रहे हैं उसमें भी गहलोत को अच्छा समर्थन हासिल है. इसी आधार पर पार्टी आलाकमान चाहती थी कि राजस्थान में भी मध्य प्रदेश फॉर्मूला लागू किया जाए. जिस तरह सिंधिया ने कमलनाथ के नाम का प्रस्ताव किया, उसी तरह पायलट गहलोत के नाम का प्रस्ताव करें और गहलोत को मुख्यमंत्री बनाया जाए.
लेकिन सचिन पायलट का कहना है कि पिछले चार साल से प्रदेश अध्यक्ष के नाते उन्होंने राज्य में मेहनत की है. इस जीत में उनकी मेहनत का बड़ा हाथ है. इसलिए मुख्यमंत्री उन्हें बनाया जाना चाहिए. इस तरह से वे राहुल गांधी के फैसले के खिलाफ खड़े नजर आ रहे हैं.
इस समय देश की सियासत में चल रहे घटनाक्रम को दो दशक पुराने घटनाक्रम से जोड़कर देखा जा सकता है. उस जमाने में जब राहुल की मां सोनिया गांधी कांग्रेस की बागडोर संभाल रही थीं, तब सचिन के पिता राजेश पायलट और ज्योतिरादित्य के पिता माधवराव सिंधिया कांग्रेस के बड़े नेता हुआ करते थे. ये दोनों नेता भी आलाकमान के सामने दंडवत नहीं थे. लेकिन सिंधिया सीनियर और पायलट सीनियर की राजनीति में एक फर्क था, मावधराव कभी आलाकमान के सामने मुखर नहीं हुए, वहीं राजेश पायलट खुलकर सामने आने वाले शख्स बने रहे.
उन्होंने अपने बागी तेवर सबसे पहले कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी के सामने दिखाए और कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लड़ा. उस समय शरद पवार ने भी कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लड़ा था. ये दोनों नेता केसरी से चुनाव हार गए. जब बाद में कांग्रेस की बागडोर सोनिया गांधी के हाथ में आई तो शरद पवार ने बगावत की और पार्टी छोड़ने को मजबूर हुए. लेकिन राजेश पायलट पार्टी के भीतर रहकर ही सोनिया के मुकाबले में आए. सन 2000 में जब कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सोनिया गांधी चुनाव लड़ रही थीं, तो उनके खिलाफ जो नेता बिगुल उठाए थे, उनमें कांग्रेस नेता जीतेंद्र प्रसाद और पायलट मुखर थे.
कांग्रेस नेता जतिन प्रसाद के पिता जीतेंद्र प्रसाद जब 2000 में सोनिया गांधी के सामने चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे थे तो पायलट ने उनके समर्थन में रैलियां की थीं. बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में राजेश पायलट ने सोनिया गांधी की आलोचना की थी. इस इंटरव्यू में एक सवाल के जवाब में पायलट ने कहा था कि हां, वह प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं.
9 जून 2000 को एक कार दुर्घटना में मृत्यु से पहले राजेश पायलट ने सोनिया गांधी से लंबी मुलाकात की थी. हो सकता है इस मीटिंग में कुछ अच्छी बातें हुई हों. बहरहाल तब जीतेंद्र प्रसाद वह चुनाव हार गए थे.
आज दो दशक बाद इन सारे नेताओं की दूसरी पीढ़ी मैदान में है. सोनिया की जगह राहुल हैं, राजेश की जगह सचिन हैं और माधवराव की जगह ज्योतिरादित्य हैं. दोनों ही नेताओं को मनमोहन सिंह सरकार में राज्य मंत्री बनाया जा चुका है. समय के साथ दोनों नेता राहुल के करीब भी आ चुके हैं. इन सबने मिलकर उसी तरह कांग्रेस को संकट से उबारा है, जैसे दो दशक पहले इनके बुजुर्गों ने मिलकर उबारा था.
लेकिन इस उत्साह के साथ नेताओं की वर्तमान पीढ़ी में अपने बुजुर्गों के तेवर भी आ गए हैं. ज्योतिरादित्य वही कर रहे हैं, जो उनके पिता ने किया था. यानी शांति से समय के साथ चलना. दूसरी तरफ सचिन वही कर रहे हैं, जो उनके पिता राजेश पायलट ने किया था. यानी अपनी बात के लिए खुलकर मैदान में आना. जाहिर है सचिन को पता होगा कि किसी भी दूसरी पार्टी की तरह कांग्रेस में भी इस तरह के विरोध को अच्छा तो नहीं ही समझा जाएगा. इस पूरे घटनाक्रम से सचिन को गद्दी मिले या न मिले, 24 अकबर रोड में उनके नंबर जरूर कम हो जाएंगे.