नीलेश द्विवेदी
जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव के बाद बीते महीने नई सरकारों का गठन हुआ है, उनमें मध्य प्रदेश की स्थिति जितनी दिलचस्प पहले थी उतनी ही अब भी बनी हुई है. राजस्थान और छत्तीसगढ़ की तरह मध्य प्रदेश में भी कांग्रेस ने सत्ता में वापसी की है. मगर इन दो राज्यों के उलट यहां ‘सरकार’ को सत्ता की पटरी पर आने में ख़ासी मशक्क़त करनी पड़ रही है.
यह मशक्कत पहले बहुमत के लिए हुई. कांग्रेस के पास बहुमत से दो सीटें कम थीं. विधानसभा में 116 का आंकड़ा ज़रूरी है, जबकि कांग्रेस को 114 सीटें मिली थीं. यह इंतज़ाम तो जल्दी हो गया, लेकिन कांग्रेस विधायक दल के नेता का चुनाव इतनी आसानी से नहीं हो पाया. विधानसभा चुनाव के नतीज़े (11 दिसंबर) आने के तीन दिन बाद कमलनाथ को यह पद मिल सका.
फिर जब 17 दिसंबर को मुख्यमंत्री की शपथ होनी थी तो यह उम्मीद की जा रही थी कि उनके साथ कुछ मंत्री भी शपथ लेंगे. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. प्रदेश को नए मुख्यमंत्री मिलने के आठ दिन बाद मंत्री मिल पाए. पूरे 28 और सब कैबिनेट वाले. देश में संभवत: पहली बार ऐसा कहीं हुआ होगा जब पहली ही बार में सबको कैबिनेट मंत्री बना दिया गया. और यह भी कभी-कभार ही हुआ होगा कि किसी प्रदेश में तीन-चार दिनों तक भरा-पूरा मंत्रिमंडल तो अस्तित्व में रहा, लेकिन सभी मंत्री बिना किसी विभाग के ही समय काटते रहे हों. यानी मंत्रियों के विभागों का बंटवारा करने का विशेषाधिकार होने के बावज़ूद मुख्यमंत्री अपने मंत्रियों को अपनी मर्ज़ी से विभाग न बांट सके हों.
इस सबके बीच एक और विचित्रता देखिए, इस तस्वीर के बरअक़्स जाे नीचे दी गई है. यह मध्य प्रदेश के नए मंत्रिमंडल की पहली बैठक की तस्वीर है. इसे ग़ौर से देखिए. इसमें मुख्यमंत्री कमलनाथ बैठे ज़रूर हैं मगर चुपचाप. उनके मंत्रियों को दिशानिर्देश देने का काम उनकी बराबरी पर बैठे दिग्विजय सिंह कर रहे हैं. सो, ज़ाहिर तौर नए मंत्रियों की निग़ाह भी दिग्विजय सिंह पर ही टिकी है. अब कहने के लिए तो प्रदेश कांग्रेस कार्यालय में हुई यह बैठक अनौपचारिक थी, लेकिन यह भविष्य के औपचारिक संकेत कहती-सुनाती दिख रही है.
कमलनाथ के प्रदेश अध्यक्ष बनने के समय से ही दिग्विजय सिंह उनके आंख-कान बने हुए हैं
अब इसी तस्वीर के बहाने पीछे की कड़ियां जोड़ते हुए आगे की कुछ तस्वीर बनती है. पीछे की कड़ी यह कि जब बीती मई में कमलनाथ ने प्रदेश कांग्रेस की कमान संभाली थी तब भी ख़बरें यही आई थीं कि वे दिग्विजय सिंह के समर्थन की बदाैलत ऐसा कर सके. बल्कि द एशिएन एज़ ने तब कमलनाथ की उपलब्धि को दिग्विजय की जीत तक बता दिया था. इसके बाद बिखरे पार्टी संगठन में फिर जान फूंकने के लिए भी कमलनाथ ने दिग्विजय का ही सहयोग लिया. उन्हें पार्टी की चुनाव समन्वय समिति का प्रमुख बनाया. उनकी इस भूमिका का पहला प्रभाव टिकट वितरण में दिखा. लगभग दो तिहाई से ज़्यादा उम्मीदवार दिग्विजय और कमलनाथ के रहे. दिग्विजय के छोटे भाई लक्ष्मण सिंह और पुत्र जयवर्धन पहली सूची में ही टिकट पाने वालों में शुमार कर लिए गए.
फिर पार्टी की जीत के बाद जब मुख्यमंत्री चुनने की बारी आई तब भी दिग्विजय का समर्थन ही काम आया और कमलनाथ यह पद हासिल कर सके. इसके बाद तो दिग्विजय पर्दे के सामने मुख्य भूमिका में दिखने लगे. इसकी मिसाल यह कि कमलनाथ जब मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रहे थे तो उस वक़्त मंच पर पूरा इंतज़ाम दिग्विजय ही संभाल रहे थे. यहीं याद दिला दें कि चुनाव अभियान के दौरान कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व ने दिग्विजय सिंह को जानबूझकर पीछे रखा था ताकि प्रचार उनके इर्द-ग़िर्द केंद्रित न हो जाए. और अब चाहे प्रशासनिक जमावट का मसला हो, मंत्रियों के चयन का या उनके विभागों के बंटवारे का, हर जगह दिग्विजय सिंह की छाप नज़र आ रही है.
उदाहरण के तौर पर कमलनाथ के 28 सदस्यों वाले मंत्रिमंडल में सबसे ज़्यादा 10-11 समर्थक दिग्विजय सिंह के हैं. बल्कि संख्या इससे ज़्यादा भी मानी जा सकती है, क्याेंकि जिन्हें स्थानीय अख़बारों ने दिग्विजय समर्थक नहीं बताया है उनमें भी पांच-छह ऐसे हैं जो दिग्विजय सरकार में या तो ख़ुद मंत्री रहे या उनके माता-पिता. मसलन- सचिन यादव के पिता सुभाष यादव और उमंग सिंघार की मां जमुना देवी. ये दोनों दिग्विजय सिंह के काल में उपमुख्यमंत्री रहे हैं. कमलेश्वर पटेल के पिता (दिवंगत) इंद्रजीत पटेल भी मंत्री थे.
यही हाल विभागों के बंटवारे में हुआ. मंत्रिमंडल से सबसे छोटे सदस्य महज़ 32 साल के अपने पुत्र जयवर्धन को दिग्विजय नगरीय प्रशासन जैसा दमदार विभाग दिलाने में कामयाब रहे. वहीं उनके समर्थकाें को सहकारिता, पंचायत, ऊर्जा, चिकित्सा शिक्षा, वाणिज्यिक कर और नर्मदा घाटी विकास जैसे सात-आठ बड़े विभाग मिले हैं. इसके अलावा गृह मंत्री बाला बच्चन और लोकनिर्माण मंत्री सज्जन वर्मा जैसे कमलनाथ समर्थक कहे जा रहे वरिष्ठ मंत्री दिग्विजय सरकारों में भी काम कर चुके हैं.
तिस पर ताज़ा ख़बर यह है कि वरिष्ठ आईएएस सुधि रंजन मोहंती मध्य प्रदेश के मुख्य सचिव बनाए गए हैं. मोहंती भी दिग्विजय के समर्थक अफ़सरों में गिने जाते हैं. उनकी सरकार में वे जनसंपर्क, चिकित्सा शिक्षा, स्कूल शिक्षा, वित्त निगम आदि में बड़े पदों पर रहे हैं. लेकिन भाजपा सरकार के कार्यकाल में वे बीते 15 साल से पीछे की लाइन में चले गए थे. मोहंती सचिव बनने से पहले मध्य प्रदेश माध्यमिक शिक्षा मंडल के अध्यक्ष थे. यानी कमलनाथ के मंत्री हों या अफ़सर, इनमें से अधिकांश ऐसे हैं जो दिग्विजय सिंह के इशारों काे न सिर्फ समझते हैं बल्कि उस पर चल भी सकते हैं.
दिग्विजय सिंह और कमलनाथ का साथ एक-दूसरे की मजबूरी भी है
मन से हो न हो लेकिन जतन से दिग्विजय और कमलनाथ का एक-दूसरे का साथ देना अभी मज़बूरी भी है. प्रदेश की राजनीति के कई जानकार ‘सत्याग्रह’ से अनौपचारिक बातचीत में मानते हैं कि इस वक़्त प्रदेश में दिग्विजय और कमलनाथ दोनों ‘बुज़ुर्ग हो चुके’ नेताओं के सामने एकमात्र चुनौती ज्योतिरादित्य सिंधिया हैं. यह चुनौती भी अपेक्षाकृत युवा है और दिल्ली तक असरदार भी. इसका प्रमाण यह कि कमलनाथ को मुख्यमंत्री चुने जाने का मामला हो या मंत्रियों की नियुक्ति या फिर उनके विभागाें के बंटवारे का, कोई काम भोपाल में नहीं हो पाया. हर बार कमलनाथ को दिल्ली (कांग्रेस का राष्ट्रीय नेतृत्व) तक दौड़ लगानी पड़ी. उनके साथ दिग्विजय को भी जोर लगाना पड़ा.
सिंधिया के दबदबे की एक मिसाल यह भी है कि चुनाव नतीज़े के दिन 11 दिसंबर को दिग्विजय सिंह ने पूरे भरोसे के साथ एक साक्षात्कार में कहा था कि परिणाम आने के 24 घंटे के भीतर प्रदेश को नया मुख्यमंत्री मिल जाएगा. लेकिन इस दावे के बावज़ूद ऐसा हो नहीं पाया. इसमें तीन दिन लग गए. मंत्रियों की संख्या के मामले में भी ज्योतिरादित्य सिंधिया समर्थक लगभग आठ लोग कमलनाथ की टीम में हैं. जहां तक विभागों के बंटवारे का मसला है तो उनके समर्थकों के पास परिवहन, वन, राजस्व और स्कूल शिक्षा जैसे दमदार विभाग हैं. इससे बड़ी बात यह कि दिग्विजय पूरी कोशिश के बावज़ूद अगर अपने बेटे को वित्त जैसा महकमा नहीं दिलवा सके तो इसकी वजह भी सिंधिया को माना जा सकता है.
और यह बात भी है कि सिंधिया अभी इक़लौते ऐसे नेता हैं जो पूरे प्रदेश में व्यापक जनाधार (लगातार दो बार चुनाव अभियान समिति के प्रमुख रह चुके हैं) तो रखते ही हैं, बड़े कहलाने वाले नेताओं से सीधा टकराव मोल लेने से भी नहीं चूकते. टिकट वितरण के समय पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी के सामने उनकी दिग्विजय सिंह से गरमा-गरमी की ख़बर इसका प्रमाण है. वहीं दूसरी तरफ़ कमलनाथ के पुत्र नकुल अभी राजनीति में पूरी तरह उतरे ही नहीं हैं. जबकि दिग्विजय के पुत्र जयवर्धन (दूसरी बार विधायक बने हैं) धीरे-धीरे पैर जमा रहे हैं. यानी यही वह मज़बूरी कही जा सकती है जो कमलनाथ और दिग्विजय को एक-दूसरे का साथ देने पर मज़बूर कर रही है.
लेकिन दिग्विजय का संग-साथ ही आगे कमलनाथ के लिए परेशानी भी बन सकता है
जानकारों की ही मानें तो दिग्विजय का ज़्यादा संग-साथ कमलनाथ के लिए परेशानी भी पैदा कर सकता है. बल्कि यह कहें कि दिक्कतें थोड़ी बहुत सामने आने लगी हैं तो ग़लत नहीं होगा. उदाहरण इसके भी हैं. जैसे- ख़बरों की मानें तो दिग्विजय अपने पुत्र जयवर्धन को वित्त मंत्रालय दिलाना चाह रहे थे. दलील यह थी कि जयवर्धन ने माइक्रो इकॉनॉमिक्स में एमबीए किया है. हालांकि मंशा निश्चित रूप से उनका क़द बड़ा करने की ही रही होगी लेकिन, सिंधिया के दबाव में यह हो नहीं पाया और वित्त मंत्रालय अब जिन तरुण भनोट के पास है, वे 12वीं कक्षा तक पढ़े हैं. इसके साथ यह भी याद रखा जा सकता है कि राज्य की वित्तीय हालत इस वक़्त ख़स्ता है. कांग्रेस को किसानों की कर्ज़ माफ़ी का अपना वचन पूरा करने के लिए ही 50,000 करोड़ रुपए से ज़्यादा का वित्तीय प्रबंध करना है. जबकि राज्य सरकार पर 1.80 लाख कराेड़ रुपए का कर्ज़ है.
इसके अलावा ध्यान रखने की बात यह भी है कि दिग्विजय सिंह के 10 साल के शासन काल में जिन विभागों का प्रदर्शन सबसे ज़्यादा ख़राब माना गया उनमें सड़कों का निर्माण और रखरखाव देखने वाला लोक निर्माण विभाग प्रमुख था. दूसरा – बिजली व्यवस्था वाला ऊर्जा विभाग और तीसरा – पानी का इंतज़ाम करने वाला जल-संसाधन विभाग. ये तीनों विभाग कमलनाथ सरकार में भी अप्रत्यक्ष रूप से दिग्विजय के पास ही कहे जा सकते हैं. जैसे- लोकनिर्माण मंत्री सज्जन वर्मा हैं, जल-संसाधन मंत्री हुकुम सिंह कराड़ा और ऊर्जा मंत्री प्रियव्रत सिंह. इनमें सज्जन और कराड़ा पूर्व में दिग्विजय सरकार में मंत्री रह चुके हैं और प्रियव्रत उनके नज़दीकी रिश्तेदार हैं.
फिर पार्टी के भीतर और सरकार को बाहर से समर्थन देने वालों का असंतोष भी है. सरकार में अब सिर्फ छह जगहें खाली हैं. अब तक सिर्फ़ एक निर्दलीय- प्रदीय जायसवाल को ही मंत्री बनाया गया है. जबकि समर्थन देने वाले तीन और हैं, जो मंत्री बनने की राह देख रहे हैं. इनके अलावा कांग्रेस के चार वरिष्ठ विधायक- केपी सिंह, एदल सिंह कंसाना, बिसाहूलाल और जयवर्धन सिंह दत्तीगांव भी नाराज़ हैं. इनमें कंसाना, सिंह और बिसाहूलाल दिल्ली तक जाकर राष्ट्रीय नेतृत्व से अपनी नाराज़गी जता चुके हैं. कंसाना के समर्थन में कुछ इस्तीफ़े हो चुके हैं और दत्तीगांव ने ख़ुद इस्तीफ़े की धमकी दी है. वे वंशवाद की राजनीति पर हमला भी कर चुके हैं.
समाजवादी पार्टी का एक तथा बहुजन समाज पार्टी के दो विधायक भी हैं, जो समर्थन के एवज़ में मंत्री बनना चाहते हैं और न बनाए जाने से खुलकर नाराज़गी जता चुके हैं. इन पार्टियों के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी नाराज़ हैं. इनमें सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने तो असंतोष जता भी दिया है. वहीं बसपा प्रमुख मायावती चुनाव से पहले से दिग्विजय से नाराज़ चल रही हैं. उन्होंने तब आरोप लगाया था कि उन्हीं की वज़ह से बसपा-कांग्रेस का गठबंधन नहीं हो सका. हाल ही में उन्होंने राजस्थान और मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकारों से समर्थन वापसी की धमकी भी दी है.
यानी दिग्विजय सिंह की जो सियासी जमावट आज कमलनाथ को फ़ायदे की लग रही है वही आने वाले समय में उनके लिए घाटे का सौदा साबित हो जाए ताे कोई अचरज की बात नहीं होगी.